गेहूं उत्पादन

आम जानकारी

भारत के 13 प्रतिशत फसली क्षेत्र में गेहूं उगायी जाती है। धान के बाद, गेहूं भारत की सबसे महत्तवपूर्ण अनाज की फसल है और भारत के उत्तर और उत्तरी पश्चिमी प्रदेशों के लाखों लोगों का मुख्य भोजन है।
 
 यह प्रोटीन, विटामिन और कार्बोहाइड्रेटस का उच्च स्त्रोत है और संतुलित भोजन प्रदान करता है। रूस, अमरीका और चीन के बाद भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा गेहूं का उत्पादक है। विश्व में पैदा होने वाली गेंहूं की पैदावार में भारत का योगदान 8.7 फीसदी है।
 
इसकी ज्यादातर रबी के मौसम में खेती की जाती है लेकिन लाहौल स्पीति, किन्नौर और चंबा जिले और भरमौर में इसकी खेती गर्मियों के मौसम (अप्रैल, मई, सितंबर, अक्तूबर) में की जाती है। हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2004-05 में गेहूं की खेती के लिए 154.08 हज़ार एकड़ भूमि का प्रयोग किया गया, जिससे 286.5 हज़ार टन का कुल उत्पादन हुआ और औसतन पैदावार 7.75 क्विंटल प्रति एकड़ प्राप्त हुई।
 

जलवायु

  • Season

    Temperature

    21-26°C
  • Season

    Rainfall

    75cm (max)
    20-25cm (min)
  • Season

    Sowing Temperature

    18-22°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    20-25°C
  • Season

    Temperature

    21-26°C
  • Season

    Rainfall

    75cm (max)
    20-25cm (min)
  • Season

    Sowing Temperature

    18-22°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    20-25°C
  • Season

    Temperature

    21-26°C
  • Season

    Rainfall

    75cm (max)
    20-25cm (min)
  • Season

    Sowing Temperature

    18-22°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    20-25°C
  • Season

    Temperature

    21-26°C
  • Season

    Rainfall

    75cm (max)
    20-25cm (min)
  • Season

    Sowing Temperature

    18-22°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    20-25°C

मिट्टी

इसे भारत की मिट्टी की कई किस्मों में उगाया जा सकता है। चिकनी मिट्टी या नहरी मिट्टी, जो कि सही मात्रा में पानी को सोख सके, अच्छी मानी जाती है। सुराखदार मिट्टी जिसमें पानी को सोखने की क्षमता कम होती है, गेंहू की खेती के लिए अच्छी नहीं होती। सूखे क्षेत्र में, भारी मिट्टी जिनमें पानी के निकास का पूरा प्रबंध हो, भी इसकी खेती के लिए अच्छे माने जाते हैं। भारी मिट्टी जिसकी बनतर और जल निकास अच्छा ना हो गेहूं की खेती के लिए अच्छी नहीं होती, क्योंकि गेहूं जल जमाव के प्रति संवेदनशील होती है।

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

Saptdhara (Atayu Selection) :  यह सर्दियों के मौसम की किस्म है जो सूखे क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इसका पौधा मध्यम कद का होता है। इसके दाने ठोस और सख्त होते हैं। यह किस्म पीली और भूरी कुंगी के प्रतिरोधी होती है। इसे मई महीने के अंत में हरे चारे के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है। इसकी औसतन पैदावार 15 क्विंटल प्रति एकड़ और हरे चारे की 30 क्विंटल प्रति एकड़ पैदावार होती है।
 
Raj -3777: यह पिछेती बिजाई की किस्म है। यह अधिक पैदावार देने वाली नई किस्म है। यह किस्म करनाल बंट के प्रतिरोधी होती है। यह किस्म H.S. 295 और Raj 3765 के प्रजनन द्वारा विकसित की गई है। इसके दाने ठोस और सख्त होते हैं। यह किस्म सिंचित और बारानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। बारानी क्षेत्रों में इसकी औसतन पैदावार 11-13 क्विंटल प्रति एकड़ और बारानी क्षेत्रों में इसकी औसतन पैदावार 19-21 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
H.S. -277: यह पिछेती बिजाई की किस्म है जो कि कम और मध्यम पहाड़ी क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त है। यह मध्यम ऊंचाई वाली किस्म है जिसकी अर्द्ध ठंडे क्षेत्रों में खेती की जाती है। यह किस्म पीली कुंगी के प्रतिरोधी होती है। इसकी औसतन पैदावार 12.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
V.L.- 829:  यह कम और मध्यम पहाड़ी क्षेत्रों के बारानी क्षेत्रों के लिए विकसित की गई नई किस्म है। यह किस्म पीली और भूरी कुंगी और कांगियारी के प्रतिरोधक है। इस किस्म में 11.4 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है। इसके दाने रसदार और अर्द्ध सख्त होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 12-13 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
H.P.W-251: यह कम और मध्यम पहाड़ी क्षेत्रों के बारानी क्षेत्रों के लिए विकसित की गई नई किस्म है। यह अगेती बिजाई वाली किस्म है। यह किस्म विशेषकर उन क्षेत्रों के लिए विकसित की गई है जहां पर मक्की-गेहूं की अंतर फसली किया जाता है। यह किस्म पीली और भूरी कुंगी के काफी प्रतिरोधक और कांगियारी के पूरी तरह प्रतिोधक है। इस किस्म में 11 प्रतिशत प्रोटीन होता है। इसकी औसतन पैदावार 14 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

