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आम जानकारी

चने को आमतौर पर छोलिया या बंगाल ग्राम भी कहा जाता है, जो कि भारत की एक महत्तवपूर्ण दालों वाली फसल है। यह मनुष्यों के खाने के लिए और पशुओं के चारे के तौर पर प्रयोग किया जाता है। ताजे हरे पत्ते सब्जी बनाने के लिए प्रयोग किए जाते हैं जबकि पौधे का बाकी बचा हिस्सा पशुओं के चारे के तौर पर प्रयोग किया जाता है। इसके दाने भी सब्जी बनाने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। चने की पैदावार वाले मुख्य देश भारत, पाकिस्तान, इथियोपिया, बर्मा और टर्की आदि हैं। इसकी पैदावार पूरे विश्व में से भारत में सबसे ज्यादा है और इसके बाद पाकिस्तान है। भारत में मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और पंजाब आदि मुख्य चने उत्पादक राज्य हैं। 
 
इन्हे आकार, रंग और बीजों के रूप के अनुसार 2 श्रेणियों में बांटा गया है। देसी या भूरे चने, काबुली या सफेद चने। काबुली चने की पैदावार देसी चनों से कम होती है।
 

जलवायु

  • Season

    Temperature

    24-30°C
  • Season

    Rainfall

    60-90cm
  • Season

    Sowing Temperature

    24-28°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30-32°C
  • Season

    Temperature

    24-30°C
  • Season

    Rainfall

    60-90cm
  • Season

    Sowing Temperature

    24-28°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30-32°C
  • Season

    Temperature

    24-30°C
  • Season

    Rainfall

    60-90cm
  • Season

    Sowing Temperature

    24-28°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30-32°C
  • Season

    Temperature

    24-30°C
  • Season

    Rainfall

    60-90cm
  • Season

    Sowing Temperature

    24-28°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30-32°C

मिट्टी

यह फसल काफी तरह की मिट्टी में उगाई जाती है। चने की खेती के लिए रेतली दोमट से चिकनी मिट्टी बहुत अनुकूल मानी जाती है। घटिया निकास वाली ज़मीन इसकी खेती के लिए अनुकूल नहीं मानी जाती । खारी या नमक वाली ज़मीन भी इसके लिए अच्छी नहीं मानी जाती। इसके विकास के लिए 5.5 से 7 पी एच वाली मिट्टी अच्छी होती है।
 
हर साल एक खेत में एक ही फसल ना बोयें। अच्छा फसली चक्र अपनायें। अनाज वाली फसलों को फसल चक्र में प्रयोग करने से ज़मीन से लगने वाली बीमारियां रोकने में मदद मिलती है। आमतौर पर फसल चक्र में खरीफ के सफेद चने, खरीफ के काले चने + गेहूं/जौं/रायाचरी-चने, धान/मक्की-चने आदि फसलें आती हैं।
 

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

Gujarat Chana 4: यह किस्म पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिंचित और बारानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 120-130 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Avarodhi: यह पूरे उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 145-150 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Pusa 256: यह पूरे उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 135-140 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
KWR 108: यह पूरे उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 130-135 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Radhe: यह बुंदेलखंड क्षेत्र में खेती करने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह 145-150 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
J.G 16: यह बुंदेलखंड क्षेत्र में खेती करने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह 135-140 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 8-9 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
K-850: यह उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह 145-150 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
DCP 92-3: यह पूरे उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 145-150 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Aadhar: यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह किस्म 125-130 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
WCG 1: यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए उपयुक्त किस्म है। यह 135-140 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
WCG 2: यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए उपयुक्त किस्म है। यह 130-135 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
KGD: 1168: यह पूरे उत्तर प्रदेश के लिए उपयुक्त किस्म है। यह 150-155 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Pusa 372: यह पिछेती बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है और पूरे उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त है। यह 130-140 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Uday: यह पिछेती बिजाई और पूरे उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त है। यह 130-140 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Pant G 186: यह पिछेती बिजाई और पूरे उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त है। यह 120-130 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
काबुली किस्में
 
