जलवायु
-
Temperature
20-30°C -
Rainfall
75-150cm -
Sowing Temperature
20-25°C -
Harvesting Temperature
20-30°C
अच्छे जल निकास वाली गहरी, दोमट मिट्टी जिसमें भूमिगत-जल का स्तर ज़मीन से 1.5-2 मी. के नीचे हो और अच्छी जल धारण क्षमता वाली ज़मीन गन्ने की खेती के लिए लाभदायक है। यह फसल काफी अम्लीय और खारेपन को सहन कर सकती है इसलिए इसे मिट्टी जिसका pH 5 से 8.5 हो, में उगाई जा सकती है। यदि मिट्टी का pH 5 से कम हो तो इसमें चूना (कली) डालें और यदि मिट्टी का pH 9.5 से ज्यादा हो तो इसमें जिप्सम डालें।
C.O.J.-64: यह जल्दी पकने वाली और अच्छे विकास वाली किस्म है| यह एक फैलने वाली किस्म है और इसका पौधा दरमियाना सख्त होता है|यह किस्म का गन्ना दरमियाना मोटा, हरे-पीले रंग और सख्त होता है| यह रतुआ रोग की रोधक किस्म है| यह किस्म दिसंबर के महीने में तैयार हो जाती है और इसमें 16-17% शर्करा के तत्व मौजूद होते है|
C.O.-1148: यह देरी से पकने वाली और अच्छे विकास वाली किस्म है| इस किस्म के गन्ने सामान्य मोटे होते हैं जो कि ठंड के प्रतिरोधक है| यह किस्म फरवरी-मार्च महीने में तैयार हो जाती है और इसमें 15-16% शर्करा के तत्व मौजूद होते हैं|
C.O.S.-767: इस किस्म की बिजाई अर्ध-जलवायु के मौसम में की जाती है| यह लम्बी और ज्यादा पैदावार देने वाली किस्म है| यह किस्म सामान्य रूप से रतुआ रोग, कांगियारी और शाख छेदक की रोधक है| इसकी औसतन पैदावार 32.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है|
दूसरे राज्यों की किस्में
CO 419: यह अधिक पैदावार वाली, लेकिन देरी से पकने वाली किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 500 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
COS 767: यह मध्यम समय की किस्म है। इससे अच्छी गुणवत्ता वाले गुड़ का उत्पादन होता है। भारी मिट्टी में उगाने पर यह अच्छी पैदावार देती है। इसकी औसतन पैदावार 330-420 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
CO 1007: यह मध्यम समय की किस्म है। यह गर्दन तोड़ और बहुत सारे कीटों की रोधक किस्म है। यह भारी मिट्टी वाले क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त है। इसकी औसतन पैदावार 330-420 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
CO 66-17: यह पिछेती समय की किस्म है। यह गर्दन तोड़ और सूखे के हालातों की प्रतिरोधक किस्म है। इससे अच्छी गुणवत्ता वाले गुड़ का उत्पादन होता है। यह किस्म रतुआ रोग-रहित क्षेत्रों में उगाने पर यह अच्छे परिणाम देती है।
CO 1148: यह दरमियानी समय की किस्म है। यदि अच्छी जोताई की जाए तो इसका अंकुरण अच्छा होता है और गुलियां भी अच्छी बनती हैं। यह मध्यम गुणवत्ता के गुड़ का उत्पादन करती है। यह लाल जंग के प्रति अधिक संवेदनशील है। इसकी औसतन पैदावार 375 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
CO Pant 84211: यह जल्दी पकने वाली किस्म है, जो कि 1991 में जारी की गई है। यदि अच्छी जोताई की जाए तो इसका अंकुरण अच्छा होता है और गुलियां भी अच्छी बनती हैं। इस किस्म के गन्नों की औसतन लंबाई 2-2.5 मीटर और भार 800 ग्राम प्रति गन्ना होता है। इसकी औसतन पैदावार 290-310 कि्ंवटल प्रति एकड़ होती है।
