गेहूं उत्पादन

आम जानकारी

गेहूं, धान के बाद भारत की महत्तवपूर्ण अनाज के दानों वाली और मुख्य भोजन की फसल है। यह प्रोटीन, विटामिन और फाइबर का उच्च स्त्रोत है। भारत में इसे मुख्यत: रबी फसल के तौर पर उगाया जा सकता है।
गेहूं की तीन प्रजातियां T. aestivum, T. durum and T. dicoccum है, जिनकी खेती पूरे देश में की जाती है। भारत गेहूं का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक देश है और विश्व में पैदा होने वाली गेहूं की पैदावार में भारत का योगदान 8.7 फीसदी है। भारत में उत्तर प्रदेश मुख्य गेहूं उत्पादक राज्य हैं। गेहूं प्रोटीन के साथ साथ फाइबर का उच्च स्त्रोत है। यह मैगनीज और मैगनीशियम का भी अच्छा स्त्रोत है। भारत में उत्तर प्रदेश गेहूं का मुख्य उत्पादक राज्य है और इसके बड़े क्षेत्र में गेहूं की खेती की जाती है। राष्ट्रीय उत्पादन में इसका मुख्य योगदान है। यू पी के साथ हरियाणा और पंजाब मुख्य गेहूं उगाने वाले राज्य हैं। हरदोइ, बहराइच, खेड़ी, ईटावा, गोंडा, बस्ती, मोरादाबाद, रामपुर, बदायुं, सहारनपुर, मुज्जफरनगर, मेरठ, यू पी के मुख्य गेहूं उत्पादक क्षेत्र हैं। उत्तर प्रदेश में गेहूं की उत्पादकता के कम होने का कारण पानी के स्तर का कम होना और खादों को असंतुलित प्रयोग करना आदि है।
 

जलवायु

  • Season

    Temperature

    21-26°C
  • Season

    Rainfall

    75 cm (max)
    20-25 cm (min)
  • Season

    Sowing Temperature

    18-22°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    20-25°C
  • Season

    Temperature

    21-26°C
  • Season

    Rainfall

    75 cm (max)
    20-25 cm (min)
  • Season

    Sowing Temperature

    18-22°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    20-25°C
  • Season

    Temperature

    21-26°C
  • Season

    Rainfall

    75 cm (max)
    20-25 cm (min)
  • Season

    Sowing Temperature

    18-22°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    20-25°C
  • Season

    Temperature

    21-26°C
  • Season

    Rainfall

    75 cm (max)
    20-25 cm (min)
  • Season

    Sowing Temperature

    18-22°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    20-25°C

मिट्टी

इसे भारत की मिट्टी की कई किस्मों में उगाया जा सकता है। गेहूं की खेती के लिए चिकनी दोमट या दोमट बनतर, अच्छे ढांचे और पानी सोखने की सामान्य क्षमता वाली मिट्टी उचित होती है। छिद्रित और पानी कम सोखने वाली मिट्टी गेहूं की खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती। सूखे हालातों, अच्छे जल निकास वाली भारी मिट्टी इसकी खेती के लिए अनुकूल होती है। भारी मिट्टी जिसका घटिया ढांचा और घटिया जल निकास हो इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती क्योंकि गेहूं की फसल जल जमाव के प्रति संवेदनशील होती है।

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

WH 896: इस किस्म की सिंचित क्षेत्रों में समय पर बोने के लिए सिफारिश की गई है।
 
PBW 373: यह अधिक उपज वाली किस्म है। इसकी सिंचित क्षेत्रों में पिछेती बिजाई के लिए सिफारिश की गई है। यह किस्म विभिन्न बीमारियों के प्रतिरोधक है।
 
