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आम जानकारी

धान भारत की एक महत्तवपूर्ण फसल है जो कि जोताई योग्य क्षेत्र के लगभग एक चौथाई हिस्से में उगाई जाती है और भारत की लगभग आधी आबादी इसे मुख्य भोजन के रूप में प्रयोग करती है। यह उत्तर प्रदेश की मुख्य फसल है और उत्तर प्रदेश के लगभग 5.4 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में धान की खेती की जाती है। Basmati, Kalajeera, Vishnu Parag  आदि धान की कुछ उच्च गुणवत्ता वाली किस्में हैं जिनकी खेती उत्तर प्रदेश में की जाती है।

जलवायु

  • Season

    Temperature

    16-30°C
  • Season

    Rainfall

    100-200cm
  • Season

    Sowing Temperature

    20-30°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    16-27°C
  • Season

    Temperature

    16-30°C
  • Season

    Rainfall

    100-200cm
  • Season

    Sowing Temperature

    20-30°C
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    Harvesting Temperature

    16-27°C
  • Season

    Temperature

    16-30°C
  • Season

    Rainfall

    100-200cm
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    Sowing Temperature

    20-30°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    16-27°C
  • Season

    Temperature

    16-30°C
  • Season

    Rainfall

    100-200cm
  • Season

    Sowing Temperature

    20-30°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    16-27°C

मिट्टी

इस फसल को मिट्टी की अलग अलग किस्मों, जिनमें पानी सोखने की क्षमता कम होती है और जिनकी पी एच 5.0 से 9.5 के बीच में होती है, में भी उगाया जा सकता है। धान की पैदावार के लिए रेतली से लेकर गारी मिट्टी तक, और गारी से चिकनी मिट्टी जिसमें पानी को सोखने की क्षमता कम होती है इस फसल के लिए अच्छी मानी जाती है।

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

Jaya: यह छोटे कद की और अधिक उपज देने वाली किस्म गर्दन तोड़ के प्रतिरोधक है। यह किस्म 142 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके दाने बड़े और लंबे होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 26 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Chakia 59: यह किस्म कम जल जमाव वाले हालातों में उगाने के लिए उपयुक्त है।
 
Govind: यह किस्म पंतनगर द्वारा विकसित की गई है। यह किस्म 105 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है।
 
Indrasan: यह तराई क्षेत्रों की प्रसिद्ध किस्म है।
 
Mahsud: यह किस्म निचले क्षेत्रों में बारानी स्थितियों में उगाने के लिए उपयुक्त है।
 
Majhera 3: यह लंबी किस्म सूखे को सहनेयोग्य है और ऊंचे क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त है।
 
Nagina 22: यह ऊंचे क्षेत्रों में बारानी हालातों में उगाने के लिए उपयुक्त है। इसके दाने छोटे और मोटे होते हैं।
 
Narendra-1 and Narendra-2: यह किस्म 105 और 115 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है।
 
Pant Dhan 6: यह किस्म निम्न और मध्यम ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में रोपाई के लिए उपयुक्त है। 
 
Saket 4: यह अगेते समय की किस्म है और 115 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह यू पी की सबसे प्रसिद्ध किस्म है।
 
T9: यह देरी से बोयी जाने वाली सुगंधित किस्म है। इसके दाने बेलनाकार होते हैं।
 
VL Dhan 16: यह निम्न और मध्यम क्षेत्रों में रोपाई के लिए उपयुक्त किस्म है।
 
VL 206: यह लंबी किस्म निम्न और मध्यम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त है।
 
Usar 1: यह किस्म कानपुर में विकसित की गई। यह क्षारीय और लवणीय मिट्टी में खेती करने के लिए उपयुक्त है।
 
बासमती किस्में
 
Taraori Basmati: यह सिंचित क्षेत्रों में अगेती बिजाई के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 145-155 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Haryana Basmati no 1: यह अर्द्ध छोटे कद की किस्म है और सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 140 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Pusa Basmati 1121, Pusa Basmati 1, CSR 30, Shabnam
 
