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आम जानकारी

आलूचे का पौधा व्यापक सजावटी, सीमित और लगभग बाकि फलों के पौधों से कम देखभाल वाला होता है| आलूचे में विटामिन ऐ,बी, (थायामाइन), राइबोफ्लेविन के साथ-साथ पौष्टिक तत्व जैसे कि कैल्शियम, फासफोरस और लोहे की भरपूर मात्रा होती है| इसमें खट्टेपन और मीठे की मात्रा अच्छी तरह से मिली होने के कारण, यह उत्पाद बनाने जैसे कि जैम, स्क्वेश आदि के लिए बहुत लाभदायक है| सूखे आलूचे को प्रूनस के नाम से भी जाने जाते है| इनका प्रयोग आयुर्वेदिक तौर पर भी किया जाता है| इससे तैयार तरल को पीलिये और गर्मियों में होने वाली ऐलर्जी से बचाने के लिए भी प्रयोग किया जाता है| आलूचा दिल के दौरे के खतरे को कम करता है।
 
भारत में हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियां, जम्मू और कश्मीर, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश मुख्य आलूचा उगाने वाले क्षेत्र हैं।
 

जलवायु

  • Season

    Temperature

    20-30°C
  • Season

    Rainfall

    200-300mm
  • Season

    Sowing Temperature

    25-30°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    20-25°C
  • Season

    Temperature

    20-30°C
  • Season

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    200-300mm
  • Season

    Sowing Temperature

    25-30°C
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    Harvesting Temperature

    20-25°C
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    20-30°C
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    200-300mm
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    25-30°C
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    20-25°C
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    20-30°C
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    25-30°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    20-25°C

मिट्टी

आलूचा को मिट्टी की कई किस्मों में उगाया जा सकता है, जैसे कि घनी उपजाऊ, बढ़िया निकास वाली, दोमट मिट्टी   जिसका pH  5.5-6.5 हो, में उगाया जा सकता है| मिट्टी में सख्त-पन, जल-जमाव और नमक की ज्यादा मात्रा नहीं होनी चाहिए|

पौधे की देखभाल

Alubokhara: इस किस्म के पौधे सीधे और फैलने वाले होते है| इसके फल बाकी की किस्मों से बढ़े होता है| इस किस्म की पैदावार kala Amritsari किस्म से कम होती है| इसके फलों का छिलका पीला होता है और बीच में लाल धब्बे होते हैं| इसका गुद्दा बहुत स्वाद और मीठा होता है|
 
Satluj Purple: यह किस्म को अकेले उगाने पर फल नहीं लगता है, इसलिए इसके साथ परागण के लिए kala Amritsari किस्म का प्रयोग किया जाता है| बढ़िया फलों की प्राप्ति के लिए हर दूसरी पंक्ति में kala Amritsari किस्म के पौधे का होना बहुत जरूरी है| इस किस्म के फलों का आकार बढ़ा और भार 25-30 ग्राम होता है| इसकी बाहरी परत मोटी और बीच वाली परत पीली बिंदियों वाली होती हैं| आम-तौर पर इसके ताज़े फल खाये जाते है| यह मई के शुरू में पक जाती है और इसकी औसतन पैदावार 35-40 किलो प्रति वृक्ष होती है|
 
Kala Amritsari: यह मैदानी क्षेत्रों की सबसे ज्यादा पसंद करने वाली किस्म है| इसके फलों का आकार सामान्य, गोल-चपटा होता है| पकने के बाद इसके फल की बाहरी परत गहरे जामुनी रंग की हो जाती है| इसकी बीच वाली परत पीली बिंदियों वाली होती है और गुद्दा रसीला होता है| इसके फल स्वाद में हल्के खट्टे होते हैं| फल मई के दूसरे पखवाड़े में पक जाते है| इस किस्म के फल जैम और स्क्वेश बनाने के लिए प्रयोग किये जाते है|
 
Titron: यह अकेले फल देने वाली किस्म है, पर पैदावार बढ़ाने के लिए इसके साथ परागण के alucha किस्म लगाई जाती है| Titron किस्म kala Amritsari किस्म से छोटी होती है| इसके फल Satluj Purple और kala Amritsari किस्म से छोटे होता है| इस किस्म की बाहरी परत  kala Amritsari से पतली होती है| इसका गुद्दा पीले रंग का और हल्का रसीला होता है| इसकी औसतन पैदावार 30-35  किलो प्रति वृक्ष होती है|
 