PBW 343: यह किस्म सिंचित और पिछेती बिजाई के क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 130-135 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह गर्दन तोड़, जल जमाव की स्थितियों के प्रतिरोधक किस्म है। यह करनाल बंट के भी प्रतिरोधक और झुलस रोग को सहनेयोग्य किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 19 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
HD 2643: यह किस्म सिंचित और पिछेती बिजाई के क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इस किस्म से अच्छी गुणवत्ता वाली रोटी बनती है। यह पत्ता और धारीदार कुंगी के प्रतिरोधक और करनाल बंट को सहनेयोग्य किस्म है।
 
UP 2425:  यह सिंचित स्थितियों में पिछेती बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है।
 
PBW-443: यह किस्म सिंचित हालातों में समय पर बोने के लिए उपयुक्त किस्म है।
 
DBW-14: यह किस्म सिंचित हालातों में पिछेती बिजाई के लिए उपयुक्त है। यह जल्दी पकने वाली किस्म है। इसके दाने सख्त होते हैं।
 
NW-2036: यह सिंचित हालातों में पिछेती बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है। यह जल्दी पकने वाली किस्म है। दूसरे शब्दों में, यह किस्म 108 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके दाने छोटे, सुनहरी और अर्द्ध सख्त होते हैं।
 
MACS-6145: यह किस्म बारानी क्षेत्रों में समय पर बोने के लिए उपयुक्त है।
 
HD-2824: यह किस्म सिंचित क्षेत्रों में समय पर बिजाई के लिए उपयुक्त है।
 
PBW-502: यह किस्म पंजाब एग्रीकल्चर युनिवर्सिटी द्वारा विकसित की गई है। यह किस्म सिंचित हालातों में समय पर बिजाई के लिए उपयुक्त है। यह किस्म पत्ते और धारीदार कुंगी के प्रतिरोधक किस्म है।
 
PDW-291: यह किस्म सिंचित हालातों में पिछेती बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है। यह किस्म कुंगी, करनाल बंट और कांगियारी के प्रतिरोधक किस्म है।
 
PBW-524:  यह सिंचित हालातों में पिछेती बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है। यह किस्म कुंगी, करनाल बंट और कांगियारी के प्रतिरोधक किस्म है।
 
HD-2864: यह सिंचित हालातों में समय पर बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है। यह किस्म पत्ते और धारीदार कुंगी के प्रतिरोधी और ताप को सहनेयोग्य किस्म है।
 
HI-8627: यह किस्म बारानी क्षेत्रों में समय पर बिजाई के लिए उपयुक्त है। यह धारीदार कुंगी और पैर गलन के प्रतिरोधक किस्म है।
 
Ujiar(K-9006): यह किस्म सिंचित हालातों में समय पर बोने के लिए उपयुक्त है। इसके दाने अर्द्ध सख्त और सुनहरी होते हैं। यह किस्म करनाल बंट के प्रतिरोधक किस्म है।
 
Gangotri(K-9162):  यह जल्दी पकने वाली और सिंचित हालातों में पिछेती बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है।
 
Prasad (K-8434): यह किस्म सिंचित हालातों में समय पर और नमक वाली और क्षारीय मिट्टी में बोने के लिए उपयुक्त है। यह जल्दी पकने वाली किस्म है। यह 115 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके दाने अर्द्ध सख्त, सुनहरी होते हैं। यह किस्म पत्ता झुलस रोग, करनाल बंट और झूठी कांगियारी को सहनेयोग्य किस्म है।
 
Halna (K-7903): यह सिंचित क्षेत्रों में पिछेती और बहुत देर से उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह किस्म नमक वाली मिट्टी के साथ साथ क्षारीय मिट्टी में उगाने के लिए उपयुक्त है। इसके दाने सुनहरी और अर्द्ध सख्त होते हैं। यह किस्म सभी प्रकार की कुंगियों के प्रतिरोधक किस्म है। यह पत्ता झुलस रोग और करनाल बंट को भी सहनेयोग्य किस्म है।
 
Naina (K-9533): यह सिंचित क्षेत्रों में पिछेती बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके दाने सुनहरी रंग के और अर्द्ध सख्त होते हैं। यह सभी प्रकार की कुंगियों के प्रतिरोधक किस्म है। यह पत्ता झुलस रोग और करनाल बंट को सहनेयोग्य किस्म है।
 