COJ 64: इस किस्म के गन्ने हल्के पीले और 2-2.5 मीटर लंबे होते हैं। यह किस्म गर्दन तोड़ के प्रतिरोधी है। यह किस्म फूलों का भी उत्पादन नहीं करती। यह रचय रोग की प्रतिरोधी किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 290-310 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
Pratap Ganna-1 (COPK 05191): यह किस्म गर्दन तोड़, कां-गियारी रोग और सूखे की हालातों के प्रतिरोधी किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 335 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
Co 1111: यह पिछेती समय की किस्म है। यह गर्दन तोड, रतुआ रोग और अन्य कीटों के प्रतिरोधक किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 330-420 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
CO 00421: यह किस्म 280-300 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके गन्ने मध्यम आकार के और हल्के हरे रंग के होते हैं।
COJ 97015: इसे मध्यम समय में पकने वाली किस्म के तौर पर जाना जाता है और यह किस्म अच्छी पैदावार देती है।
CoJ 85: यह अगेती मौसम की किस्म है। यह रतुआ रोग और ठंड को सहनेयोग्य है। इस किस्म के गन्ने ज्यादा जल्दी झुक जाते हैं इसलिए अच्छे से मिट्टी चढाएं और किसी लकड़ी के साथ सहारा दें। इसकी औसतन पैदावार 306 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
CO 118: यह अगेते मौसम की किस्म है। इसके गन्ने मध्यम मोटे, हरे पीले रंग के होते हैं। यह रतुआ रोग और ठंड के प्रतिरोधक किस्म है। यह उच्च उपजाऊ भूमि में लगातार सिंचाई करने पर अच्छे परिणाम देती है। इसकी औसतन पैदावार 320 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
CoJ 88: यह मध्य मौसम की किस्म है। इस किस्म के गन्ने लंबे, मध्य मोटे और सलेटी रंग के होते हैं। इसके रस में शर्करा की मात्रा 17-18% होती है। इसकी गुलियों की पैदावार भी अच्छी होती है। यह गर्दन तोड़ रोग की रोधक किस्म है और रतुआ रोग को सहनेयोग्य है। इससे अच्छी गुणवत्ता के गुड़ का उत्पादन होता है। यह नमक वाले पानी की सिंचाई करने के लिए भी उपयुक्त है। इसकी औसतन पैदावार 337 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
CoS 8436: यह मध्य मौसम की किस्म है। यह छोटी लाल किस्म है, जिसके गन्ने मोटे, हरे पीले रंग के होते हैं। यह गर्दन तोड़ के प्रतिरोधी और रतुआ रोग को सहनेयोग्य है। यह उच्च उपजाऊ भूमि में लगातार सिंचाई में अच्छी पैदावार देती है। इसकी औसतन पैदावार 307 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
CoJ 89: यह देरी से रोपाई के लिए उपयुक्त किस्म है। यह रतुआ रोग के प्रतिरोधी, पत्ते आसानी से गिरने वाले और गर्दन तोड़ के प्रतिरोधी किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 326 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
COH 110: यह देरी से पकने वाली किस्म है।
