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आम जानकारी

यह नसल बिहार, उड़ीसा और पश्चिमी बंगाल में पायी जाती है। यह मुख्यत: काले रंग की होती है। यह भूरे, सफेद और सलेटी रंग में पायी जाती है, लेकिन काले रंग की नसल सबसे आम है। इस नसल की त्वचा मीट उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। इस नसल की दूध उत्पादन की क्षमता अत्याधिक कम होती है। नर बकरी का भार 25-30 किलो और मादा बकरी का भार 20-25 किलो होता है। यह नसल प्रौढ़ की अवस्था पर जल्दी पहुंच जाती है और प्रत्येक ब्यांत में 2-3 बच्चों को जन्म देती है।

चारा

ये जानवर जिज्ञासु प्रकृति के होने के कारण विभिन्न प्रकार के भोजन, जो कड़वे, मीठे, नमकीन और स्वाद में खट्टे होते हैं, खा सकते हैं। ये स्वाद और आनंद के साथ फलीदार भोजन जैसे लोबिया, बरसीम, लहसुन आदि खाते हैं। मुख्य रूप से ये चारा खाना पसंद करते हैं जो उन्हें ऊर्जा और उच्च प्रोटीन देता है। आमतौर पर इनका भोजन खराब हो जाता है क्योंकि ये भोजन के स्थान पर पेशाब कर देते हैं। इसलिए भोजन को नष्ट होने से बचाने के लिए विशेष प्रकार का भोजन स्थल बनाया जाता है।

फलीदार चारा: बरसीम, लहसुन, फलियां, मटर, ग्वार।
गैर फलीदार चारा: मक्की, जई।
वृक्षों के पत्ते: पीपल, आम, अशोका, नीम, बेरी और बरगद का पेड़।
पौधे और झाड़ियां, हर्बल और ऊपर चढ़ने वाले पौधे: गोखरू, खेजरी, करौंदा, बेरी आदि।
जड़ वाले पौधे (सब्जियां का अतिरिक्त बचा हुआ): शलगम, आलू, मूली, गाजर, चुकंदर, फूल गोभी और बंद गोभी।
घास: नेपियर घास, गिन्नी घास, दूब घास, अंजन घास, स्टाइलो घास।
 
सूखा चारा
 
तूड़ी: चने, अरहर और मूंगफली, संरक्षित किया चारा।
हेय: घास, फलीदार (चने) और गैर फलीदार पौधे (जई) ।
साइलेज: घास, फलीदार और गैर फलीदार पौधे ।
 
मिश्रित भोजन
 
अनाज : बाजरा, ज्वार, जई, मक्की, चने, गेहूं।
खेत और उदयोग के उप उत्पाद: नारियल बीज की खल, सरसों की खल, मूंगफली की खल, अलसी, शीशम, गेहूं का चूरा, चावलों का चूरा आदि।
पशु और समुद्री उत्पाद: पूरा और आंशिक सूखे दूध के उत्पाद, फिश मील, ब्लड मील।
उदयोगिक उप उत्पाद:  जौं उदयोग के उप उत्पाद, सब्जियां और फल के उप उत्पाद।
फलियां : बबूल, बरगद, मटर आदि।
 
मेमने का खुराकी प्रबंध: मेमने को जन्म के पहले घंटे में खीस जरूर पिलायें। इससे उसकी रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ेगी। इसके अलावा खीस विटामिन ए, डी, खनिज पदार्थ जैसे कॉपर, आयरन, मैगनीज़ और मैगनीशियम आदि का अच्छा स्त्रोत होती है। एक मेमने को एक दिन में 400 मि.ली. दूध पिलाना चाहिए, जो कि पहले महीने की उम्र के साथ बढ़ता रहता है।
 
दूध देने वाली बकरियों की खुराक: एक साधारण बकरी एक दिन में 4.5 किलो हरा चारा खा सकती है। इस चारे में कम से कम 1 किलो सूखा चारा जैसे कि अरहर, मटर, चने की भूसी या फलीदार हेय भी होना चाहिए। 

नस्ल की देख रेख

गाभिन बकरियों की देख रेख: बकरियों की अच्छी सेहत के लिए गाभिन बकरी के ब्याने के 6-8 सप्ताह पहले ही दूध निकालना बंद कर दें। ब्यांत वाली बकरियों को ब्याने से 15 दिन पहले साफ, खुले और कीटाणु रहित ब्याने वाले कमरे में रखें।