Chandrika (H.P.W-184) : यह किस्म कम और मध्यम पहाड़ी क्षेत्रों के बारानी और सिंचित क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त है। इस किस्म पर पीली कुंगी का हमला ज्यादा होता है। यह किस्म कांगियारी, हिल बंट और करनाल बंट के प्रतिरोधी है। इस किस्म का पौधा गहरे हरे रंग का होता है। इसके दाने रसदार, मध्यम मोटे और चमकदार होते हैं। इसमें प्रोटीन की मात्रा 12 प्रतिशत होती है। यह किस्म खादों के प्रतिरोधक है। बारानी क्षेत्रों में, इसकी औसतन पैदावार 5 क्विंटल प्रति एकड़ और सिंचित क्षेत्रों में, इसकी औसतन पैदावार 16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Onkaar (H.P.W-155) : यह किस्म अधिक पहाड़ी वाले क्षेत्रों में बारानी हालातों में समय पर बोने के लिए उपयुक्त है और मध्यम पहाड़ी क्षेत्रों के सिंचित और बारानी क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त है। यह किस्म पीली और भूरी कुंगी के प्रतिरोधक है। यह किस्म कांगियारी और पत्तों के सूखने की बीमारी के भी प्रतिरोधक है। बारानी क्षेत्रों में, इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ और सिंचित क्षेत्रों में, इसकी औसतन पैदावार 14.8-16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Surbhi (H.P.W-89) : यह अधिक उपज वाली किस्म है जो कि भूरी और पीली कुंगी के प्रतिरोधक है। यह किस्म कम और दरमियाने पहाड़ी क्षेत्रों के सिंचित और बारानी क्षेत्रों में बिजाई के लिए उपयुक्त है। यह किस्म खादों के प्रतिरोधक है। बारानी क्षेत्रों में, इसकी औसतन पैदावार 11 क्विंटल प्रति एकड़ और सिंचित क्षेत्रों में, इसकी औसतन पैदावार 14 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Palam (H.P.W.-147) : यह अधिक उपज वाली किस्म है जो कि भूरी और पीली कुंगी के प्रतिरोधक है। यह किस्म कम और दरमियाने पहाड़ी क्षेत्रों के सिंचित और बारानी क्षेत्रों में बिजाई के लिए उपयुक्त है। बारानी क्षेत्रों में, इसकी औसतन पैदावार 10 क्विंटल प्रति एकड़ और सिंचित क्षेत्रों में, इसकी औसतन पैदावार 13.75 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
H.S. -240 :  यह किस्म भूरी और पीली कुंगी के प्रतिरोधी है। यह किस्म कम और दरमियाने पहाड़ी क्षेत्रों के सिंचित और बारानी क्षेत्रों में बिजाई के लिए उपयुक्त है। यह मध्यम कद की और देरी से पकने वाली किस्म है। यह पीली कुंगी, भूरी कुंगी और कांगियारी के प्रतिरोधक किस्म है। बारानी क्षेत्रों में इसकी औसतन पैदावार 11 क्विंटल प्रति एकड़ और सिंचित क्षेत्रों में इसकी औसतन पैदावार 15 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
दूसरे राज्यों की किस्में
 
Raj 1482 : यह किस्म को पौधा गहरा हरा और कद 80-90 सैं.मी. होता है। इसकी अधिक फलियां, मोटे दाने, हल्के चमकदार होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 15-16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 126-134 दिनों में पक जाती है। यह मुख्य तौर पर ब्रैड बनाने के लिए प्रयोग की जाती है। इसमें प्रोटीन की मात्रा 11-12 प्रतिशत होती है। 
 
