•टैटनस : यह बीमारी क्लॉस्ट्रिडियम बोटुलिनम जीवाणु के कारण होती है। यह बीमारी मुख्यत: किसी चोट या सर्जिकल ऑप्रेशन के कारण होती है।
इलाज : घोड़े में टैटनस बीमारी की रोकथाम के लिए वर्ष में एक बार टैटनस का टीका आवश्य लगवाएं।
•गठिया रोग : यह रोग आमतौर पर घोड़े के बड़े हो जाने पर हमला करता है। इससे जोड़ों में सूजन हो जाती है, जोड़ों के निकट, द्रव का स्तर बढ़ता है और वहां पर सूजन दिखाई देती है। परिणामस्वरूप घोड़ा असुविधा दिखाता है, और अत्याधिक दर्द में होता है।
इलाज : फिरोकॉक्सिब एक ओरल पेस्ट है जिसका उपयोग गठिये के इलाज के लिए किया जाता है।
•अज़ोतूरिया : इसके कारण मासपेशियों के टिशु नष्ट होते हैं। यह मुख्य रूप से विटामिन की कमी के कारण या घोड़ों को खराब स्थिति में रखने से होता है। इसके कारण घोड़ों को मांसपेशियों में दर्द, शरीर का अकड़ना और घोड़े की अजीब चाल हो जाती है।
•डिसटेंपर : यह एक श्वसन संक्रमण है जो मुख्यत: बैक्टीरिया के कारण होता है। इसके लक्षण नाक का बहना, बुखार और भूख में कमी होना है।
इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में एक बार घोड़े का टीकाकरण करवायें।
•जुखाम : यह एक संक्रमण बीमारी है जो विषाणु के कारण होती है। इसके लक्षण सफेद बलगम के साथ नाक का बहना, खांसी, भूख में कमी और तनाव का होना है।
इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में दो बार टीकाकरण करवायें।
•रहाइनोनिउमोनाइटिस : यह एक ऊपरी श्वसन बीमारी है जो मुख्य तौर पर विषाणु के कारण होती है। इसके लक्षण ठंड, खांसी, नाक का बहना और बुखार आदि हैं।
इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में दो बार रहाइनोनिउमोनइटिस का टीकाकरण करवायें।
•इकुआउन इंसीफालोमाइलिटिस : यह विषाणु के कारण होने वाली बीमारी है। यह बीमारी मुख्यत: दिमाग को नुकसान पहुंचाती है और घातक हो सकती है। इसके लक्षण- बुखार, उत्तेजना और फिर तनाव का होना है। कुछ समय के बाद घोड़े पैरालाइज़ हो जाते हैं और फिर 2-4 दिनों में मर जाते हैं।
इलाज : उत्तरी क्षेत्रों में वर्ष में एक बार टीकाकरण करवाया जाता है और गर्म एवं नमी वाले क्षेत्रों में 3 से 6 महीने के अंतराल पर दवाई की अतिरिक्त खुराक दी जाती है।
•रेबिज़ : यह बीमारी मुख्यत: किसी अन्य जानवर के काटने से होती है, जो रेबिज़ से संक्रमित हो। इसके लक्षण - असामान्य व्यक्तित्व या व्यवहार परिवर्तन, तनाव और सांमजस्य में कमी होना है।
इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में एक बार रेबिज़ का टीका लगवाएं।
•आंतों के कीड़े : घोड़ों में मुख्यत: आंतों के कीड़े होते हैं, जिसका नियमित डीवार्मिंग द्वारा इलाज होता है।
इलाज : डीवॉर्मिंग दवाइयां घोड़ों को कीड़े से बचाव के लिए दी जाती हैं। गीले क्षेत्रों में यह 1 महीने के अंतराल पर और रेगिस्तानी क्षेत्रों में 3 महीने के अंतराल पर दी जाती हैं।
•कॉलिक : यह मुख्य रूप से पेट का दर्द है, जिसके कारण छोटे से बड़ा दर्द होता है। यह बीमारी कीड़े, खराब भोजन और गैस के कारण होती है। इसके लक्षण जानवर का सुस्त होना और उसका अपने पेट पर काटना है।
इलाज : घोड़ों का वॉर्मिंग, अंतरग्रहण को कम करने में मदद करता है। कॉलिक बीमारी से बचाव के लिए घोड़े को आहार में चोकर या चुकंदर का गुद्दा नियमित दें।
•लेमिनिटिस : यह बीमारी अनाज के ज्यादा खाने के कारण या हरी भरी घास ज्यादा खाने के कारण होती है।
इलाज : पशु चिकित्सक की सहायता से तुरंत फीडर से अनाज निकालें।