Kataruchak: इस किस्म की खोज पंजाब के गुरदासपुर जिले के एक छोटे से गांव कटरूचक में हुई| इस किस्म के फलों का मूल्य kala Amritsari से ज्यादा होता है, क्योंकि इसके फल पर सफेद रंग की कलियां होती है| इसके फल बढ़े, दिल के आकार के और जामुनी रंग के होते है| यह kala Amritsari से बाद जल्दी पक जाती है| इसकी औसतन पैदावार 45-50 किलो प्रति वृक्ष होती है| इसके फल जैम, स्क्वेश आदि तैयार करने के लिए बढ़िया होता है|
 
Jamuni Meeruti: इसके फल छोटे आकार के होते हैं इसका छिलका हल्का पीला और पतला होता है। इसकी औसतन पैदावार 28 किलो प्रति एकड़ होती है।
 
Alpha: इसके फल छोटे आकार के और गोल होते हैं। पकने पर ये लाल रंग में विकसित हो जाते हैं। इसकी औसतन पैदावार 25 किलो प्रति वृक्ष होती है।
 
Late yellow: यह मध्यम आकार की किस्म है। इसके फल गोल आकार के होते हैं। पकने पर ये लैमन पीले रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 25 किलो प्रति वृक्ष होती है।
 
Peshawari kala: यह किस्म कम और अच्छी गुणवत्ता वाले फल देती है। इसके फल काले रंग के और मोटे छिलके वाले होते हैं।
 
Damson Plum: यह मध्यम और गोल आकार के फल देने वाली किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 40 किलो प्रति वृक्ष होती है।
 

बिजाई

बिजाई का समय
इसकी बिजाई जनवरी के पहले पखवाड़े में की जाती है|  
 
फासला
नर्सरी में आलूचे के बीजों को 15 सैं.मी. x 30 सैं.मी. फासले पर बोयें। जबकि मुख्य खेत में कतार और पौधों  में एक दूसरे से  6 मीटर x 6 मीटर फासले का प्रयोग करें।
 
बिजाई का ढंग
इसके पौधों की सीधी बिजाई की जाती है|
 

बीज

बीज की मात्रा
एक एकड़ में बिजाई के लिए 110 पौधों की जरूरत होती है|
 

प्रजनन

आलूचे के बढ़िया प्रजनन के लिए आड़ू,आलूचे और खुमानी के भागों का प्रयोग किया जाता है|
 
कलम लगाने के बिना Kala Amritsari की जड़ काट कर बिजाई करना भी सहायक सिद्ध होता है| 
 
नवंबर के महीने में बीजों को बोया जाता है। बडिंग के लिए नए पौधे मई से जून के महीने में तैयार हो जाते हैं। अच्छे परिणाम के लिए टी बडिंग और शील्ड बडिंग की जा सकती है।
 

खाद

तत्व (ग्राम प्रति वृक्ष)

NITROGEN
PHOSPHORUS POTASH
30 15 36

 

खादें (ग्राम प्रति वृक्ष)

UREA
SSP MOP
60 95 60

 

आलूचे की खेती के लिए भारी मिट्टी में भारी मात्रा में खाद की जरूरत होती है| भारी मिट्टी में हल्की मिट्टी के मुकाबले कम खादों की आवश्यकता होती है।
 
हमेशा मिट्टी की जांच के आधार पर खादें डालें। आमतौर पर रूड़ी की खाद या गाय का गला हुआ गोबर 6 किलो, 60 ग्राम यूरिया (नाइट्रोजन 30 ग्राम),म्यूरेट ऑफ पोटाश 60 ग्राम (पोटाश 36 ग्राम), एस एस पी 95 ग्राम(फासफोरस 15 ग्राम) डालें।
 
6वें वर्ष से खादों की मात्रा बढ़ा दें। जैसे कि गाय का गोबर 36 किलो, यूरिया 360 ग्राम, एस एस पी 570 ग्राम और म्यूरेट ऑफ पोटाश 375 ग्राम डालें। जिंक की कमी होने पर 3 किलो जिंक सल्फेट डालें।
 