PBW 502 : यह सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इसके पौधे का कद 90-100 सैं.मी. होता है। यह किस्म 130-135 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह करनाल बंट के प्रतिरोधी है। इसकी औसतन पैदावार 18-20 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
PBW 550 :  इस किस्म के पौधे का कद 83-92 सैं.मी. होता है। यह किस्म 128-135 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके दाने मोटे होते हैं जो कि सुनहरी पीले रंग के होते हैं। इस किस्म के 1000 दानों का भार लगभग 38 ग्राम होता है। इसकी औसतन पैदावार 18-24 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
HD 2697: इस किस्म के पौधे का कद 83-91 सैं.मी. होता है। यह किस्म 128-133 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह किस्म भारी ज़मीनों में खेती के लिए अच्छी हैं इसके दाने मोटे और सुनहरी रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 18-24 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Raj 6560 : यह सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इसके पौधे का कद 90-100 सैं.मी. होता है। यह किस्म 130-135 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 18-22 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Raj 3077: इस किस्म को वंडर वीह्ट के नाम से भी जाना जाता है। इसके पौधे का कद 115-118 सैं.मी. होता है। इसकी औसतन पैदावार 15-16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 126-134 दिनों में पक जाती है। यह मुख्य तौर पर ब्रैड बनाने के लिए प्रयोग की जाती है। इसमें प्रोटीन की मात्रा 11-12.5 प्रतिशत होती है।
 
Raj 4079 : यह किस्म 115-120 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके पौधे का कद 75-80 सैं.मी. होता है। यह किस्म सामान्य के साथ सिंचित हालातों में अच्छे परिणाम देती है। यह किस्म गर्दन तोड़ के प्रतिरोधक है। यह 19-21 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देती है। इसके दाने मोटे, मध्यम आकार के और सख्त होते हैं। यह किस्म राजस्थान के गर्म जलवायु को भी सहनेयोग्य है और अधिक उपज देती है।
 
Raj 4037: इसके पौधे का कद 83-95 सैं.मी. होता है। इसकी औसतन पैदावार 15-16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म 120 दिनों में पक जाती है। यह मुख्य तौर पर ब्रैड बनाने के लिए प्रयोग की जाती है। इसमें प्रोटीन की मात्रा 11-12 प्रतिशत होती है। यह किस्म काली और तने की कुंगी के प्रतिरोधक है।
 
Raj 4120 : यह किस्म 110-124 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके पौधे का का कद 80-94 सैं.मी. होता है। यह किस्म सामान्य के साथ साथ सिंचित क्षेत्रों में भी अच्छे परिणाम देती है। इसका तना मजबूत होता है इसलिए यह गर्दन तोड़ के प्रतिरोधक किसम है। इसकी औसतन पैदावार 20-24 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म राजस्थान के गर्म जलवायु को भी सहनेयोग्य है और अधिक उपज देती है।
 
DBW 17: इसके पौधे का कद 80-85 सैं.मी. होता है। यह किस्म 130-132 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह किस्म करनाल बंट के प्रतिरोधक है। इसका तना मजबूत होता है इसलिए यह गर्दन तोड़ के प्रतिरोधक किसम है। इसके दाने मोटे, मध्यम आकार के और सख्त होते हैं। यह किस्म सामान्य के साथ सिंचित क्षेत्रों में भी अच्छे परिणाम देती है। यह 16-20 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देती है।
 
Raj 4238 : यह किस्म 115-120 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके पौधे का कद 82-86 सैं.मी. होता है। इसका तना मजबूत होता है और फसल को गर्दन तोड़ के हमले से बचाता है। यह करनाल बंट के प्रतिरोधक किस्म है। इसके दाने मध्यम आकार के होते हैं। यह किस्म 16-20 क्विंटल प्रति एकड़ तक उपज देती है।
 
WH 1080 : यह किस्म 127-133 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके पौधे का कद 85-101 सैं.मी. होता है। सिंचित हालातों में यह किस्म 16-18 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देती है। इसके दाने सुनहरे, मध्यम मोटे और सख्त होते हैं।
 
PBW 175 : यह किस्म 130-132 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके पौधे का कद 90-105 सैं.मी. होता है। इसके दाने सुनहरे, मध्यम मोटे और सख्त होते हैं। सिंचित हालातों में यह 15-16 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देती है।
 
CCNNRVOI(Raj Molya Rodhak-1) : यह किस्म सिंचित हालातों में समय पर बोने के लिए उपयुक्त है। इसके पौधे का कद 84 सैं.मी. होता है। इसके दाने सुनहरे, अर्द्ध सख्त और गोल आकार के होते हैं। यह किस्म 120-125 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 15-18 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म निमाटोड से प्रभावित क्षेत्रों में प्रसिद्ध है।  
 
पिछेती बिजाई की किस्में 
 
Raj 3765 : यह किस्म दिसंबर के तीसरे सप्ताह से मध्य जनवरी तक बोयी जा सकती है। इसके पौधे का कद 85-95 सैं.मी. होता है। यह किस्म 120 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 16-20 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