UP 2338: यह पिछेती बिजाई और समय पर बोने के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके दाने मोटे और सख्त होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 23 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
दूसरे राज्यों की किस्में
 
PDW314: यह सिंचित हालातों में समय पर बोने के लिए उपयुक्त किस्म है।
 
WHD943(Durum): यह सिंचित हालातों में समय पर बोने के लिए उपयुक्त किस्म है।
 
HI 1563(Pusa Prachi): यह सिंचित हालातों में पिछेती बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है।
 
MPO-1225: यह सिंचित हालातों में समय पर बोने के लिए उपयुक्त किस्म है।
 
WH 416: यह किस्म अगेती बिजाई और समय पर बोने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह किस्म कम उपजाऊ लेकिन सिंचित ज़मीनों में खेती के लिए उपयुक्त है। इसके दाने लंबे, मध्यम आकार के और सुनहरी रंग के होते हैं। यह भूरी कुंगी के प्रतिरोधक पर पीली कुंगी को सहनेयोग्य किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 22 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
WH 283: यह समय पर बिजाई वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके दाने मध्यम, सख्त और चमकदार सुनहरी रंग के होते हैं। यह किस्म भूरी और पीली कुंगी के प्रतिरोधक किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 20 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
WH 147: यह उपजाऊ और सिंचित ज़मीनों में समय पर बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके दाने मध्यम, नर्म और चमकदार सुनहरी रंग के होते हैं। यह किस्म भूरी कुंगी और करनाल बंट बीमारियों के प्रतिरोधक किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 20 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
WH 157: यह उपजाऊ और सिंचित ज़मीनों में समय पर बिजाई के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके दाने बड़े, सख्त होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 19 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Kalyansona: यह गेहूं की बहुत छोटे कद वाली किस्म है जो कि बहुत सारे हालातों के अनुकूल होती है। और पूरे भारत में इसको बीजने की सलाह दी जाती है। इसे बहुत जल्दी फंगस की बीमारी लगती है।इसलिए इसे फंगस रहित क्षेत्रों में बीजने की सलाह दी जाती है।
 
UP-(368): अधिक पैदावार वाली इस किस्म को पंतनगर द्वारा विकसित किया गया है। यह फंगस और पीलेपन की और बीमारियों से रहित होती है।
 
WL-(711): यह छोटे कद और अधिक पैदावार वाली और कम समय में पकने वाली किस्म है। यह कुछ हद तक सफेद धब्बे ओर पीलेपन की बीमारी से रहित होती है।
 
UP-(319): यह बहुत ज्यादा छोटे कद वाली गेहूं की किस्म है, जिसमें फंगस/उल्ली के प्रति प्रतिरोधकता काफी हद तक पाई जाती है। दानों को टूटने से बचाने के लिए इसकी समय से कटाई कर लेनी चाहिए।
 

ज़मीन की तैयारी

गेहूं की फसल को अच्छे अंकुरन के लिए अच्छी तरह से तैयार, पर ठोस बीज बैड की आवश्यकता होती है। पिछली फसल की कटाई के बाद खेत की अच्छे तरीके से ट्रैक्टर की मदद से जोताई की जानी चाहिए। खेत को आमतौर पर ट्रैक्टर के साथ तवियां जोड़कर जोता जाता है और  उसके बाद दो या तीन बार हल या सुहागे से जोता जाता है।  खेत की जोताई शाम के समय की जानी चाहिए और रोपाई की गई ज़मीन को पूरी रात खुला छोड़ देना चाहिए ताकि वह ओस की बूंदों से नमी सोख सके। प्रत्येक जोताई के बाद सुहागा फेरना चाहिए। 
 