CO 7717: यह जल्दी पकने वाली किस्म है, इसमें शूगर की उच्च मात्रा होती है। यह रतुआ रोग की कुछ हद तक प्रतिरोधी किस्म है इसमें रस की मात्रा भी अच्छी होती है और इसे लंबे समय तक बनाकर रखा जा सकता है।
COH 128: यह गन्ने की जल्दी पकने वाली किस्म है।
CoPb 93: यह किस्म रतुआ रोग और ठंड को सहनयोग्य है। इस किस्म में नवंबर में 16-17 % शर्करा की मात्रा और दिसंबर में 18 % शर्करा की मात्रा होती है। इसके गन्नों की औसतन पैदावार 335 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इससे अच्छी गुणवत्ता वाला गुड़ बनता है।
CoPb 94: इस किस्म की नवंबर में सुक्रोस की मात्रा 16 % और दिसंबर में 19 % होती है। इसकी औसतन पैदावार 400 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
Cos 91230: इसकी औसतन पैदावार 280 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
Co Pant 90223: इसकी औसतन पैदावार 350 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
CoH 92201: यह जल्दी पकने वाली किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 300 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
Cos 95255: यह जल्दी पकने वाली किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 295 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
CoS 94270: इसकी औसतन पैदावार 345 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
CoH 119: यह जल्दी पकने वाली किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 345 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
Co 9814: यह जल्दी पकने वाली किस्म है और इसकी औसतन पैदावार 320 क्विंटल प्रति एकड़ है।
खेत की 4-6 बार जोताई करें। पहली जोताई 20-25 सैं.मी. गहराई में होनी चाहिए। रोड़ियों को मशीनी ढंग से या उपयुक्त औज़ार से अच्छी तरह तोड़कर समतल कर दें।
बिजाई का समय
गन्ने की बिजाई मध्य फरवरी से मध्य मार्च में की जाती है। गन्ना पकने के लिए सामान्य तौर पर एक वर्ष का समय ही लेता है इसलिए इसे एकसाली भी कहा जाता है।
फासला
भारी मिट्टी में कतारों के बीच का फासला 90 सैं.मी. और हल्की मिट्टी में अच्छी खेती के लिए 75 सैं.मी. फासले का प्रयोग करें।
बीज की गहराई
गन्ने को 3-4 सैं.मी. की गहराई में बोयें और फिर इसे मिट्टी से ढक दें।
बिजाई का ढंग
A) बिजाई के लिए सुधरे ढंग जैसे कि (गहरी खालियां, मेंड़ बनाकर,पंक्तियों में जोड़े बनाकर और गड्ढा खोदकर बिजाई ) प्रयोग किये जाते हैं।
1) खालियां और मेंड़ बनाकर सूखी बिजाई:- ट्रैक्टर द्वारा मेंड़ बनाने वाली मशीन की मदद से मेंड़ और खालियां बनाएं और इन मेड़ और खालियों में बिजाई करें। मेड़ और खालियों में 90 सैं.मी. का फासला होना चाहिए। गन्ने की गुलियों को मिट्टी में दबाएं और उसके बाद हल्की सिंचाई करें।
2) पंक्तियों के जोड़े बनाकर बिजाई:- खालियां बनाने वाले यंत्र के प्रयोग से खेत में 150 सैं.मी. के फासले पर खालियां बनाएं और उनमें 30:30-90-30:30 सैं.मी. के फासले पर गन्ने की रोपाई करें। इस तरीके से मेड़ वाली बिजाई से अधिक पैदावार मिलती है।