Raj 3777: यह किस्म 90-95 दिनों में पक जाती है। इस किस्म के बोने का उपयुक्त समय मध्य जनवरी है। इसकी औसतन पैदावार 14-16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
रेतली मिट्टी की किस्में इन किस्मों को उगाने के लिए कम पानी की आवश्यकता होती है।
 
C 306: यह किस्म बंजर भूमि में प्रयोग की जाती है और इसे कम पानी की आवश्यकता होती है। इसके पौधे का कद लंबा होता है। इसके दाने मध्यम आकार के और सुनहरे रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 14-16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
P.B.W. 299 : इसके पौधे का कद 95 सैं.मी. होता है। यह किस्म 150-160 दिनों में पकती है और यह अगेती उगाने वाली किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 16-18 कि्ंवटल प्रति एकड़ होती है। इस किस्म के साथ PBW 396 और WH 147  किस्में भी उगाई जाती है।

Saline soil varieties : क्षारीय क्षेत्रों के लिए Raj 3077 , K.R.L 1-4  और  WH 157  किस्मों का प्रयोग किया जाता है, जो कि अच्छी उपज देती हैं ।

RAJ-3765 : यह किस्म 120-125 दिनों में पक जाती है। यह किस्म गर्मी को सहने योग्य, भूरी जंग के संवेदनशील और कुछ हद तक धारीदार जंग और करनाल बंट के संवेदनशील है। इसकी औसत पैदावार 21 क्विंटल प्रति एकड़ है।

UP-2338 : यह किस्म 125-130 दिनों में पक जाती है। यह पत्तों की कुंगी के संवेदनशील और धारीदार जंग के कुछ हद तक संवेदनशील है। यह किस्म करनाल बंट के संवेदनशील और झुलस रोग को सहनेयोग्य है। इस किस्म की लगभग 21 क्विंटल प्रति एकड़ उपज होती है।
 
UP-2328 : यह किस्म 130 से 135 दिनों में पकती है। इसके दाने सख्त, रंग शरबती और मध्यम आकार के होते हैं। यह किस्म सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयंक्त है। असकी औसत उपज 20-22 क्विंटल प्रति एकड़ है।
 
सोनालिका : यह एक जल्दी पकने वाली, छोटे कद वाली गेहूं की किस्म है। जो कि बहुत सारे हालातों के अनुकूल है। इसके दाने सुनहरी होते हैं। इसकी बुवाई पिछेती की जा सकती है। और यह फंगस की बीमारियों से रहित होती है।
 
कल्याणसोना : यह गेहूं की बहुत छोटे कद वाली किस्म है। जो कि बहुत सारे हालातों के अनुकूल होती है। और पूरे भारत में इसको बीजने की सलाह दी जाती है। इसे बहुत जल्दी फंगस की बीमारी लगती है।इसलिए इसे फंगस रहित क्षेत्रों में बीजने की सलाह दी जाती है।
 
UP-(368) : अधिक पैदावार वाली इस किस्म को पंतनगर द्वारा विकसित किया गया है। यह फंगस और पीलेपन की और बीमारियों से रहित होती है।
 
WL-(711) : यह छोटे कद और अधिक पैदावार वाली और कम समय में पकने वाली किस्म है। यह कुछ हद तक सफेद धब्बे ओर पीलेपन की बीमारी से रहित होती है।
 
UP-(319) : यह बहुत ज्यादा छोटे कद वाली गेहूं की किस्म है, जिसमें फंगस/उल्ली के प्रति प्रतिरोधकता काफी हद तक पाई जाती है। दानों को टूटने से बचाने के लिए इसकी समय से कटाई कर लेनी चाहिए।
 
देर से बोई जाने वाली किस्में
HD-2851, HD-293, RAJ-3765, PBW-373, UP-2338, WH-306, 1025
 
PBW 590 : यह किस्म पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाई जाती है। यह 128 दिनों के अंदर कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह किस्म पीली और भूरी कुंगी रोगों के प्रतिरोधक किस्म है। इस किस्म का औसतन कद 80 सैं.मी. होता है। 
 
PBW 509 : यह उप पर्वतीय क्षेत्रों को छोड़कर पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाई जाती है। यह किस्म 130 दिनों के अंदर अंदर कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह पीली और भूरी कुंगी रोगों के प्रतिरोधक किस्म है। इसका औसतन कद 85 सैं.मी. होता है।
 
PBW 373 : इस किस्म को पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह किस्म 140 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह भूरी कुंगी के प्रतिरोधी किस्म है। इसका औसतन कद 90 सैं.मी. होता है।
 