मेमनों की देख रेख: जन्म के तुरंत बाद साफ सुथरे और सूखे कपड़े से मेमने के शरीर और उसके नाक, मुंह, कान में से जाले साफ कर दें। नए जन्मे बच्चे के शरीर को तोलिये से अच्छे से मसलना चाहिए। यदि मेमना सांस ना ले रहा हो, तो पिछली टांगों से पकड़ कर सिर नीचे की ओर रखें इससे उसके श्वसन पथ को साफ करने में मदद मिलेगी। बकरी के लेवे को टिंचर आयोडीन से साफ करें और फिर बच्चे को जन्म के 30 मिनट के अंदर-अंदर पहली खीस पिलायें।
 
ब्याने के बाद बकरियों की देख रेख: ब्यांत वाले कमरों को ब्याने के तुरंत बाद साफ और कीटाणु रहित करें। बकरी का पिछला हिस्सा आयोडीन या नीम के पानी से साफ करें। बकरी को ब्याने के बाद गर्म पानी में शीरा या शक्कर मिलाकर पिलायें। उसके बाद गर्म चूरे का दलिया जिसमें थोड़ी सी अदरक, नमक, धातुओं का चूरा और शक्कर आदि मिले हों, खिलाना चाहिए। 

मेमनों पर पहचान चिन्ह लगाने: पशुओं के उचित रिकॉर्ड रखने, उचित खुराक खिलाने, अच्छा पालन प्रबंध, बीमे के लिए और मलकीयत साबित करने के लिए उन्हें नंबर लगाकर पहचान देनी जरूरी है। यह मुख्यत: टैटूइंग, टैगिंग, वैक्स मार्किंग क्रियॉन, स्प्रे चॉक, रंग बिरंगी स्प्रे और पेंट ब्रांडिंग से किया जाता है।
 
बकरियों को सिफारिश किए गए टीकाकरण: क्लोस्ट्रीडायल बीमारी से बचाव के लिए बकरियों को सी डी टी या सी डी और टी टीका लगवाएं। जन्म के समय टैटनस का टीका लगवाना चाहिए। जब बच्चा 5-6 सप्ताह का हो जाए, तब उसकी रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए टीकाकरण करवाना चाहिए और उसके बाद वर्ष में एक बार टीका लगवाएं।

 

बीमारियां और रोकथाम

कोकसीडियोसिस: यह मुख्यत: छोटे बच्चों में पायी जाती हैं। यह बीमारी कोकसीडिया परजीवी के कारण होती है। इसके लक्षण हैं डायरिया, डीहाइड्रेशन, तेजी से भार कम होना और बुखार।
इलाज: कोकसीडियोसिस से बचाव के लिए लगभग 5-7 दिनों में लिए एक दिन में बायोसिल दवाई दी जाती है। इसका इलाज कोर या सुल्मेट या डेकोक्स के साथ भी किया जा सकता है।
 
 
 
  
 
 
एंटरोटॉक्सीमिया: इसे अत्याधिक खाने से होने वाली बीमारी के रूप में भी जाना जाता है इसके लक्षण हैं- तनाव, भूख ना लगनी, उच्च तापमान और बेहोशी या मौत है।
इलाज: एंटरोटॉक्सीमिया को रोकने के लिए वार्षिक रोग प्रतिरोधक टीकाकरण दिया जाता है। इस बीमारी के इलाज के लिए सी और डी के एंटीटॉक्सिन भी दिये जाते हैं।

 
 
 
अफारा: यह मुख्य रूप से पोषक तत्व ज्यादा मात्रा में खाने के कारण होता है। इससे बकरियों का तनाव में रहना, दांत पीसना, मांसपेशियों को हिलाना और सोजिश होना है।
इलाज: जानवर को ज्यादा खाने को ना दें और इस बीमारी के इलाज के लिए सोडा बाइकार्बोनेट (2-3 मात्रा) दें।

 
 
 
 
गर्भ के समय ज़हरवाद: यह चयापचयी (मेटाबॉलिक) बीमारी है। इससे जानवर की भूख में कमी, सांस में मीठी महक और जानवर सुस्त हो जाता है।
इलाज: प्रोपीलेन ग्लाइकोल को पानी के साथ दिन में दो बार दिया जाता है और सोडियम बाइकार्बोनेट भी इसके इलाज में मदद करती है।

 
 
 
 
 
 
कीटोसिस: यह कीटोन्स के कारण होता है जिससे शरीर में ऊर्जा की कमी हो जाती है। दूध के उत्पादन में कमी होना, भोजन से दूर रहना ओर सांस में मीठी महक इसके लक्षण हैं। 
इलाज: ग्लूकोस का छिड़काव करने से कीटोसिस से बचाव करने में मदद मिलती है
   