दिसंबर के महीने में गाय का गोबर, फासफोरस और पोटाश की पूरी मात्रा, नाइट्रोजन की आधी मात्रा फूल निकलने से पहले डालें और बाकी की मात्रा फूल निकलने के एक महीने बाद डालें।
 

 

 

सिंचाई

आलूचे के पौधे की जड़े अनियमित होती है और यह जल्दी पक जाता है| इस लिए इसे विकास के समय काफी मात्रा में नमी की जरूरत होती है| सिंचाई  मिट्टी की किस्म, मौसम और फल की किस्म पर निर्भर करती है| अप्रैल,मई और जून महीने में एक हफ्ते के फासले पर सिंचाई करें| फूल निकलने और फल पकने के समय अच्छी तरह से सिंचाई करें| बारिश के मौसम में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है| सितंबर, अक्तूबर और नवंबर महीने में 20 दिनों के फासले पर सिंचाई करें|

खरपतवार नियंत्रण

नदीनों के अंकुरण होने से पहले ड्यूरॉन1.2 किलो या सीमाज़ाइन 1.6 किलो प्रति एकड़ की सिफारिश की जाती है और अंकुरण के बाद नदीनों की रोकथाम के लिए ग्लाइफोसेट 320 मि.ली. प्रति एकड़ डालें|

पौधे की देखभाल

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  • बीमारीयां और रोकथाम
भूरे गलन रोग(फंगस): यह बीमारी से फलों पर भूरे रंग के पाउडर जैसा पदार्थ बन जाता है| फल सिकुड़ कर गल जाते है|
 
रोकथाम: पौधे को हवा लगने के लिए अच्छी तरह से कांट-छांट करें| नीचे गिरे हुए फलों को हटा के नष्ट कर दें| फल निकलने से पहले सल्फर की स्प्रे करें और छिलके पर दरार आने पर दोबारा स्प्रे करें| फिर एक हफ्ते के फासले पर दो हफ्ते तक स्प्रे करें|
काली गांठे पड़ना(फंगस): इस बीमारी के साथ नई शाखाएं और किनारों पर 1 से 30 सैं.मी. के आकार की  धुंए जैसे काली गांठे पड़ जाती है|
 
रोकथाम: इस बीमारी की रोधक किस्मों का प्रयोग करें जैसे की ‘president’ और ‘shiro’| गांठों को छांट दें| कटाई हमेशा सोजिश से कम से कम 10 सैं.मी. नीचे से करें|
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  • कीट और रोकथाम
आलूचे की भुंडी: इसके हमले से फल पर चपटाकर धब्बे पड़ जाते है और फल जल्दी टूट कर गिर जाते है|
 
रोकथाम: गिरे हुए फलों को लगातार उठाते रहें| जब पत्ते गिरने शुरू हो तो हर रोज़ वृक्ष के नीचे एक शीट बिछाये और वृक्ष के तने पर मोटे डंडे से मारे| शीट पर गिरी हुई भुंडीयों को इक्क्ठा करके नष्ट कर दें और यही क्रिया 3 हफ्ते तक दोहराएं|
आलूचे का पत्ता मरोड़ चेपा: इसके हमले से पत्ते और नई शाखाएं मुड़ जाती है और इनका विकास रुक जाता है| इन पर छोटे और चिपकने वाले कीट मौजूद रहते है|
 
रोकथाम: इनके अंडे देने से पहले ही बाग़बानी तेल की स्प्रे ध्यानपूर्वक करें या जब यह पत्तों पर दिखाई दें तो नीम अर्क डालें|

फसल की कटाई

 स्थानीय मंडी के लिए वृक्ष पर सारे फलों का पकना जरूरी होता है| पके फलों को कई सारी तुड़ाइयां करके इक्क्ठा किया जा सकता है और पूरे ध्यान से पैक किया जाता है| टोकरी में नीचे बिछाने के लिए धान की पराली या घास का प्रयोग किया जाता है। जबकि लंबी दूरी वाली मंडियों के लिए फलों की 50 प्रतिशत रंग बदलने पर तुड़ाई की जाती है।

 

कटाई के बाद

यह फसल जल्दी खराब हो जाती है, इसलिए इसको अच्छी तरह से पैक करके सही तापमान पर स्टोर कर देना चाहिए|