ज़मीन की तैयारी

गेहूं की फसल को अच्छे और समान अंकुरन के लिए अच्छी तरह से भुरभुरी और सघन सीड बैड की आवश्यकता होती है। पिछली फसल की कटाई के बाद खेत की अच्छे तरीके से तवियों और हल (मोल्ड बोर्ड) से जोताई करनी चाहिए। एक गहरी जोताई के बाद दो या तीन बार हैरो से जोताई करें और फिर 2 से 3 बार सुहागा फेरें। बारानी क्षेत्रों में, खेत को इस तरह से तैयार करें कि उसमें नमी बनी रहे। खेत को आमतौर पर लोहे के हल से एक गहरी जोताई के बाद लोकल हल से 2 या 3 बार जोताई की जाती है और सुहागा फेरा जाता है।
 
प्रत्येक जोताई के बाद सुहागा फेरें। गेहूं के अंकुरन में सुधार के लिए आखिरी जोताई के समय यूरिया 35-40 किलो प्रति एकड़ में डालें। आखिरी जोताई के समय अज़ाटोबैक्टर 2.5 किलो + फासफेटिक कल्चर 2.5 किलो + ट्राइकोडरमा 2.5 किलो को 100-125 किलो रूड़ी की खाद या अच्छी तरह से गले हुए गोबर में मिलाकर छिड़काव करें। 
 

बिजाई

बिजाई का समय
गेहूं को उपयुक्त समय पर बोना ज़रूरी है। कम पहाड़ी क्षेत्रों में, बारानी क्षेत्रों के लिए अक्तूबर के आखिरी सप्ताह से मध्य नवंबर में बिजाई पूरी कर लेनी चाहिए और अधिक पहाड़ी क्षेत्रों में बारानी क्षेत्रों में बिजाई अक्तूबर के पहले सप्ताह से मध्य अक्तूबर में पूरी कर लेनी चाहिए जबकि कम पहाड़ी क्षेत्रों में सिंचित हालातों में अंत दिसंबर में बिजाई पूरी कर लेनी चाहिए और अधिक पहाड़ी क्षेत्रों में, सिंचित हालातों में मध्य अक्तूबर में बिजाई पूरी कर लेनी चाहिए।

फासला
सामान्य बिजाई के लिए, कतारों में 22 सैं.मी. के फासले की सिफारिश की गई है। जब बिजाई देरी से की जाये तो कतारों में 18 सैं.मी. का फासला रखना चाहिए।

बीज की गहराई
बिजाई 5 सैं.मी. गहराई में होनी चाहिए।
 
बिजाई का ढंग
बीज ड्रिल
छींटा  विधि द्वारा
जीरो टिलेज़ ड्रिल
रोटावेटर
 

बीज

बीज की मात्रा
बिजाई के लिए 37-40 किलो बीज प्रति एकड़ में प्रयोग करें। बारानी क्षेत्रों के लिए, यदि बिजाई 20 दिसंबर के बाद की जाये तो 62.5 किलो बीज प्रति एकड़ में प्रयोग करें।
 
बीज का उपचार
बीज को दीमक, कांगियारी जैसे रोगों से बचाने के लिए बिजाई से 24 घंटे पहले क्लोरपाइरीफॉस 4 मि.ली. या टैबुकोनाज़ोल 2 डी एस 1.5-1.87 ग्राम या कार्बेनडाज़िम या थीरम 2 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें। रासायनिक उपचार के बाद, ट्राइकोडरमा विराइड 1.15 प्रतिशत डब्लयु पी 4 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें। ट्राइकोडरमा विराइड 4 ग्राम + कार्बोक्सिन 75 डब्लयु पी 1.25 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें। 
 

खाद

खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)

UREA SSP
MOP ZINC
108 156 20 -

 

तत्व (किलोग्राम प्रति एकड़)

NITROGEN PHOSPHORUS POTASH
50 25 12

 

मिट्टी की जांच के आधार पर खादों की मात्रा डालें। मिट्टी की जांच की मदद से हम मिट्टी की आवश्यकता के अधार पर खादों की मात्रा दे सकते हैं।  गेहूं की समय पर बिजाई के लिए, नाइट्रोजन 50 किलो (यूरिया 108 किलो), फासफोरस 25 किलो (एस एस पी 156 किलो) और पोटाश 12 किलो (म्यूरेट ऑफ पोटाश 20 किलो) प्रति एकड़ में डालें। बिजाई के समय नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फासफोरस, पोटाश की पूरी मात्रा बिजाई के समय डालें। नाइट्रोजन की बाकी की मात्रा पहली सिंचाई के समय डालें।

उपज में अधिक वृद्धि के लिए जिंक सल्फेट 10 किलो प्रति एकड़ में डालें। जिंक की कमी को जिंक सल्फेट 0.5 प्रतिशत की फोलियर स्प्रे करके पूरा किया जा सकता है। 15 दिनों के अंतराल पर दो से तीन स्प्रे करें। अच्छी उपज और वृद्धि के लिए NPK 19:19:19, पानी में घुलनशील खादें 5 ग्राम + स्टिकर 0.5 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर बिजाई के 30 दिन बाद स्प्रे करें।