बारानी क्षेत्रों में फसल को दीमक के हमले से बचाव के लिए क्लोरपाइरीफॉस 20 ई सी 700 मि.ली. को 5 लीटर पानी में मिलाकर 100 किलो बीजों का उपचार करें। उसके बाद बीजों को छांव में सुखाएं।
 

बिजाई

बिजाई का समय
 
पश्चिमी यू पी में, सिंचित और सामान्य बिजाई स्थितियों में 1 नवंबर से 15 नवंबर तक बिजाई पूरी कर लें और पिछेती बिजाई की स्थितियों में 1 से 25 दिसंबर तक बिजाई पूरी कर लें।
 
पूर्वी यू पी के लिए, सिंचित और सामान्य बिजाई का उचित समय 1 नवंबर से 15 नवंबर तक है, जबकि पिछेती बिजाई के लिए 1 से 20 दिसंबर का समय उचित है।
 
ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों के लिए, सिंचित और सामान्य बिजाई का उचित समय अक्तूबर के दूसरे पखवाड़े से लेकर नवंबर का पहला पखवाड़ा है। जबकि पिछेती बिजाई के लिए 1 दिसंबर से 20 दिसंबर का समय उचित है।
 
निचले पहाड़ी क्षेत्रों के लिए, सिंचित और सामान्य बिजाई का उचित समय अक्तूबर के आखिरी सप्ताह से लेकर मध्य नवंबर तक का है जबकि पिछेती बिजाई के लिए नवंबर का दूसरा पखवाड़ा उचित समय है।
 
फासला
सामान्य बिजाई के लिए कतारों में 20-22-5 सैं.मी. के फासले की सलाह दी जाती है। यदि बिजाई देरी से करनी हो तो 15-18 सैं.मी. का फासला होना चाहिए।
 
बीज की गहराई
लंबी किस्मों के लिए 6-7 सैं.मी. की गहराई का प्रयोग करें जबकि अन्य किस्मों के लिए 5-6 सैं.मी. की गहराई का प्रयोग करें। 
 
बिजाई की विधि
बीज ड्रिल
बुरकाव विधि 
 

बीज

बीज की मात्रा
छोटे आकार की किस्मों के लिए 40 किलो बीज प्रति एकड़ में प्रयोग करें और मोटे किस्म के बीजों के लिए 50 किलो बीज प्रति एकड़ में प्रयोग करें। यदि पिछेती बिजाई करनी हो तो 60 किलो बीज प्रति एकड़ में प्रयोग करें। बिजाई से पहले बीज साफ और छांटे हुए होने चाहिए।
 
बीज का उपचार
बीजों को दीमक, झूठी कांगियारी से बचाने के लिए बिजाई से पहले क्लोरपाइरीफॉस 4 मि.ली. या टैबुकोनाज़ोल 2 डी एस 1.5-1.87 ग्राम या कार्बेनडाज़िम या थीरम 2 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें। रासायनिक उपचार के बाद ट्राइकोडरमा विराइड 1.15 प्रतिशत डब्लयु पी 4 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें।
 

खाद

खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)

  UREA SSP MOP
Irrigated 130 150 20
Unirrigated 52 75 15
Late sown
110 75 27

 

तत्व (किलोग्राम प्रति एकड़)

  NITROGEN PHOSPHORUS POTASH
Irrigated 60 24 20
Unirrigated 24 12 15
Late sown 50 12 27

 

मिट्टी की जांच के आधार पर खादें डालें। मिट्टी की जांच के अनुसार ही हम मिट्टी में आवश्यक खादों की मात्रा दे सकते हैं। 
 
सिंचित क्षेत्रों के लिए, नाइट्रोजन 60 किलो (यूरिया 130 किलो), फासफोरस 24 किलो (एस  एस पी 150 किलो), पोटाश 12 किलो (म्यूरेट ऑफ पोटाश 20 किलो) प्रति एकड़ में डालें। नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फासफोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बिजाई के समय डालें। बाकी नाइट्रोजन को पहली सिंचाई के समय डालें।
 