दूसरे राज्यों की किस्में
 
Hybrid 6201: यह सिंचित क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह भुरड़ रोग के प्रतिरोधक किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 25 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Vivek Dhan 62: यह सिंचित और पहाड़ी क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके दाने छोटे और मोटे होते हैं। यह भुरड़ रोग के प्रतिरोधक किस्म है। यह गर्दन तोड़ और कम तापमान वाले क्षेत्रों को भी सहन कर सकती है। इसकी औसतन पैदावार 19 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Karnataka Rice Hybrid 2: यह सिंचित और समय से बिजाई वाले क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त  है। यह पत्तों के झुलस रोग और अन्य बीमारियों को सहनेयोग्य किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 35 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Kanak: यह दरमियाने क्षेत्रों में बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके दाने लंबे और मोटे होते हैं। यह बैक्टीरियल झुलस रोग के प्रतिरोधक किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 18 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Ratnagiri 1 and 2: सिंचित क्षेत्रों के लिए जबकि निचले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। ये अर्द्ध छोटे कद की किस्म हैं। इनकी औसतन पैदावार 19 क्विंटल और 21 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 

ज़मीन की तैयारी

शुष्क खेतों को अच्छा बनाने, नदीन रहित और सेहतमंद वृद्धि के लिए ग्लाफोसेट डालनी चाहिए। गेहूं की कटाई के बाद ज़मीन पर हरी खाद के तौर पर मई के पहले सप्ताह ढैंचा (बीज दर 20 किलोग्राम प्रति एकड़), या सन (बीज दर 20 किलोग्राम प्रति एकड़)  या लोबीया (बीज दर 12 किलोग्राम प्रति एकड़)  की बिजाई करनी चाहिए। जब फसल 6 से 8 सप्ताह की हो जाए तो इसे खेत में कद्दू करने से एक दिन खेत में ही जोत देना चाहिए। इस तरह प्रति एकड़ 25 किलो नाइट्रोजन खाद की बचत होती है। भूमि को समतल करने के लिए लेज़र लेवलर का प्रयोग किया जाता है। इसके बाद खेत में पानी खड़ा कर दें ताकि भूमि के अंदर ऊंचे नीचे स्थानों की पहचान हो सके। इस तरह पानी के रसाव के कारण पानी की होने वाले बर्बादी को कम किया जा सके।

बिजाई

बिजाई का समय 
यू पी के सिंचित और निम्न बारानी क्षेत्रों में मध्य जून से शुरूआती जुलाई तक का समय उपयुक्त होता है। 
 
बीज की गहराई
पौधे की गहराई 2-3 सैं.मी.  होनी चाहिए। फासला बनाकर लगाने से पौधे ज्यादा पैदावार देते हैं।
 
फासला
उपजाऊ मिट्टी में 20 सैं.मी. x 15 सैं.मी. फासले का प्रयोग करें जबकि हल्की मिट्टी में रोपाई के लिए 15 सैं.मी. x 10 सैं.मी. फासले का प्रयोग करें। जल जमाव वाले क्षेत्रों में 20 x 20 सैं.मी. फासले का प्रयोग करें।
 
बिजाई का ढंग 
सिंचित और कम बारानी क्षेत्रों में रोपाई ढंग प्रयोग किया जाता है। रोपाई के लिए 25-30 दिनों के पौधों का प्रयोग करें।
जल जमाव वाले क्षेत्रों में 30-35 दिनों के पौधे रोपाई के लिए प्रयोग करें।
ऊंचे क्षेत्रों में, शुष्क और गीली मिट्टी में रोपाई ढंग का प्रयोग करें।
 

बीज

बीज की मात्रा
एक एकड़ खेत में 6-8 किलो बीज प्रति एकड़ में प्रयोग करें।
 
बीज का उपचार
बिजाई से पहले 10 लीटर पानी में 20 ग्राम कार्बेनडाज़िम $ 1 ग्राम स्ट्रैप्टोसाईक्लिन घोल लें और इस घोल में बीजो को 8-10 घंटे तक भिगोयें। उसके बाद बीजों को छांव में सुखाएं और फिर बिजाई के लिए प्रयोग करें। 
फसल को जड़ गलन रोग से बचाने के लिए नीचे दिए गए फंगसनाशी का प्रयोग किया जा सकता है। पहले रासायनिक फंगीनाशी का प्रयोग करें फिर बीजों का टराईकोडरमा के साथ उपचार करें।
 
 
फंगसनाशी दवाई             मात्रा (प्रति किलोग्राम बीज)
Trichoderma 5-10gm
Chlorpyriphos 3gm
 
 