3) गड्ढा खोदकर बिजाई: - गड्ढे खोदने वाली मशीन से 60 सैं.मी. व्यास के 30 सैं.मी. गहरे गड्ढे खोदें जिनमें 60 सैं.मी. का फासला हो। इससे गन्ना 2-3 बार उगाया जा सकता है और मेड़ वाली बिजाई से 25-50 % अधिक पैदावार आती है।
B) एक आंख वाले गन्नों की बिजाई: रोपाई के लिए सेहतमंद गुलियां चुनें और 75-90 सैं.मी. के अंतर पर खालियों में बिजाई करें। गुलियां एक आंख वाली होनी चाहिए। यदि गन्ने के ऊपरी भाग में छोटी डलियां चुनी गई हों तो बिजाई 6"-9" सैं.मी. के अंतर पर करें। फसल के अच्छे उगने के लिए आंखों को ऊपर की ओर रखें और हल्की सिंचाई करें।
बीज की मात्रा
अलग-अलग तजुर्बों से यह सिद्ध हुआ है कि 3 आंख वाली गुलियों का जमाव अधिक होता है जब कि एक आंख वाली गुली अच्छी नहीं जमती क्योंकि दोनों ओर काटने के कारण गुली में पानी की कमी हो जाती है और ज्यादा आंखों वाली गुलियां बिना कटिंग किए बीजने से भी अधिक जमाव नहीं मिलता। इससे अंकुरन की प्रतिशतता बहुत कम होती है, केवल शीर्ष और अंत वाला भाग ही अंकुरित होगा।
बीज की मात्रा क्षेत्र अनुसार बदलती रहती है। उत्तर पश्चिमी भारत में बीज की मात्रा ज्यादा होती है क्योंकि यहां पर अंकुरण की प्रतिशतता कम और मौसम गर्म और शुष्क हवाएं चलती रहती हैं। तीन आंख वाली गुलियों के लिए 20,833 बीजों की मात्रा का प्रयोग प्रति एकड़ में करें।
बीज का उपचार
बीज 6-7 महीनों की फसल के लगाएं ये कीटों और बीमारियों से रहित होते हैं। बीमारी और कीट वाले गन्ने और आंखों को ना चुनें। बीज वाली फसल बिजाई से एक दिन पहले काटें इससे फसल अच्छा जमाव देती है। कार्बेनडाज़िम 1 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर गुलियों को भिगो दें। रासायनिक उपचार के बाद, गुलियों को एजोस्पाइरिलम के साथ उपचार करें। इससे गुलियों को एजोस्पाइरिलम 800 ग्राम प्रति एकड़+ उपयुक्त पानी में बिजाई से पहले 15 मिनट के लिए रखें।
मिट्टी का उपचार
मिट्टी के उपचार के लिए 5 किलो जीवाणु खाद को 10 लीटर पानी में घोलकर मिश्रण तैयार करें| इस मिश्रित घोल को 80-100 किलो रूड़ी की खाद में मिला कर घोल तैयार कर लें। इस घोल को मेंड़ पर बोये गन्ने की गुलियों पर छिड़कें। इसके बाद मेंड़ को मिट्टी से ढक दें।
गन्ने में नदीनों के कारण 12-72 % पैदावार का नुकसान होता है। शुरूआती 60-120 दिनों तक नदीनों की रोकथाम बहुत जरूरी है। इसलिए रोपाई के बाद 3-4 महीने बाद फसल की नदीनों की रोकथाम करें। नीचे लिखे तरीकों से नदीनों को रोका जा सकता है।
1) हाथों से गोडाई करके: गन्ना एक व्यापक जगह लेने वाली फसल है। इसलिए नदीनों को गोडाई करके रोका जा सकता है इसके इलावा प्रत्येक सिंचाई के बाद 3-4 गोडाई जरूरी है।
2) काश्तकारी ढंग: इस प्रक्रिया में खेती के तरीके, अंतरफसली और मलचिंग तरीके शामिल हैं। बहुफसली के कारण नदीनों का हमला ज्यादा होता है। इसकी रोकथाम के लिए चारे वाली फसलें और हरी खाद वाली फसलों के आधार वाला फसली चक्र गन्ने में नदीनों की रोकथाम करता है। गन्ना एक व्यापक जगह लेने वाली भी फसल है। जिससे नदीनों के हमले का खतरा भी ज्यादा होता है। यदि गन्ने को कम समय वाली फसलों के साथ अंतरफसली किया जाए तो इससे नदीनों को कम किया जा सकता है और ज्यादा लाभ भी मिल सकता है।