Pusa 1003: यह पूर्वी उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह 135-145 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 8-9 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
HK 94-134: यह पूरे उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह 140-145 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Shubra: यह बुंदेलखंड में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह 110-115 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 5-6 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
दूसरे राज्यों की किस्में
 
RSG-44: यह किस्म 1991 में RAU, दुर्गापुर द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म पकने के लिए 135-185 दिन लेती है। यह किस्म सूखे और ठंड के प्रतिरोधी है।
 
KPG 59: यह किस्म 1992 में CASUAT द्वारा जारी की गई है। यह पिछेती बिजाई वाली किस्म है जिसके बीज मोटे होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म पकने के लिए 135-150 दिनों का समय लेती है। यह किस्म रतुआ रोग, सूखा और फली छेदक को सहने योग्य है। 
 
Pusa 372 (BG 372):  यह किस्म 1993 में IARI द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 5-6 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 135-150 दिनों में पक जाती है। यह किस्म झुलस रोग, सूखा और रतुआ रोग को सहने योग्य है। इसके बीज छोटे होते हैं जो कि हल्के भूरे रंग के होते हैं।
 
Pusa 329: यह किस्म 1993 में IARI द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 8-9 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 145-155 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखे और सलेटी रंग की फंगस के काफी हद तक प्रतिरोधी होती है।
 
Vardan (GNG-663): यह किस्म RAU, श्रीनगर द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 9-10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 150-155 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखे के प्रतिरोधी होती है।
 
GPF 2: यह किस्म 1995 में PAU द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 8-9 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 152 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखे के प्रतिरोधी और झुलस रोग को सहने योग्य है। इसके बीज पीले भूरे रंग के होते हैं। 
 
Pusa-362: यह किस्म 1995 में IARI द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 9-10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 145-150 दिनों में पक जाती है। इसके बीज मोटे होते हैं और यह किस्म सूखे को सहनेयोग्य है।
 
Alok (KGD 1168): यह किस्म 1996 में CSAUAT द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 145-150 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखे और रतुआ रोग के प्रतिरोधी है।
 
Samrat (GNG 469): यह किस्म RAU, श्रीनगर द्वारा 1997 में जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 145-150 दिनों में पक जाती है। यह किस्म झुलस रोग के प्रतिरोधी और सूखे और रतुआ रोग को सहने योग्य है। यह किस्म कम वर्षा वाले क्षेत्रों और सिंचित क्षेत्रों में उगाने के लिए अनुकूल है।
 
Karnal Chana-1: यह किस्म उत्तरी राजस्थान में उगाने के लिए अनुकूल है। यह किस्म 1997 में CSSRI, करनाल द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 9-11 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 140-147 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखे के प्रतिरोधी है।
 
DCP-92-3: यह किस्म 1997 में IIPR द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 145-150 दिनों में पक जाती है। इसके बीज मध्यम मोटे, पीले भूरे रंग के होते हैं। यह किस्म उत्तरी राजस्थान में उगाने के लिए उपयुक्त है जहां पर भूमि उपजाऊ और नमी ज्यादा मात्रा में है।
 
Asha (RSG 945): यह किस्म 2005 में ARS, दुर्गापुर द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 7 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 75-80 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखी जड़ों और सूखे की कुछ हद तक प्रतिरोधी है।
 
PGC-1 (Pratap Channa 1): यह किस्म 2005 में ARS, बंसवारा द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 5-6 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 90-95 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखे और फली बेधक की कुछ हद तक प्रतिरोधी है।
 
Rajas: यह किस्म 2007 में MPKV द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 7.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 136 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखा रोग के प्रतिरोधी है।
 
GNG 421 (Gauri): यह किस्म 2007 में ARS, श्री गंगानगर द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 7.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 127-160 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखा जड़ गलन, विकास का रूकना और सूखे के प्रतिरोधी है।
 
GNG 1488 (Sangam): यह किस्म 2007 में ARS, श्री गंगानगर द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 7.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 99-157 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखा जड़ गलन, विकास का रूकना के प्रतिरोधी है।
 