जोहनी बीमारी: इस बीमारी से बकरी का भार कम हो जाता है लगातार दस्त लगते हैं, कमज़ोरी आ  जाती है। यह बीमारी बकरी को मुख्यत: 1-2 वर्ष की उम्र में लगती है।
इलाज: प्रारंभिक चरण में जोहनी की बीमारी का पता लगाने के लिए कोई उपयुक्त जांच नहीं की जाती। बकरी की स्वास्थ्य जांच के लिए पशु चिकित्सक से परामर्श करें।

 
 
 
 
 
 
टैटनस: यह क्लोसट्रीडायम टेटानी के कारण होता है। इससे मांसपेशियां कठोर हो जाती हैं। सांस लेने में समस्या होती है, जिसके कारण जानवर की मृत्यु हो जाती है।
इलाज: इस बीमारी से बचाव के लिए पैंसीलिन एंटीबायोटिक दें और जख्म को हाइड्रोजन परऑक्साइड से धोयें।
 

 
 
 
 
  
पैर गलन : इस बीमारी के लक्षण लंगड़ापन है।
इलाज : इससे बचाव के लिए उन्हें कॉपर सल्फेट के घोल से नहलाएं।
 
 
 
 
 
 
लेमीनिटिस: यह उच्च पोषक तत्वों को ज्यादा मात्रा में लेने के कारण होता है। इसके कारण जानवर लंगड़ा हो जाता है, दस्त लग जाते हैं, टोक्सीमिया हो जाता है।  
इलाज: दर्द को दूर करने के लिए फिनाइलबुटाज़ोन दें और कम मात्रा युक्त प्रोटीन और ऊर्जा वाला भोजन लेमीनीटिस के इलाज के लिए दें।
 
 
निमोनिया: यह फेफड़ों में संक्रमण के कारण होता है। इसके कारण जानवर को सांस लेने में समस्या आती है, नाक बहती रहती है और शरीर का तापमान अधिक हो जाता है।
इलाज: इस बीमारी से बचाव के लिए एंटीबायोटिक दें।
 

 
 
 
 
सी ए ई: यह एक विषाणु रोग है इसके कारण जानवर में लंगड़ापन, निमोनिया, स्थायी खांसी और भार का कम होना है।
 इलाज: प्रभावित बकरी को अन्य बकरियों से दूर रखें ताकि यह बीमारी अन्य जानवरों में ना फैले।
 
 

 
 
 
 
 
दाद: यह मुख्यत: फंगस के कारण होने वाली बीमारी है। इससे जानवर की त्वचा मोटी, बाल पतले,  सलेटी या सफेद परतदार त्वचा दिखती है।
इलाज: इस बीमारी को दूर करने के लिए निम्न में से एक फंगसनाशी का प्रयोग करें।
 
  1.    1:10 ब्लीच
  2.    0:5 प्रतिशत सल्फर
  3.    1:300 कप्तान
  4.    1 प्रतिशत बेटाडीन
 यह दवाई रोज़ 5 दिन लगाएं उसके बाद सप्ताह में एक बार लगाएं।
  
गुलाबी आंखें: यह मुख्यत: मक्खियों के माध्यम से फैलती है और अत्याधिक संक्रामक होती है।
इलाज: आंखों को पेंसीलिन से धोयें या इस बीमारी को ऑक्सीटेटरासाइक्लिन से दूर किया जा सकता है।
 
 
 
 
 

 
डब्लयु एम डी: यह मुख्यत: 1 सप्ताह से 3 महीने की उम्र के बच्चों को होती है। इससे जानवर को सांस लेने में समस्या, कमज़ोर, शरीर का अकड़ना आदि होता है। यह मुख्यत: विटामिन ई की कमी के      कारण और सेलेनियम में कमी के कारण होता है। 
इलाज: डब्लयु एम डी से बचाव के लिए विटामिन डी और सेलेनियम दें।
 
 
 
  
लिस्टीरीयोसिस: यह लिस्ट्रिया मोनोकीटोजीन्स के कारण मौसम बदलने के दौरान और गाभिन की शुरू की अवस्था में होता है। इसके लक्षण तनाव, बुखार, पैरालिसिस, गर्भपात आदि होना है।
इलाज: शुरू के 3-5 दिनों में पेंसीलिन प्रत्येक 6 घंटे में और फिर 7 दिनों में एक बार दें।
 
 
 
 
 
 
 
थनैला रोग: इसके लक्षण लेवे का गर्म और सख्त होना और भूख में कमी आदि होना है।
इलाज: विभिन्न तरह के एंटीबायोटिक जैसे सी डी एंटीऑक्सिन, पेंसीलिन, नुफ्लोर, बेनामाइन आदि इस बीमारी को दूर करने के लिए दें।
 
 
 

 
 
  
बॉटल जॉ: यह खून चूसने वाले कीड़ों के कारण होता है। इसके कारण जबड़े में सोजिश हो जाती है और जबड़े का रंग असामान्य हो जाता है।