पनीरी की देख-रेख और रोपण

वैट बैड नर्सरी : यह तकनीक उन क्षेत्रों में अपनाई जाती है जहां पर पानी ज्यादा मात्रा में पाया जाता है। नर्सरी का 1/10 हिस्सा दूसरे खेत में लगाया जाता है।  इसकी बिजाई छींटे द्वारा की जाती है। यहां पर खेत की जोताई और खेत को समतल किया जाता है। बैडों पर कईं दिन तक नमी बनाए रखनी चाहिए। पानी से खेत को ज्यादा ना भरें। जब नर्सरी 2 सैं.मी. से वृद्धि कर जाए तब पानी को खेत में लगाते रहना चाहिए। बिजाई के 15 दिन बाद 26 किलो यूरिया डालना चाहिए। जब नर्सरी 25-30 सैं.मी. तक लंबी हो जाए तब उसे 15-21 दिन बाद दूसरे खेत में लगा देना चाहिए और खेत को लगातार पानी लगाते रहना चाहिए।
 
सूखे बैड वाली नर्सरी : यह तकनीक शुष्क क्षेत्रों में अपनाई जाती है। जो बैड बनाया जाता है वो बिजाई वाले खेत का 1/10 हिस्से में बीज बोया जाता है। बैड का आकार सीमित होना चाहिए और उसकी ऊंचाई 6-10 से.मी होनी चाहिए। धान का आधा जला हुआ छिलका बैड पर बिखेर देना चाहिए। इससे जड़ें मजबूत होती हैं। सही समय पर सिंचाई करते रहना चाहिए और नमी बनाए रखना चाहिए ताकि नए पौधे नष्ट ना हों। तत्वों की पूर्ति के लिए खाद डालना जरूरी है।
 
मॉडीफाईड मैट नर्सरी : यह नर्सरी लगाने का एक ऐसा तरीका है जिसमें कम जगह और कम बीजों की जरूरत होती है। यह नर्सरी किसी भी जगह पर बनाई जा सकती हैं जहां पर समतल जगह हो और पानी की सुविधा हो इसकी पनीरी लगाने के लिए 1% खेत की जरूरत होती है। 4 से.मी  की सतह पर नए पौधे लगाए जाते हैं। इसे बनाने के लिए 1 मीटर चौड़े और 20-30 मीटर लंबे जमीन के टुकड़े की जरूरत होती है। इसके ऊपर बिछाने के लिए पॉलीथीन और केले के पत्तों की जरूरत होती है। इसके इलावा एक लकड़ी का बकसा जो कि 4 से.मी गहरा होता हैं मिट्टी के मिश्रण से भरा होता है। बीजों को इसके अंदर रख देना चाहिए और फिर बीजों को सूखी मिट्टी के साथ ढक देना चाहिए। इसके बाद  पानी का छिड़काव कर देना चाहिए। लकड़ी के बक्से को नमी देते रहना चाहिए। बिजाई से 11-14 दिनों के बाद पौध तैयार हो जाती है। जब पौध तैयार हो जाती है तब मैट से पौध को दूसरे खेत में रोपण कर दिया जाता है। फासला: पौधों का फासला 20x20 सैं.मी. या 25x25 सैं.मी. होना चाहिए।
 

खेत में पौध रोपण

 पनीरी लगाने का ढंग
 1. कद्दू करके लगाई जाने वाली पनीरी : आमतौर पर पंक्ति में लगाए जाने वाले पौधे 20x15 सैं.मी. दूरी पर लगाए जाते हैं और देरी से लगाई जाने वाली पनीरी 15x15 सैं.मी. पर लगाई जाती है। नए पौधों की गहराई 2-3 सैं.मी. होनी चाहिए।
 2. बैड बनाकर लगाई जाने वाली पनीरी : यह बैड भारी ज़मीनों के लिए बनाए जाते हैं। पनीरी लगाने से पहले खालियों में पानी लगाना चाहिए और फिर पनीरी को खेत में लगाना चाहिए। पौधे से पौधे का फासला 9 सैं.मी. होना चाहिए।
 3. मशीनी ढंग से लगाई जाने वाली पनीरी : मैट पनीरी के लिए मशीनों का प्रयोग किया जाता है। यह मशीन 30x12 सैं.मी. के फासले पर पनीरी लगानी चाहिए।
 

खाद

तत्व (किलोग्राम प्रति एकड़)

Area NITROGEN PHOSPHORUS POTASH
Irrigated shallow-lowland rainfed 41-50 30 27
Waterlogging 30-41 - -
Rainfed medium low lying areas 23-32 16 -
Upland rice 23 12 12