RSG 991 (Aparna): यह किस्म 2007 में ARS, दुर्गापुर द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 5-6 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 130-135 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखा जड़ गलन, सूखा और तना गलन के प्रतिरोधी है।
 
RSG 896 (Arpan): यह किस्म 2007 में ARS, दुर्गापुर द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 5-6 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 130-135 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखा जड़ गलन, सूखा और फली बेधक के प्रतिरोधी है।
 
RSG 902 (Aruna): यह किस्म 2007 में ARS, दुर्गापुर द्वारा जारी की गई है। इसकी औसतन पैदावार 6-7 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 130-135 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखा जड़ गलन, सूखा और फली बेधक के प्रतिरोधी है।
 
RSG 974 (Abhilasha): यह किस्म 2010 में ARS, दुर्गापुर द्वारा जारी की गई है। यह किस्म 130-135 दिनों में पक जाती है। यह किस्म सूखा जड़ गलन, बोट्रीटिस ग्रे मोल्ड सूखा और चितकबरा रोग के प्रतिरोधी है।
 
GNG 1958: यह सिंचित इलाकों और आम सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए अनुकूल है। यह किस्म 145 दिनों में पक जाती है। इसके बीज भूरे रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है|
 
PBG 7: पूरे पंजाब में इसकी बिजाई की सिफारिश की जाती है। यह किस्म फली के ऊपर धब्बा रोग, सूखा और जड़ गलन रोग की प्रतिरोधी है। इसके दाने दरमियाने आकार के होते हैं और इसकी औसतन पैदावार 8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म तकरीबन 159 दिनों में पक जाती है।
 
CSJ 515: यह किस्म सिंचित इलाकों के लिए अनुकूल है। इसके दाने छोटे और भूरे रंग के होते हैं और भार 17 ग्राम प्रति 100 बीज होता है। यह जड़ गलन रोग की प्रतिरोधी है और फली के ऊपर धब्बों के रोग को सहनेयोग्य है। यह किस्म तकरीबन 135 दिनों में पक जाती है और इसकी औसतन पैदावार 7 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। 
 
BG 1053: यह काबुली चने की किस्म है। इस किस्म के फूल जल्दी निकल आते हैं और यह 155 दिनों में पक जाती है। इसके दाने सफेद रंग के और मोटे होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इनकी खेती पूरे प्रांत के सिंचित इलाकों में की जाती है।
 
L 550: यह काबुली चने की किस्म है। यह दरमियानी फैलने वाली और जल्दी फूल देने वाली किस्म है। यह 160 दिनों में पक जाती है। इसके दाने सफेद रंग के और औसतन पैदावार 6 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
L 551: यह काबुली चने की किस्म है। यह सूखा रोग की प्रतिरोधी किस्म है। यह 135-140 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है और इसकी औसतन पैदावार 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
GNG 1969: यह सिंचित इलाकों और आम सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए अनुकूल है। इसका बीज सफेद रंग का होता है और फसल 146 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 9 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
GLK 28127: यह सिंचित इलाकों के लिए अनुकूल किस्म है इसके बीज हल्के पीले और सफेद रंग के और बड़े आकार के होते हैं। जो दिखने में उल्लू जैसे लगते हैं। यह किस्म 149 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
GPF2: इस किस्म के पौधे लंबे होते हैं जो कि ऊपर की ओर बढ़ते हैं। यह फली के ऊपर पड़ने वाले धब्बा रोग की प्रतिरोधी किस्म है। यह किस्म तकरीबन 165 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 7.6 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 

ज़मीन की तैयारी

चने की फसल के लिए ज्यादा समतल बैडों की जरूरत नहीं होती। यदि इसे मिक्स फसल के तौर पर उगाया जाये तो खेत की अच्छी तरह से जोताई होनी चाहिए। यदि इस फसल को खरीफ की फसल के तौर पर बीजना हो, तो खेत को मॉनसून आने पर गहरी जोताई करें, जो बारिश के पानी को संभालने में मदद करेगा। बिजाई से पहले खेत की एक बार जोताई करें। यदि मिट्टी में नमी की कमी नज़र आये तो बिजाई से एक सप्ताह पहले सुहागा फेरें।