बारानी क्षेत्रों के लिए, नाइट्रोजन 24 किलो (यूरिया 52 किलो), फासफोरस 12 किलो (एस  एस पी 75 किलो), पोटाश 8 किलो (म्यूरेट ऑफ पोटाश 15 किलो) प्रति एकड़ में डालें। नाइट्रोज, फासफोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बिजाई के समय डालें। 
 
सिंचित क्षेत्रों में पिछेती बिजाई के लिए, नाइट्रोजन 50 किलो (यूरिया 110 किलो), फासफोरस 12 किलो (एस  एस पी 75 किलो), पोटाश 16 किलो (म्यूरेट ऑफ पोटाश 27 किलो) प्रति एकड़ में डालें। नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा और फासफोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बिजाई के समय डालें। बाकी बची नाइट्रोजन की दो तिहाई मात्रा बिजाई के 35-40 दिनों के बाद डालें।
यह पाया गया है कि जिंक सल्फेट 10 किलो प्रति एकड़ में डालने से उपज में वृद्धि होती है। जिंक की कमी को पूरा करने के लिए जिंक सल्फेट 0.5 प्रतिशत की फोलियर स्प्रे करें। 15 दिनों के अंतराल पर दो से तीन स्प्रे करें।
 
अच्छी शाखाएं और उपज के लिए 19:19:19 घुलनशील खादें 5 ग्राम + स्टिकर 0.5 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर बिजाई के 30 दिनों के बाद स्प्रे करें।
 

 

 

खरपतवार नियंत्रण

सभ्याचारक पद्धति: सभ्याचारक पद्धति  से नदीनों की रोकथाम के लिए फसल बोने के समय, फसल बोने की पद्धति, फसल की किस्म, खाद की मात्रा, सिंचाई की पद्धति ये सभी तत्व महत्तवपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बिजाई के लिए हमेशा गेहूं के साफ और नदीन मुक्त बीजों का प्रयोग करें। गेहूं के बीजों का अंकुरन होने से पहले  नदीनों को उखाड़कर नाश कर दें। खालियों को नदीन रहित रखें। 
 
रासायनिक नदीन रोकथाम: इसमें कम मेहनत और हाथों से नदीनों को उखाड़ने से होने वाली हानि ना होने कारण ज्यादातर यह तरीका ही अपनाया जाता है। नुकसान से बचने के लिए पैंडीमैथालीन स्टांप (30 ई.सी.) 1320 मि.ली. को 200 लीटर पानी के घोल में मिलाके बीजने के 0-3 दिनों के अंदर अंदर छिड़काव करना चाहिए।
 
चौड़े पत्तों वाले नदीनों की रोकथाम: चौड़े पत्तों वाले नदीनों की रोकथाम के लिए बिजाई के 25-30 दिनों के बाद 2,4-डी 0.2-0.4 किलो को प्रति एकड़ में डालें। जब फसल को पहला पानी लग जाए तो जड़ें बनने के समय चौड़े पत्तों वाले नदीनों को रोकने के लिए फलूरोक्सीपर 0.08-0.24 किलो प्रति एकड़ में डालना 2,4-डी के स्थान पर अच्छा विकल्प है।
जब मिट्टी में पर्याप्त नमी मौजूद हो तो नदीननाश्क, पहले और बाद में की जाने वाली दोनों स्प्रे का प्रयोग करें। स्प्रे साफ और धूप वाले दिनों में करें।
नदीनों का फसल में मिलना एक बहुत बड़ी समस्या है। इसके लिए 30-35 दिनों में 160 ग्राम क्लोडिनाफॉप- प्रॉपरज़िल + मैटसलफिउरॉन - मिथाइल बना बनाया + 500 मि.ली. सरफकटैंट 200 लीटर पानी में डालकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें। 
 

सिंचाई

सिंचाई की संख्या  दिनों के अंतराल पर सिंचाई
पहली सिंचाई  20-25  दिनों में
दूसरी सिंचाई 40-45  दिनों में
तीसरी सिंचाई 60-65  दिनों में
चौथी सिंचाई 80-85  दिनों में
पांचवी सिंचाई 100-105  दिनों में
छठी सिंचाई 115-120  दिनों में