गन्ने के अंकुरन के बाद गन्ने की कतारों में 10-12 सैं.मी. मोटी तह बिछा दी जाती है। यह सूर्य की रोशनी को सोखता है। जिससे नदीन कम होते हैं। यह मिट्टी में नमी को भी बचाता है।
3) रासायनिक तरीके: नदीनों की रोकथाम के लिए, सिमाज़ीन या एट्राज़ीन 600-800 ग्राम या मैट्रीब्यूज़िन 800 ग्राम या ड्यूरॉन 1-1.2 किलोग्राम प्रति एकड़ में बिजाई के तुरंत बाद प्रयोग करना चाहिए। इसके इलावा चौड़े पत्ते वाले नदीनों की रोकथाम के लिए 2, 4-डी@ 300-400 ग्राम का प्रयोग प्रति एकड़ के हिसाब से करें।
सिंचाई की संख्या मिट्टी की किस्म और पानी की उपलब्धता पर निर्भर करती है। गर्मी के महीने में गर्म हवाओं और सूखे में वृद्धि होने के कारण फसल को पानी की जरूरत पड़ती है।
पहली सिंचाई फसल के 20-25 % अंकुरित होने पर करें। मानसून में गन्ने को पानी और बारिश के आधार पर लगाएं। कम वर्षा में सिंचाई 10 दिनों के अंतराल पर करें।
इसके बाद सिंचाई के अंतराल को बढ़ाकर 20-25 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें। जमीन में नमी संभालने के लिए गन्ने की पंक्तियों में मलचिंग का प्रयोग करें। अप्रैल जून के महीने में पानी की कमी ना होने दें। इससे पैदावार कम होगी। इसके इलावा बारिश के दिनों में पानी ना खड़ा होने दें। जोताई का समय, वृद्धि का समय और अधिक विकास का समय सिंचाई के लिए बहुत नाज़ुक होता है।
मिट्टी को मेंड़ पर चढ़ाना: कसी की मदद से खालियों में और पौधे के किनारों पर मिट्टी चढ़ाई जाती है। यह मिट्टी में अच्छी तरह से तैयार की गई खाद को अच्छी तरह से मिश्रित होने में मदद करती है। पौधे को सहारा देने और उसे गिरने से बचाने में भी मदद करती है।
खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)
UREA | SSP | MOP | ZINC |
136 | 200 | 70 | - |
तत्व (किलोग्राम प्रति एकड़)
NITROGEN | PHOSPHORUS | POTASH |
62.5 | 32 | 41 |
खेत की तैयारी के समय, नाइट्रोजन 62.5 किलो, फासफोरस 32 किलो और पोटाश 41 किलो प्रति एकड़ में डालें| फासफोरस, पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी बीजों की बिजाई के समय डालें| बाकी बची हुई नाइट्रोजन मिट्टी डालने के समय डालें|
अगेती फोट का कीड़ा: यह कीट अंकुरन होने के समय हमला करता है। यह सुंडी जमीन के नजदीक तने में सुराख करती है यह अंदर जा कर तने को नष्ट कर देती है और पौधे को सूखा देती है। यह कीट आम तौर पर हल्की जमीनें और शुष्क वातावरण में मार्च से जून के महीनों में हमला करता है।
पिछेती बिजाई से परहेज़ करें। फसल बीजने के समय क्लोरपाइरीफॉस 50 ई सी को 1 लीटर के साथ 100-150 लीटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ में पोरियों पर स्प्रे करें| प्रभावित पौधों को निकाल दें। हल्की सिंचाई करें और खेत को शुष्क होने से रोके|
सफेद सुण्डी: यह सुण्डी जड़ों पर हमला करती है। जिस कारण गन्ना खोखला हो जाता है और गिर जाता है। शुरू में इसका नुकसान कम होता है परंतु बाद में सारे खेत में आ जाता है।