बिजाई

बिजाई का समय
बारानी क्षेत्रों के लिए, अक्तूबर का दूसरा या तीसरा सप्ताह चने की खेती के लिए उपयुक्त होता है। सिंचित क्षेत्रों के लिए, बिजाई नवंबर के दूसरे सप्ताह में पूरी कर लें। चने की पिछेती बिजाई दिसंबर के पहले सप्ताह तक पूरी कर लें।
 
फासला
बिजाई के लिए, कतार से कतार में 20-25 सैं.मी. और पौधे से पौधे में 10 सैं.मी. फासले का प्रयोग करें।
 
बीज की गहराई 
बीज को 6-8 सैं.मी. की गहराई पर बोयें।
 
बिजाई का ढंग
बीज को सीड ड्रिल या लोकल हल की सहायता से बोयें।
 

बीज

बीज की मात्रा
छोटे दानों के लिए 30-32 किलो बीज प्रति एकड़ में प्रयोग करें और मोटे दानों के लिए 36-40 किलो बीज प्रति एकड़ में प्रयोग करें।
 
बीज का उपचार
ट्राइकोडरमा 2 किलो प्रति एकड़ + गला हुआ गोबर 50 किलो मिलाएं और फिर जूट की बोरियों में 24-72 घंटों के लिए रख दें। फिर इस घोल को नमी वाली ज़मीन पर बिजाई से पहले खिलार दें। इससे मिट्टी में पैदा होने वाली बीमारियों को रोका जा सकता है। बीज को मिट्टी में पैदा होने वाली बीमारियों से बचाने के लिए फफूंदीनाशक जैसे कि कार्बेनडाज़िम 12 प्रतिशत + मैनकोज़ेब 63 प्रतिशत डब्लयू पी (साफ) 2 ग्राम से प्रति किलो बीज को बिजाई से पहले उपचार करें। दीमक वाली ज़मीन पर बिजाई के लिए बीज को क्लोरपाइरीफॉस 20 ई सी 10 मि.ली. से प्रति किलो बीज का उपचार करें।
बीज का मैसोराइज़ोबियम से टीकाकरण करें। इससे चने की पैदावार 7 प्रतिशत तक वृद्धि होती है । इस तरह करने के लिए बीज को पानी में भिगोकर, उन पर मैसोराइज़ोबियम डालें। टीकाकरण के बाद बीज को छांव में सुखाएं।
 
निम्नलिखित में से किसी एक फंगसनाशी/ कीटनाशी का प्रयोग करें:
 
 
फंगसनाशी/ कीटनाशी दवाई  मात्रा (प्रति किलोग्राम बीज)
Carbendazim 12% + Mancozeb 63% WP 2 gm
Thiram 3 gm
 
 

खरपतवार नियंत्रण

बथुआ, सेंजी, क्रुशन निल, हिंरनखुरी, चटरी मटरी, गाजरी, अकारा अकारी, जंगली गाजर आदि चने के खेत में पाये जाने वाले मुख्य नदीन हैं।
नदीनों की जांच के लिए पहली गोडाई हाथों से या घास निकालने वाली चरखड़ी से बिजाई के 25-30 दिन बाद करें और जरूरत पड़ने पर दूसरी गोडाई बिजाई के 60 दिनों के बाद करें। 
फ्लूक्लोरालिन 45 ई सी 800 मि.ली. को 100-150 लीटर पानी में मिलाकर बीज की बिजाई से पहले खेत में डालें।
नदीनों की प्रभावशाली रोकथाम के लिए बिजाई से पहले पैंडीमैथालीन 1 लीटर को प्रति 150 लीटर पानी में घोलकर बिजाई के 3 दिन बाद एक एकड़ में स्प्रे करें। कम नुकसान होने पर नदीन नाशक की बजाय हाथों से गोडाई करें या कही से घास निकालें। इस से मिट्टी हवादार बनी रहती है।
 

खाद

खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)

UREA
SSP MOP
20 150 15

 

तत्व (किलोग्राम प्रति एकड़)