 

 

सिंचाई

सिंचाई की संख्या मिट्टी की किस्म, पानी की उपलब्धता आदि पर निर्भर करती है। जड़ों के सिरे बनने की अवस्था और बालियां निकलने की अवस्था में पानी की कमी ना होने दें। छोटे कद की अधिक उपज वाली किस्मों के लिए बिजाई से पहले सिंचाई करें। भारी मिट्टी के लिए 4-6 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है जबकि हल्की मिट्टी में 6-8 सिंचाई की आवश्यकता होती है। पानी की कमी होने पर सिंचाई सिर्फ गंभीर अवस्थाओं में दें। यदि पानी सिर्फ 1 सिंचाई के लिए उपलब्ध हो तो जड़ों के सिरे बनने के शुरूआती अवस्था में सिंचाई दें। यदि 2 सिंचाइयों उपलब्ध हो तो जड़ों के सिरे बनने और फूल निकलने की अवस्था में सिंचाई दें। यदि तीन सिंचाइयों उपलब्ध हों तो, पहली सिंचाई जड़ों के सिरे बनने के शुरूआती अवस्था में, दूसरी पौधे के अलग अलग भाग बनने के समय और तीसरी दूधिया अवस्था में दें। सिंचाई के लिए अवस्था बहुत महत्तवपूर्ण होती है। यदि पहली सिंचाई, देरी से की जाये तो 83-125 किलो प्रति एकड़ उपज में कमी आती है।

बिजाई के 20-25 दिन बाद पहली सिंचाई करनी चाहिए। ये जड़ों की सिरे बनने की अवस्था होती है यदि इस समय पानी की कमी हो तो उपज में काफी नुकसान होता है। बिजाई के 40-45 दिन बाद दूसरी सिंचाई करें। तीसरी सिंचाई बिजाई के 60-65 दिन बाद पौधे के अलग अलग भाग बनने के समय करें। चौथी सिंचाई बिजाई के 80-85 दिनों के बाद फूल निकलने के समय करें। पांचवी सिंचाई बिजाई के 100-105 दिन बाद नर्म और दूधिया अवस्था में करें।

सिंचाई की संख्या की सिफारिश नीचे दिए गए टेबल में की गई है।

सिंचाई की संख्या बिजाई के बाद अंतराल (दिनों में)
पहली सिंचाई 20-25 दिन
दूसरी सिंचाई 40-45 दिन
तीसरी सिंचाई 60-65 दिन
चौथी सिंचाई 80-85 दिन
पांचवीं सिंचाई 100-105 दिन
छठी सिंचाई 115-120 दिन

खरपतवार नियंत्रण

रासायनिक नदीन रोकथाम : इसमें कम मेहनत और हाथों से नदीनों को उखाड़ने से होने वाली हानि ना होने कारण ज्यादातर यह तरीका ही अपनाया जाता है। नुकसान से बचने के लिए पैंडीमैथालीन स्टांप (30 ई.सी.) 1 लीटर को 200 लीटर पानी के घोल में मिलाकर बीजने के 0-3 दिनों के अंदर छिड़काव करना चाहिए।चौड़े पत्तों वाले नदीनों की रोकथाम के लिए 2,4-डी 250 मि.ली.  को 150 लीटर पानी में घोलकर प्रयोग करें।
 
 

फसली चक्र

गेहूं को मुख्य तौर पर मक्का/रबी की फसल के साथ उगाया जाता है। सिंचित क्षेत्रों में, धान-मूली-आलू, मक्का-मूली-प्याज, मक्का-तोरिया-आलू और मक्का-तोरिया + फूल गोभी-सरसों, मक्का-सरसों को अंतरफसली सफलतापूर्वक किया जा सकता है जबकि बारानी क्षेत्रों में मक्का-तोरिया + फूल गोभी-सरसों, मक्का-चने और मक्का+सोयाबीन-सरसों का अंतरफसली सफलतापूर्वक किया जा सकता है। 
 

पौधे की देखभाल

चेपा
  • हानिकारक कीट और रोकथाम
चेपा : ये काफी हद तक पारदर्शी, नर्म शरीर वाले और रस चूसने वाले कीट होते हैं। यदि यह बहुत ज्यादा मात्रा में हों तो यह पत्तों के पीलेपन या उनको समय से पहले सुखा देते हैं। आमतौर पर यह आधी जनवरी के बाद फसल के पकने तक के समय दौरान हमला करते हैं।
 