ये सुंडियां बारिश पड़ने के बाद मिट्टी में से निकल कर नजदीक के वृक्षों में इक्ट्ठी हो जाती हैं और रात को इसके पत्ते खाती हैं। यह मिट्टी में अंडे देती हैं जो कि छोटी जड़ों को खाती हैं।
सफेद सुंडी की प्रभावित रोकथाम के लिए गन्ने की जड़ों में इमीडाकलोपरिड 1 मि.ली. पानी में मिला के प्रयोग करें। फसल अगेती बीजने से भी इसके नुकसान से बचा जा सकता है। बीजों का कलोरपाइरीफॉस से उपचार करना चाहिए । इसके इलावा 4 किलो फोरेट या कार्बोफिउरॉन 13 किलो बिजाई से पहले प्रति एकड़ को मिट्टी में मिलाएं| खेत में बहुत ज्यादा बाढ़ का पानी 48 घंटों तक लगाएं| खेत में पानी खड़ा करके भी इस कीट को रोका जा सकता है। क्लोथाइनीडिन 40 ग्राम को 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें|
दीमक: बिजाई से पहले गन्नों का उपचार करें।इसके लिए इमीडाक्लोप्रिड 4 मि.ली. को 10 लीटर पानी में मिलाकर 2 मिन्ट या क्लोरपाईरीफोस 2 लीटर से प्रति लीटर का उपचार करें।
यदि खड़ी फसल पर इसका हमला दिखे तो इमीडाक्लोप्रिड 60 मि.ली को 150 लीटर पानी में मिलाकर या क्लोरपाइरीफॉस 1 लीटर को 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
पायरिल्ला: उत्तरी भारत में इस कीट के कारण बहुत नुकसान होता है। यह कीट पत्ते का रस चूस लेता है जिस कारण पत्ते पीले-सफेद धब्बे पड़ जाते है और पौधा नष्ट हो जाता है। यह पत्तों पर शहद जैसा पदार्थ छोड़ते है जो बाद में काले रंग की फंगस में विकसित हो जाता है|
लगातार फासले पर, नियमित अंतराल पर सफेद रंग के अंडों को इक्ट्ठा करें और नष्ट कर दें। ज्यादा नुकसान के समय डाईमैथोएट का प्रयोग 2.5-3 मि.ली. प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें|
जड़ छेदक: यह कीड़ा धरती में होता है। जो गन्ने के अंदर जाकर पत्ते पीले कर देता है। इसका नुकसान जुलाई महीने से शुरू होता है। फसल बीजने से पहले गुलियों का क्लोरोपाइरीफॉस 20 ई.सी. से उपचार करें। शुष्क खेतों में इसका नुकसान कम होता है। इसलिए खेत में पानी को खड़ा मत रहने दें। फसल बीजने से 90 दिनों के बाद मिट्टी चढ़ाएं ।
ज्यादा नुकसान के समय क्लोरोपाइरीफॉस 20 ई.सी. 1 लीटर प्रति एकड़ को 100-150 लीटर पानी में मिलाकर गन्ने की जड़ों में डालें। क्विनलफॉस 300 मि.ली प्रति एकड़ भी इसकी रोकथाम करता है।
शाख का कीट: यह कीड़ा जुलाई में हमला करता है और मानसून के हिसाब से इसका नुकसान बढ़ता जाता है। यह कीड़ा गन्ने के कईं स्थानों पर हमला करता है परंतु यह पत्तों के अंदर की ओर रहता है। इसका नुकसान गन्ने बांधने से लेकर कटाई तक होता है।
इसकी रोकथाम के लिए यूरिया का प्रयोग कम करें । खेत को साफ - सुथरा रखें और पानी को खड़ने मत दें।मित्र कीट कुटेशिया फ्लेवाइपस की 800 मादा प्रति एकड़ एक सप्ताह के फासले पर जुलाई से नवंबर में छोड़ दें।
चोटी बेधक: यह कीड़ा पौधे की शुरूआत से लेकर फसल पकने तक हमला करता है। इससे गन्ने का आखिरी और गोभ वाला पत्ता सूख कर काले रंग का हो जाता है। यह गोभ में छेद करके पत्ते के ऊपर की ओर सफेद और लाल धारियां बना देता है।