NITROGEN PHOSPHORUS POTASH SULPHUR
9 24 9 8

 

सभी किस्मों के लिए, नाइट्रोजन 9 किलो (यूरिया 20 किलो), फासफोरस 24 किलो (एस एस पी 150 किलो), पोटाश 9 किलो (म्यूरेट ऑफ पोटाश 15 किलो) और सल्फर 8 किलो प्रति एकड़ में डालें। बारानी क्षेत्रों के लिए यूरिया 200 ग्राम को 10 लीटर पानी में मिलाकर फूल बनने के समय डालें। फासफोरस, पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बिजाई के समय डालें। नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा बिजाई के 4-5 सप्ताह बाद डालें।

 

 

सिंचाई

बारानी क्षेत्रों में मुख्यत: बंगाल ग्राम की खेती की जाती है। यदि पानी उपलब्ध हो तो पहली सिंचाई बिजाई के 40-45 दिनों के बाद, फूल निकलने के बाद करें और अगली सिंचाई फली के विकास के बाद करें। यदि सिर्फ एक सिंचाई उपलब्ध हो तो बिजाई के 60 दिनों के बाद करें।
 

पौधे की देखभाल

दीमक
  • हानिकारक कीट और रोकथाम
दीमक : यह फसल को जड़ और जड़ के नजदीक से खाती है। प्रभावित पौधा मुरझाने लग जाता है। दीमक फसल को उगने और पकने के समय बहुत नुकसान करती है।
 
इसकी रोकथाम के लिए बिजाई से पहले बीज को क्लोरपाइरीफॉस 20 ई सी 10 मि.ली. से प्रति किलो बीज का उपचार करें। यदि हमला खड़ी फसल पर दिखाई दे तो इमीडाक्लोप्रिड 4 मि.ली. या क्लोरपाइरीफॉस 5 मि.ली. को 10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़कें।
 
फल छेदक
फली छेदक : यह चने की फसल का एक खतरनाक कीट है, जो फसल की पैदावार को 75 प्रतिशत तक कम कर देता है। यह पत्तों, फलों और हरी फलियों को खाता है। यह फलियों पर गोलाकार में छेद बना देता है और दानों को खाता है।
 
हैलीकोवरपा आर्मीगेरा फीरोमॉन कार्ड 5 प्रति एकड़ लगाएं। कम हमला होने पर सुंडी को हाथ से उठाकर बाहर निकाल दें। शुरूआती समय में एच एन पी वी या नीम का अर्क 50 ग्राम प्रति लीटर पानी का प्रयोग करें। ई टी एल स्तर के बाद रसायनों का प्रयोग जरूरी होता है। (ई टी एल : 5-8 अंडे प्रति पौधा)
 
जब फसल के 50 प्रतिशत फूल निकल आएं तो डैल्टामैथरीन 1 प्रतिशत + ट्राइज़ोफॉस 35 प्रतिशत 25 मि.ली. प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। इस स्प्रे के बाद एमामैक्टिन बैनज़ोएट 5 प्रतिशत जी 3 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
 
ज्यादा हमले की हालत में एमामैक्टिन बैंज़ोएट 5 प्रतिशत एस जी 7-8 ग्राम प्रति 15 लीटर या फलूबैंडीअमाइड 20 प्रतिशत डब्लयु जी 8 ग्राम प्रति 15 लीटर पानी की स्प्रे करें।
झुलस रोग
  • बीमारियां और रोकथाम
मुरझाना : तने, टहनियां और फलियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे नज़र आते हैं अनआवश्यक और ज्यादा बारिश पड़ने से पौधा नष्ट हो जाता है।
 
इस बीमारी की रोधक किस्मों का प्रयोग करें। बिजाई से पहले बीजों को फफूंदीनाशक से उपचार करें। बीमारी का हमला दिखने पर इंडोफिल एम 45 या कप्तान 360 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी की स्प्रे प्रति एकड़ पर करें। जरूरत पड़ने पर 15 दिनों के बाद दोबारा स्प्रे करें।
कुतरा सुंडी
कुतरा सुंडी : यह सुंडी मिट्टी में 2-4 इंच गहराई में छिप कर रहती है। यह पौधे के शुरूआती भाग, टहनियां और तने को काटती है। यह मिट्टी में ही अंडे देती है। सुंडी का रंग गहरा भूरा होता है और सिर पर से लाल होती है।
 