 

सिंचाई की संख्या, पानी की उपलब्धता मिट्टी की किस्म पर पर निर्भर करती है। जड़ें बनने के समय और बालियां बनने के समय नमी का होना जरूरी है। छोटे कद वाली किस्मों और अच्छी पैदावार  के लिए बिजाई से पहले सिंचाई करें। गेहूं की फसल के लिए चार से छः सिंचाईयां बहुत होती हैं। बिजाई के 20-25 दिनों के बाद पहली सिंचाई देनी चाहिए। जड़ें बनने के समय पर नमी का होना पैदावार को कम होने से बचाता है। ठंडे क्षेत्रों में जैसे पहाड़ी क्षेत्रों और जहां पर गेहूं की पिछेती बिजाई की जाती है। वहां पर बिजाई के लगभग 25-30 दिनों के बाद पहली सिंचाई करें। बिजाई के 40-45 दिनों के बाद पौधा बनने के समय दूसरी सिंचाई करें। तीसरी सिंचाई 70-75 दिनों के बाद नोड्स बनने के समय करें। फूल निकलने के समय चौथी सिंचाई 90-95 दिनों में करें। पांचवी सिंचाई बिजाई के 110-115 दिनों के बाद करें जब दाने अपरिपक्व होते हैं।
 
कम पानी की स्थितियों में गंभीर अवस्था में सिंचाई करें। जब पानी एक ही सिंचाई के लिए उपलब्ध हो तो जड़ें बनने के समय पानी लगाएं। जब दो सिंचाईयों के लिए पानी उपलब्ध हो तो जड़ें बनने के समय और बालियां निकलने के समय पानी लगाएं। यदि तीन सिंचाइ्रयों के लिए पानी उपलब्ध हो तो पहला पानी जड़ें बनने के समय दूसरा बलियां बनने के समय और तीसरा पानी दानों में दूध बनने के समय लगाएं। जड़ें बनने की अवस्था सिंचाई के लिए बहुत महत्तवपूर्ण अवस्था होती है। यह सिद्ध हुआ है कि पहली सिंचाई के हर सप्ताह के बाद देरी करने से  80-120 किलोग्राम प्रति एकड़ पैदावार  में कमी आती है।
 

 

पौधे की देखभाल

चेपा
  • हानिकारक कीट और रोकथाम
चेपा : यह पारदर्शी, रस चूसने वाला कीट है। यदि यह बहुत ज्यादा मात्रा में हो तो यह पत्तों के पीलेपन या उनको समय से पहले सुखा देता है। आमतौर पर यह आधी जनवरी के बाद फसल के पकने तक के समय दौरान हमला करती है।
 
इसकी रोकथाम के लिए कराईसोपरला प्रीडेटर्ज़, जो कि एक, सुंडियां खाने वाला कीड़ा है, का प्रयोग करना चाहिए। 5-8 हज़ार कीड़े प्रति एकड़ या 50 मि.ली. प्रति लीटर नीम के घोल का उपयोग करें। बादलवाई के दौरान सूंडी का हमला शुरू होता है। थाइमैथोक्सम@80 ग्राम या इमीडाक्लोप्रिड 40-60 मि.ली. को 100 लीटर पानी में घोल तैयार करके एक एकड़ पर छिड़काव करें।
दीमक
दीमक:  दीमक की तरफ से फसल के विभिन्न विभिन्न विकास के पड़ाव, बीज अंकुरन से लेकर पकने तक हमला किया जाता है। बुरी तरह ग्रसित पौधों की जड़ों को आराम से उखाड़ा जा सकता है और यह पत्ता लपेट और सूखे हुए नज़र आते हैं। यदि आधी जड़ खराब हो तो बूटा पीला पड़ जाता है।
 