 

खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)

Area UREA SSP MOP
Irrigated shallow-lowland rainfed 90-110 190 45
Waterlogging 65-90 - -
Rainfed medium low lying areas 52-70 100 -
Upland rice 52 75 20

 

सिंचित और कम बारानी वाले क्षेत्रों के लिए लगभग 41-50 किलो नाइट्रोजन (यूरिया 90-110 किलो), 30 किलो फासफोरस (एस एस पी 190 किलो) और 27 किलो पोटाश (म्यूरेट ऑफ पोटाश 45 किलो) प्रति एकड़ में डालें। नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फासफोरस और पोटाश की पूरी मात्रा रोपाई के समय डालें। बाकी बची नाइट्रोजन को दो भागों में बांटकर, नाइट्रोजन का 1/4 हिस्सा शाखाएं निकलने के समय और 1/4 हिस्सा बालियां निकलने के समय डालें।
 
जल जमाव वाले क्षेत्रों में नाइट्रोजन 30-41 किलो (यूरिया 65-90 किलो) प्रति एकड़ में शुरूआती खुराक के तौर पर डालें।
 
कम बारानी क्षेत्रों के लिए नाइट्रोजन 23-32 किलो (यूरिया 52-70 किलो) और फासफोरस 16 किलो (एस एस पी 100 किलो) प्रति एकड़ में प्रयोग करें। नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फासफोरस की पूरी मात्रा रोपाई से पहले और बाकी बची नाइट्रोजन बालियां निकलने के समय डालें।
 
ऊंचे क्षेत्रों के लिए नाइट्रोजन 23 किलो (यूरिया 52 किलो), फासफोरस 12 किलो (एस एस पी 75 किलो) और पोटाश 12 किलो (म्यूरेट ऑफ पोटाश 20 किलो) प्रति एकड़ में डालें। नाइट्रोजन की आधी और फासफोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बिजाई के तीन सप्ताह बाद डालें। बाकी बची नाइट्रोजन को दो भागों में बांटे। पहले भाग को बिजाई के 6 सप्ताह बाद और दूसरे भाग को बालियां निकलने के समय डालें।
 

 

 

खरपतवार नियंत्रण

रोपाई के 2 से 3 दिन बाद नदीनों के अंकुरण से पहले बूटाक्लोर 50 ई सी 1200 मि.ली. या थायोबेनकार्ब 50 ई सी 1200 मि.ली. या पैंडीमैथालीन 30 ई सी या प्रैटीलाक्लोर 50 ई सी 600 मि.ली. प्रति एकड़ में डालें। इनमें से किसी एक नदीननाशक को 60 किलो रेत में मिलाकर 4-5 सैं.मी. गहरे खड़े पानी में बुरकाव करें।
चौड़े पत्ते वाले नदीनों की रोकथाम के लिए मेटसलफुरॉन 20 डब्लयु पी 30 ग्राम को 150 लीटर पानी में मिलाकर नदीनों के अंकुरण के बाद रोपाई के 20-25 दिन बाद डालें। स्प्रे से पहले खेत में खड़े पानी का निकास कर दें और स्प्रे के एक दिन बाद सिंचाई करें।
 
नदीनों के अंकुरण से पहले बूटाक्लोर 1 लीटर को बिजाई के 6 से 7 दिनों के बाद प्रति एकड़ में स्प्रे करें। 
 

सिंचाई

पनीरी लगाने के बाद खेत में दो सप्ताह तक अच्छी तरह पानी खड़ा रहने देना चाहिए। जब सारा पानी सूख जाए तो उसके दो दिन बाद फिर से पानी को लगाना चाहिए। खड़े पानी की गहराई 10 सै.मी. से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। खेत में से बूटी और नदीनों को निकालने से पहले खेत में से सारा पानी निकाल देना चाहिए ओर इस प्रक्रिया के पूरे होने के बाद खेत की फिर से सिंचाई करनी चाहिए। पकने से 15 दिन पहले सिंचाई करनी बंद करनी चाहिए ताकि फसल को आसानी से काटा जा सके।
ऊंची भूमि पर सिंचाई पूरी तरह से बारिश पर निर्भर करती है। बारिश की तीव्रता और नियमितता के आधार पर और पानी की उपलब्धता के आधार पर गंभीर अवस्थाओं में सिंचाई करें।  
 