इसकी रोकथाम के लिए राइनैक्सीपाइर 20 एस.सी 60 मि.ली. प्रति एकड़ 100-150 लीटर पानी में डाल कर अप्रैल के अंत या मई के पहले सप्ताह मिट्टी में डालें|
रतुआ रोग: यह फफूंद रोग है जिस कारण गन्ने के तीसरे और चौथे पत्ता पीला हो कर सूख जाता है। इस रोग से गन्ने का अंदरूनी गुद्दा लाल हो जाता है। काटे हुए गन्ने में खट्टी और शराब जैसी बदबू आती है।
इसकी रोकथाम के लिए रोग रहित फसल से बीज लें और रोग को सहने योग्य किस्म बोयें। धान और हरी खाद वाली फसलों का फसली चक्र अपनाना चाहिए। खेत में पानी ना रूकने दें । प्रभावित बूटों को उखाड़ कर खेत से बाहर फेंके। कार्बेनडाज़िम घोल की 0.1 प्रतिशत मात्रा को मिट्टी के ऊपर प्रयोग करने से बीमारी रोकी जा सकती है।
मुरझाना: जड़ बेधक, नेमाटोडस, शुष्क और ज्यादा पानी खड़ने के हालातों में यह बीमारी ज्यादा आती है। इससे पत्ते पीले पड़ के सूख जाते हैं। पौधों में किश्ती के आकार के गड्ढे पड़ जाते हैं और फसल सिकुड़ जाती है। इससे फसल का उगना और पैदावार दोनों ही कम हो जाती है।
इसकी रोकथाम के लिए गुलियों को कार्बेनडाज़िम 0.2 प्रतिशत+बोरक एसिड 0.2 प्रतिशत के घोल में 10 मिनट तक उपचार करें। इसके इलावा प्याज लहसुन और धनिये की फसल भी इस बीमारी को कम करने में मदद करती है।
चोटी गलन: यह बीमारी हवा से पैदा होती है जो मॉनसून में होती है। बीमारी वाले गन्ने के पत्ते सिकुड़ जाते हैं। तने के नजदीक वाले पत्ते लाल हो जाते हैं। नए पत्ते छोटे और तिरछे हो जाते हैं। यह बीमारी कार्बेनडाज़िम 4 ग्राम / लीटर या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम / लीटर या मैनकोज़ेब 3 ग्राम / लीटर पानी में प्रयोग करें।
ज्यादा पैदावार और चीनी प्राप्त करने के लिए गन्ने की सही समय पर कटाई जरूरी है। समय से पहले या बाद में कटाई करने से पैदावार पर प्रभाव पड़ता है। किसान शूगर रीफरैक्टोमीटर का प्रयोग करके कटाई का समय पता लगा सकते हैं। गन्ने की कटाई दरांती की सहायता से की जाती है। गन्ना धरती से ऊपर थोड़ा हिस्सा छोड़कर काटा जाता है क्योंकि गन्ने में चीनी की मात्रा ज्यादा होती है। आवश्यक ऊंचाई के लिए पौधे के शिखर को कांटे| कटाई के बाद, गन्ना फैक्टरी में लेकर जाना जरूरी होता है।
गन्ने को रस निकालने के लिए ,प्रयोग किया जाता है। इसके इलावा गन्ने के रस से चीनी, गुड़ और शीरा प्राप्त किया जाता है।
गन्ना, सैचेरम ऑफिसिनैरम एल. एक सदाबहार फसल है और बांस के परिवार से संबंधित है। यह भारत की स्थानीय फसल है यह चीनी, गुड़ और खाण्डसारी का मुख्य स्त्रोत है। गन्ने की फसल का दो तिहाई हिस्सा गुड़ और खाण्डसारी बनाने में और एक तिहाई हिस्सा चीनी की फैक्टरियों में जाता है। यह शराब बनाने के लिए कच्चा माल प्रदान करता है। गन्ना सबसे ज्यादा ब्राजील और बाद में भारत, चीन, थाईलैंड, पाक्स्तिान और मैक्सीको में उगाया जाता है। शक्कर बनाने के लिए भारत में सबसे ज्यादा हिस्सा महाराष्ट्र का जो कि 34 % है और दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश आता है। हिमाचल प्रदेश में 2001-2002 साल में गन्ने की खेती 1084 एकड़ ज़मीन में की गई।
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