इसकी रोकथाम के लिए एक लीटर क्लोरपाइरीफॉस 20 ई.सी. को 20 किलो मिट्टी में मिलाके एक एकड़ में बुरकाव करना चाहिए और उसके बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए।
कांगियारी
  • बीमारियां और रोकथाम
कांगियारी : यह बीजों से होने वाली बीमारी है। हवा से इसकी लाग और फैलती है। बालियां बनने के समय कम तापमान, नमी वाले हालात इसके लिए अनुकूल होते हैं।
यदि बीजों पर इस बीमारी का हमला ज्यादा हो तो फंगसनाशी जैसे कार्बोक्सिल (विटावैक्स 75 डब्लयू पी 2.5 ग्राम ), कार्बेनडाज़िम (बाविस्टिन 50 डब्लयु पी 2.5 ग्राम), टैबुकोनाज़ोल (रैक्सिल 2 डी एस 1.25 ग्राम) से प्रति किलो बीज का उपचार करें। यदि हमला कम हो तो ट्राइकोडरमा विराइड 4 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें और सिफारिश की गई खुराक कार्बोक्सिन विटावैक्स 75 डब्लयु पी  1.25 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें।
पत्तों पर धब्बे
सफेद धब्बे : इस बीमारी के दौरान पत्ते, खोल, तने और फूलों वाले भागों पर सफेद रंग की फंगस दिखनी शुरू हो जाती है। यह  फंगस बाद में काले धब्बों का रूप ले लेती है इससे पत्तों और बाकी के भाग सूखने शुरू हो जाते हैं।
 
जब इस बीमारी का हमला सामने आए तो फसल पर 2 ग्राम घुलनशील सल्फर को प्रति लीटर पानी में मिलाकर या 400 ग्राम कार्बेनडाज़िम का प्रति एकड़ में छिड़काव करें। गंभीर हालातों में 2 मि.ली.  प्रोपीकोनाज़ोल को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
भूरी कुंगी
भूरी कुंगी : गर्म तापमान (15-30°C) और नमी वाले हालात इसका कारण बनते हैं। पत्तों के भूरेपन के लक्षण की पहचान पत्तों के ऊपर लाल - भूरे रंग के अंडाकार या लंबकार दानों से होती है। जब खुली मात्रा में नमी मौजूद हो और तापमान 20°C के नजदीक हो तो यह बीमारी बहुत जल्दी बढ़ती है। यदि हालात अनुकूल हों तो इस बीमारी के दाने हर 10-14 दिनों के बाद दोबारा पैदा हो सकते हैं।
 
इस बीमारी की रोकथाम के लिए अलग अलग किस्म की फसलों को एक ज़मीन पर एक समय लगाने के तरीके अपनाने चाहिए। नाइट्रोजन के ज्यादा प्रयोग से परहेज़ करना चाहिए। ज़िनेब Z-78 400 ग्राम की प्रति एकड़ में या प्रोपीकोनाज़ोल 2 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
करनाल बंट
करनाल बंट : यह बीज और मिट्टी से होने वाली बीमारी है लाग की शुरूआत बालियां बनने के समय होती है। बालियां बनने से लेकर उसमें दाना पड़ने तक के पड़ाव के दौरान यदि बादलवाई रहती है तो यह बीमारी और भी घातक हो सकती है। यदि उत्तरी भारत के समतल क्षेत्रों में फरवरी महीने के दौरान बारिश पड़ जाए तो इस बीमारी के कारण बहुत ज्यादा नुकसान होता है।
 
इस बीमारी की रोकथाम के लिए करनाल बंट की रोधक किस्मों का प्रयोग करें। इस बीमारी की रोकथाम के लिए पत्ते के बनने के समय प्रोपीकोनाज़ोल (टिल्ट) 25 ई सी 2 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर बालियां बनने की अवस्था में एक स्प्रे करें।
 