पौधे की देखभाल

जड़ को लगने वाली सूण्डी
  • हानिकारक कीट और रोकथाम
जड़ की सुंडी : जड़ को लगने वाली सुंडी की पहचान बूटों की जड़ और पत्तों को पहुंचे नुकसान से लगाई जा सकती है। यह सफेद रंग की बिना टांगों वाली होती है। यह मुख्य तौर पर पौधे की जड़ पर ही हमला करती है। इसके हमले के बाद पौधे पीले होने शुरू होने लगते है और उनका विकास रूक जाता है। इस कारण धान के पत्तों के ऊपर दानों के निशान उभर आते हैं।
इसका हमला दिखने पर कार्बरिल (4 जी) @ 10 किलो या फोरेट (10 जी) @4 किलो  या कार्बोफियूरॉन (3 जी) @10 किलो को प्रति एकड़ में डालें।
पौधे का टिड्डा
पौधे का टिड्डा : इन कीटों का फसल के ऊपर हमला खड़े पानी वाले या वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में ज्यादा होता है। इनकी मौजूदगी का अंदाजा बूटों के ऊपर भूरे रंग में तबदील होने और पौधों की जड़ों के नजदीक शहद जैसी बूंदों की मौजूदगी से लगता है।
 
यदि इसका हमला दिखे तो डाइक्लोरवॉस 126 मि.ली. या कार्बरील 400 ग्राम को 250 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें या इमीडाक्लोप्रिड 40 मि.ली. या क्विनलफॉस 25 ई सी 400 मि.ली. या क्लोरपाइरीफॉस 1 लीटर को 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में छिड़काव करें।
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पत्ता लपेट सुंडी : इन बीमारियों के कीटाणुओं का फसल के ऊपर उच्च नमी वाले क्षेत्रों में और खास तौर पर जिन इलाकों में धान की पैदावार लगातार की जा रही हो वहां ज्यादा देखने को मिलती है। इस कीटाणु का लार्वा पत्तों को लपेट देता है और बूटे के तंतुओं को खा जाता है। इसके हमले के बाद पत्तों में सफेद धारियां बन जाती हैं।
 
यदि इसके हमले के लक्षण दिखाई दे तो फसल के ऊपर कारटाईप हाइड्रोक्लोराइड 170 ग्राम या टराईज़ोफॉस 350 मि.ली.या एक लीटर क्लोरपाइरीफॉस को 100 लीटर पानी में मिला के प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
राइस हिस्पा
राइस हिस्पा : कुछ जिलों में धान की फसल पर इस कीट के हमले के ज्यादा केस सामने आते हैं। इस कीट का लार्वा पत्तों में छेद करके पत्तों को नष्ट कर देता है। इसके हमले के बाद पत्तों पर सफेद धारियां उभर आती हैं।
 
इसका हमला दिखाई देने पर फसल के ऊपर 120 मि.ली. पैराथियान या क्विनलफॉस 25 ई.सी. 400 मि.ली. या क्लोरपाइरीफॉस एक लीटर को 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
तना छेदक
तना छेदक : इस कीटाणु का लार्वा धान के पौधे की बन रही बालियों में प्रवेश करके उसको खा जाता है, जिससे बालियां धीरे धीरे सूख कर खाली हो जाती है जो बाद में सफेद रंग में तबदील हो जाती हैं।
 
यदि इसके हमले के लक्षण दिखाई दे तो फसल के ऊपर कार्टाइप हाइड्रोक्लोराईड 170 ग्राम या टराईजोफॉस 350 मि.ली. या एक लीटर कलोरपाइरीफॉस को 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
भुरड़ रोग
  • बीमारियां और रोकथाम 
भुरड़ रोग : झुलस रोग के कारण पत्तों के ऊपर तिरछे धब्बे जो कि अंदर से सलेटी रंग और बाहर से भूरे रंग के दिखाई देते हैं। इससे फसल की बालियां गल जाती हैं और उसके दाने गिरने शुरू हो जाते हैं। जिन क्षेत्रों में नाइट्रोजन का बहुत ज्यादा प्रयोग किया जाता है। वहां इस बीमारी का प्रभाव ज्यादा देखने को मिलता है।
 
इसका हमला दिखने पर ज़िनेब 500 ग्राम को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें।
करनाल बंट
करनाल बंट : लाग की शुरूआत पहले बालियों के कुछ दानों पर होती है और इससे ग्रसित दाने बाद में काले रंग का चूरा बन जाते हैं। हालत ज्यादा खराब होने की सूरत में पूरे का पूरा सिट्टा प्रभावित होता है। और सारा सिट्टा खराब होकर काला चूरा बनके पत्ते दानों पर गिरना शुरू हो जाते है।
 