इसकी रोकथाम के लिए फसल चक्र अपनाएं। अच्छी रूड़ी की खाद का प्रयोग करें। शुरूआती समय में सुंडियों को हाथों से इक्ट्ठा करके नष्ट कर दें। चने की फसल के नजदीक टमाटर या भिंडियों की खेती ना करें। कम हमले की स्थिति में क्विनलफॉस 25 ई सी 400 मि.ली. को प्रति 200-240 लीटर पानी में डालकर प्रति एकड़ की स्प्रे करें। ज्यादा हमले की स्थिति में प्रोफैनोफॉस 50 ई सी 600 मि.ली. प्रति एकड़ को 200-240 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।

 

कुंगी
कुंगी : इस बीमारी का ज्यादातर हमला पंजाब और उत्तर प्रदेश में होता है। पत्तों के निचले भाग पर छोटे, गोल और अंडाकार, हल्के या गहरे भूरे धब्बे दिखाई देते हैं। इसके बाद धब्बे काले हो जाते हैं और प्रभावित पत्ते झड़ जाते हैं।
 
इसकी रोकथाम के लिए रोधक किस्मों का प्रयोग करें। यदि खेत में इसके लक्षण दिखें तो मैनकोज़ेब 75 डब्लयु पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें। फिर 10 दिनों के फासले पर दो ओर स्प्रे करें।
सूखा
सूखा : इस बीमारी से पैदावार में काफी कमी आती है। यह बीमारी नए पौधे के तैयार होने के समय और पौधे के विकास के समय हमला कर सकती है। शुरू में प्रभावित पौधे के पत्तों की डंडियां झड़ने लग जाती हैं और हल्की हरी दिखाई देती हैं। फिर सारे पत्ते पीले पड़ने शुरू हो जाते हैं।
 
इसकी रोकथाम के लिए रोधक किस्मों का प्रयोग करें। इस बीमारी के शुरूआती समय में रोकथाम के लिए 1 किलो ट्राइकोडरमा को 200 किलो अच्छी तरह से गली हुई रूड़ी की खाद में मिलाएं और 3 दिन के लिए रखें। फिर इसे बीमारी से प्रभावित हुई जगह पर डालें। यदि खेतों में इसका हमला दिखे तो प्रॉपीकोनाज़ोल 300 मि.ली. करे 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ स्प्रे करें।
सलेटी फफूंदी
सलेटी फफूंदी : पत्तों और टहनियों पर छोटे पानी जैसे धब्बे दिखाई देते हैं। प्रभावित पत्तों पर धब्बे गहरे-भूरे रंग के हो जाते हैं। ज्यादा हमले की स्थिति में टहनियां, पत्तों की डंडियां, पत्तियां और फूलों पर भूरे धब्बे पूरी तरह फैल जाते हैं। प्रभावित तना टूट जाता है और पौधा मर जाता है।
 
इसकी रोकथाम के लिए बिजाई से पहले बीजों का उपचार जरूर करें। यदि हमला दिखे तो, कार्बेनडाज़िम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें।
 

फसल की कटाई

जब पौधा सूख जाता है और पत्ते लाल-भूरे दिखते हैं और झड़ने शुरू हो जाते हैं, उस समय पौधा कटाई के लिए तैयार हो जाता है। पौधे को द्राती की सहायता से काटें। कटाई के बाद फसल को 5-6 दिनों के लिए धूप में सुखाएं। फसल को अच्छी तरह सुखाने के बाद पौधों को छड़ियों से पीटें या फिर बैलों के पैरों के नीचे छंटाई के लिए बिछा दें।

कटाई के बाद

फसल के दानों को स्टोर करने से पहले अच्छी तरह सुखाएं। स्टोर किए दानों को दालों की मक्खी के नुकसान से बचाएं।