धारीदार जंग
पीली धारीदार कुंगी : यह बीमारी जीवाणुओं के विकास और संचार के लिए 8-13 डिगरी सैल्सियस तापमान अनुकूल होता है और इनके बढ़ने फूलने के लिए 12-15 डिगरी सैल्सियस तापमान पानी के बिना अनुकूल होता है। इस बीमारी के कारण गेहूं की फसल की पैदावार में 5-30 तक कमी आ सकती है। इस बीमारी से बने धब्बों में पीले से संतरी पीले रंग के विषाणु होते हैं। जो आमतौर पर पत्तों पर बारीक धारियां बनाते हैं।
 
इस बीमारी की रोकथाम के लिए कुंगी की रोधक किस्मों का प्रयोग करें। फसली चक्र और मिश्रित फसलों की विधि अपनायें। नाइट्रोजन का ज्यादा प्रयोग ना करें। जब इस बीमारी के लक्षण दिखाई दें तो 5-10 किलोग्राम सल्फर का छिड़काव प्रति एकड़ या 2 ग्राम मैनकोजेब या 2 मि.ली. प्रोपीकोनाज़ोल 25 ई सी को प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में छिड़काव करना चाहिए।
 

फसल की कटाई

उच्च पैदावार वाली फसलों की किस्मों की कटाई पत्तों और तने के पीले पड़ने और सूखने के बाद की जाती है। हानि से बचने के लिए फसल की कटाई इसके पके हुए पौधों के सूखने से पहले की जानी चाहिए। ग्राहक की तरफ से इसे स्वीकारने और इसकी अच्छी गुण्वत्ता के लिए इसको सही समय पर काटना चाहिए। जब दानों में 25-30 प्रतिशत नमी रह जाती है तो यह इसे काटने का सही समय होता है। हाथ से गेहूं काटने के समय तेज धार वाली द्राती का प्रयोग करना चाहिए। कटाई के लिए कंबाइने भी उपलब्ध हैं, जिनकी सहायता से गेहूं की फसल की कटाई, दाने निकालना और छंटाई एक ही बार में की जा सकती है।

कटाई के बाद

हाथों से कटाई करने के बाद फसल को तीन से चार दिनों के लिए सुखाना चाहिए ताकि दानों में नमी 10-12 प्रतिशत के मध्य रह जाए और उसके बाद बैलों की मदद से चलने वाले थ्रैशर की मदद से दाने निकालने चाहिए। सीधा धूप में बहुत ज्यादा सुखाने से परहेज़ करना चाहिए और दानों को साफ-सुथरी बोरियों में भरना चाहिए ताकि नुकसान को कम किया जा सके।
 
पूसा बिन मिट्टी या ईंटों से बनाया जाता है और इसकी दीवारों में पॉलिथीन की एक परत चढ़ाई जाती है। जब कि बांस के डंडों के आस-पास कपड़ों की मदद से सिंलडर के आकार में ढांचा तैयार किया जाता है और इसका तल मैटल की ट्यूब की सहायता से तैयार किया जाता है। इसे हपूरटेका कहा जाता है, जिसके निचली ओर एक छोटा छेद किया जाता है ताकि इसमें से दानों को निकाला जा सके। बड़े स्तर पर दानों का भंडार सी ए पी और सिलोज़ में किया जाता है।
 
भंडार के दौरान अलग अलग तरह के कीड़ों और बीमारियों से दूर रखने के लिए बोरियों में 1 प्रतिशत मैलाथियोन रोगाणुनाशक का प्रयोग किया जाता है। भंडार घर को अच्छी तरह साफ करें, इसमें से आ रही दरारों को दूर करे और चूहे की खुड्डों को सीमेंट से भर दें। दानों को भंडार करने से पहले भंडार घर में सफेदी करवानी चाहिए। और इसमें 100 वर्गमीटर के घेरे में 3 लीटर मैलाथियान 50 ई.सी. का छिड़काव करना चाहिए। बोरियों के ढेर को दीवारों से 50 सै.मी. की दूरी पर रखना चाहिए और ढेरों के बीच में कुछ जगह देनी चाहिए।