इस बीमारी की रोकथाम के लिए नाइट्रोजन की ज्यादा प्रयोग करने से परहेज़ करना चाहिए। जब फसल पर 10 प्रतिशत बालिया निकल जायें तब टिल्ट 25 ई सी 200 मि.ली. को 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 10 दिनों के अंतराल पर दोबारा स्प्रे करें।
पत्तों के भूरे धब्बे
भूरे रंग के धब्बे : पत्तों के भूरेपन के लक्षण की पहचान पत्तों के ऊपर अंदर से गहरे भूरे रंग और बाहरे से हल्के भूरे रंग के अंडाकार या लंबाकार धब्बों से होती है। यह धब्बे दानों के ऊपर भी पड़ जाते हैं। जिस मिट्टी में पौष्टिक तत्वों की कमी पाई जाती है। वहां इस बीमारी का हमला ज्यादा देखने को मिलता है।
 
इस बीमारी की रोकथाम के लिए सही मात्रा में मिट्टी में पौष्टिक तत्व डालते रहने चाहिए। जब बालियां बननी शुरू हो जाए उस समय 200 मि.ली. टैबूकोनाज़ोल या 200 मि.ली. प्रोपीकोनाज़ोल को 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 15 दिनों के अंतराल पर दोबारा स्प्रे करें।
झूठी कांगियारी
झूठी कांगियारी -इस रोग के कारण फफूंद की तरह हर दाने के ऊपर हरे रंग की परत जम जाती है। उच्च नमी, ज्यादा वर्षा और बादलवाई हालातों में यह बीमारी के फैलने का खतरा बढ़ जाता है। नाइट्रोजन के ज्यादा प्रयोग से भी इस बीमारी का खतरा बढ़ जाता है।
 
इसकी रोकथाम के लिए जब बालियां बननी शुरू हो जाये उस समय 500 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड को 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 10 दिनों के अंतराल पर टिल्ट 25 ई सी 200 मि.ली. को 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
तने का झुलस रोग
तने का झुलस रोग: पत्तों की परत के ऊपर सलेटी रंग के जामुनी रंग की धारी वाले धब्बे पड़ जाते हैं। बाद में यह धब्बे बड़े हो जाते हैं। इस बीमारी का हमला ज्यादा हो तो फसल में ज्यादा दाना नहीं पड़ता। नाइट्रोजन का ज्यादा प्रयोग नहीं करना चाहिए। खेत का साफ सुथरा रखें।
 
यदि इसका हमला दिखे तो टैबुकोनाज़ोल या टिल्ट 25 ई सी 200 मि.ली. या कार्बेनडाज़िम 25 प्रतिशत 200 ग्राम को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें। 15 दिनों के अंतराल पर दोबारा स्प्रे करें।

फसल की कटाई

जब दाने पूरी तरह पक जायें और फसल का रंग सुनहरी हो जाये तो खड़ी फसल की कटाई कर लेनी चाहिए। ज्यादातर फसल की कटाई हाथों से द्राती से या कंबाइन से की जाती है। काटी गई फसल के बंडल बनाके उनको छांटा जाता है। दानों को बालियों से अलग कर लिया जाता है। दानों को बालियों से अलग करने के बाद उसकी छंटाई की जाती है।

कटाई के बाद

धान की कटाई करने के बाद पैदावार को काटने से लेकर प्रयोग तक नीचे लिखी प्रक्रिया अपनाई जाती है।
1.कटाई 2. छंटाई 3. सफाई 4. सुखाना 5. गोदाम में रखना 6.पॉलिश करना और इसके बाद इसे बेचने के लिए भेजना। दानों को स्टोर करने से पहले इन्हें कीटों और बीमारियों से बचाने के लिए 10 किलोग्राम दानों के लिए 500 ग्राम नीम के पाउडर को मिलाना चाहिए।
 
स्टोर किए गए दानों को कीटों के हमले से बचाने के लिए 30 मि.ली. मैलाथियोन 50 ई.सी. को 3 लीटर पानी में घोल तैयार करके इसका छिड़काव करना चाहिए। इस घोल का छिड़काव 100 वर्ग मीटर के क्षेत्र में हर 15 दिनों के बाद करना चाहिए।