चेपे की रोकथाम के लिए, कराईसोपरला प्रीडेटर्ज़, 5-8 हज़ार कीड़े प्रति एकड़ या 50 ग्राम प्रति लीटर नीम के घोल का उपयोग करें। बादलवाई के दौरान चेपे का हमला शुरू होता है। 30 मि.ली. थाइमैथोक्सम या इमीडाक्लोप्रिड 100 लीटर पानी में घोल तैयार करके एक एकड़ फासले पर छिड़काव करें।
 
दीमक

दीमक : दीमक की तरफ से फसल के विभिन्न विभिन्न विकास के पड़ाव, बीज अंकुरन से लेकर पकने तक हमला किया जाता है। बुरी तरह ग्रसित पौधों की जड़ों को आराम से उखाड़ा जा सकता है और यह पत्ता लपेट और सूखे हुए नज़र आते हैं। यदि आधी जड़ खराब हो तो बूटा पीला पड़ जाता है। इसकी रोकथाम के लिए एक लीटर क्लोरोपाइरीफॉस 20 ई.सी. को 20 किलो मिट्टी में मिला के एक एकड़ में छिड़काव करना चाहिए और उसके बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए।

कांगियारी
  • बीमारियां और रोकथाम
कांगियारी : यह मिट्टी से पैदा होने वाली बीमारी है। हवा से इसकी लाग और फैलती है। बलियां बनने के समय कम तापमान, नमी वाले हालात इसके लिए अनुकूल होते हैं।
बीज को फफूंद से होने वाली बीमारियों की रोकथाम के लिए विटावैक्स 75 डब्लयू पी(कार्बोक्सिल) 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के लिए, बाविस्टिन 50 डब्लयू पी (कार्बनडैज़िम)2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के लिए, रैक्सिल 2 डी. एस.(टीबूकोनाज़ोल) 1.25 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के लिए, यदि बीमारी गंभीर हो तो ऐसे फफूंदीनाशको का प्रयोग करना चाहिए। यदि बीज में बीमारी की दर कम या औसतन हो तो प्रति किलो बीज के लिए 4 ग्राम ट्राइकोडरमा विराइड और सिफारिश की गई 1.25 ग्राम कार्बोक्सिन विटावैक्स 75 डब्लयू पी की आधी खुराक से प्रति किलो बीज का उपचार करें।
 
सफेद धब्बे
पत्तों पर सफेद धब्बे : इस बीमारी के दौरान पत्ते, खोल, तने और फूलों वाले भागों पर सफेद रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। बाद में ये धब्बे काले रंग के हो जाते हैं। इससे पत्तों और बाकी के भाग सूखने शुरू हो जाते हैं। जब इस बीमारी का हमला सामने आए तो फसल पर 2 ग्राम वैटेबल सल्फ का एक लीटर पानी में घोल तैयार करके या 200 ग्राम कार्बनडैज़िम प्रति एकड़ छिड़काव करना चाहिए। गंभीर हालातों में 1 मि.ली.  प्रोपीकोनाज़ोल का एक लीटर पानी में घोल तैयार करके इसका छिड़काव करना चाहिए।
 
भूरी कुंगी
भूरी कुंगी : गर्म तापमान (15-30 डिगरी सै.) और नमी वाले हालात इसका कारण बनते हैं। पत्तों पर भूरी कुंगी के लक्षण की पहचान पत्तों के ऊपर लाल - भूरे रंग के अंडाकार या लंबकार दानों से होती है। जब अनावश्यक मात्रा में नमी मौजूद हो और तापमान 20 डिगरी सै. के नजदीक हो तो यह बीमारी बहुत जल्दी बढ़ती है। यदि हालात अनुकूल हों तो इस बीमारी के दाने हर 10-14 दिनों के बाद दोबारा पैदा हो सकते हैं।
 
इस बीमारी की रोकथाम के लिए उपयुक्त फसलों के साथ मिश्रित फसलें उगाएं। नाइट्रोजन के ज्यादा प्रयोग से परहेज़ करना चाहिए। 2.5 किलोग्राम ज़िनेब प्रति एकड़ का छिड़काव या 1 मि.ली. प्रोपीकोनाज़ोल (टिल्ट)का एक लीटर पानी में घोल तैयार करके इसका छिड़काव करना चाहिए।
 
पीली कुंगी
धारीदार पीली कुंगी : धारीदार पीली कुंगी के विकास के लिए उचित हालात का तापमान 8-13 डिगरी सै. है। इस तापमान दौरान इसके बीजाणु अंकुरित होते हैं और बूटों में प्रवेश करते हैं और 12-15 डिगरी सै. के तापमान और खुले पानी के दौरान यह अच्छी तरह बढ़ते फूलते हैं। इस बीमारी के कारण गेहूं की फसल की पैदावार में 5 प्रतिशत से लेकर 30 प्रतिशत तक कमी आ सकती है। पीली कुंगी के दाने जो कि पीले से संतरी पीले हो सकते हैं, आमतौर पर एक पतली धारी बनाते हैं।
 
इस बीमारी की रोकथाम के लिए कुंगी की प्रतिरोधक किस्मों का प्रयोग करें । अंतरफसली और मिश्रित फसली को अपनायें। नाइट्रोजन की ज्यादा प्रयोग से परहेज करना चाहिए। जब इस बीमारी लक्षण दिखाई दे तो 5-10 किलोग्राम सल्फर का छिड़काव प्रति एकड़ या 2 ग्राम मैनकोजेब प्रति लीटर का छिड़काव या 1 मि.ली. प्रोपीकोनाज़ोल (टिल्ट) का एक लीटर पानी में घोल तैयार करके इसका डिड़काव करना चाहिए।
 
करनाल बंट
करनाल बंट : यह एक बीज और मिट्टी से होने वाली बीमारी है संक्रमण की शुरूआत बलियां बनने के समय होती है। बलियां बनने से लेकर उसमें दाना पड़ने तक के पड़ाव के दौरान यदि बादलवाई रहती है तो यह बीमारी ज्यादा विकसित होती है। यदि उत्तरी भारत के समतल क्षेत्रों में फरवरी महीने के दौरान बारिश पड़ जाए तो इस इस बीमारी का हमला ज्यादा होता है।
 
इस बीमारी की रोकथाम के लिए, करनाल बंट की प्रतिरोधक किस्मों का प्रयोग किया जाना चाहिए। इस बीमारी की रोकथाम के लिए, बलियों के बनने के समय 1मि.ली. प्रापीकोनाज़ोल (टिल्ट) 25 ई सी को 1लीटर पानी के घोल में मिलाकर इसका छिड़काव करना चाहिए।
 

फसल की कटाई

अधिक पैदावार वाली फसलों की किस्मों की कटाई पत्तों और तने के पीले पड़ने और सूखने के बाद की जाती है। हानि से बचने के लिए फसल की कटाई इसके पके हुए बूटों के सूखने से पहले की जानी चाहिए। ग्राहक की तरफ से इसे स्वीकारने और इसकी अच्छी गुण्वत्ता के लिए इसको सही समय पर काटना चाहिए। जब दानों में 25-30 प्रतिशत नमी रह जाती है तो यह इसे काटने का सही समय होता है। हाथ से गेहूं काटने के समय तेज धार वाली द्राती का प्रयोग करना चाहिए। कटाई के लिए कंबाइने भी उपलब्ध हैं, जिनकी सहायता से गेहूं की फसल की कटाई, दाने निकालना और छंटाई एक ही बार में की जा सकती है।

कटाई के बाद

हाथों से कटाई करने के बाद, फसल को तीन से चार दिनों के लिए सुखाना चाहिए ताकि दानों में नमी 10-12 प्रतिशत के मध्य रह जाए और उसके बाद बल्दों की मदद से या बल्द की सहायता से चलने वाले थ्रैशर की मदद से दाने निकालने चाहिए। सीधा धूप में सुखाना या बहुत ज्यादा सुखाने से परहेज़ करना चाहिए और दानों को साफ-सुथरी बोरियों में भरना चाहिए ताकि नुकसान को कम किया जा सके। पूसा बिन मिट्टी या ईंटों से बनाया जाता है और इसकी दीवारों में पॉलिथीन की एक परत चढ़ाई जाती है। जब कि बांस के डंडों के आस-पास कपड़ों की मदद से सिंलडर के आकार में ढांचा तैयार किया जाता है और इसका तल मैटल की ट्यूब की सहायता से तैयार किया जाता है। इसे हपूरटेका कहा जाता है, जिसके निचली ओर एक छोटा छेद किया जाता है ताकि इसमें से दानों को निकाला जा सके। बड़े स्तर पर दानों का भंडार सी ए पी और सिलोज़ में किया जाता है।
भंडार के दौरान अलग अलग तरह के कीड़ों और बीमारियों से दूर रखने के लिए बोरियों में 1 प्रतिशत मैलाथियोन रोगाणुनाशक का प्रयोग किया जाता है। भंडार घर को अच्छी तरह साफ करें, इसमें से आ रही दरारों को दूर करे और चूहे की खुड्डों को सीमेंट से भर दें। दानों को भंडार करने से पहले भंडार घर में सफेदी करवानी चाहिए। और इसमें 100 वर्गमीटर के घेरे में 3 लीटर मैलाथियान 50 ई.सी. का छिड़काव करना चाहिए। बोरियों के ढेर को दीवारों से 50 सै.मी. की दूरी पर रखना चाहिए और ढेरों के बीच में कुछ जगह देनी चाहिए।