भिंडी की खेती

आम जानकारी

यह फसल उष्ण और उपउष्ण क्षेत्रों में उगाई जाती है। भारत में भिंडी उगाने वाले मुख्य प्रांत उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा हैं। भिंडी की खेती विशेष तौर पर इसे लगने वाले हरे फल के कारण की जाती है। इसके सूखे फल और छिल्के को कागज़ उदयोग में और रेशा (फाइबर) निकालने के लिए प्रयोग किया जाता है। भिंडी विटामिन, प्रोटीन, कैल्शियम और अन्य खनिजों का मुख्य स्त्रोत है।
हिमाचल प्रदेश में, भिंडी की खेती निचले और मध्यवर्ती क्षेत्रों में करने के लिए अनुकूल है| इसकी खेती 148 एकड़ ज़मीन पर की जाती है और 1715 टन पैदावार पर्याप्त की जाती है|

जलवायु

  • Season

    Temperature

    20-30°C
  • Season

    Rainfall

    1000mm
  • Season

    Sowing Temperature

    20-29°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    25-35°C
  • Season

    Temperature

    20-30°C
  • Season

    Rainfall

    1000mm
  • Season

    Sowing Temperature

    20-29°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    25-35°C
  • Season

    Temperature

    20-30°C
  • Season

    Rainfall

    1000mm
  • Season

    Sowing Temperature

    20-29°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    25-35°C
  • Season

    Temperature

    20-30°C
  • Season

    Rainfall

    1000mm
  • Season

    Sowing Temperature

    20-29°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    25-35°C

मिट्टी

भिंडी काफी तरह की मिट्टी में उगाई जा सकती है। भिंडी की फसल के लिए उचित मिट्टी रेतली से चिकनी होती है, जिसमें जैविक तत्व भरपूर मात्रा में हों और जिसकी निकास प्रणाली भी अच्छी ढंग की हो। यदि निकास अच्छे ढंग का हो तो यह भारी ज़मीनों में भी अच्छी उगती है। इसकी खेती के लिए मिट्टी का pH 6.0 से 6.5 होना चाहिए और खारी, नमक वाली या घटिया निकास वाली मिट्टी में इसकी खेती ना करें।

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

Pusa Sawani: यह किस्म IARI, नई दिल्ली द्वारा जारी की गई है| यह किस्म गर्मियों और बारिश के मौसम में उगाने के लिए अनुकूल है| यह 50 दिनों में तुड़ाई के लिए तैयार होती है| तुड़ाई के समय इसके फल गहरे हरे रंग और 10-12 सैं.मी. लम्बे होते हैं| यह पीले चितकबरे रोग की संवेदनशील किस्म है| इसकी औसतन पैदावार 40-56 क्विंटल प्रति एकड़ होती है|

Harbhajan: यह किस्म गर्मियों और बारिश के मौसम में उगाने के लिए अनुकूल है| इसके फल जल्दी पकने वाले गहरे हरे रंग के और नर्म होते हैं| यह पीले चितकबरे रोग की रोधक किस्म है| इसकी औसतन पैदावार 36-40 क्विंटल प्रति एकड़ होती है|

P-8: यह एक नई किस्म है, इस किस्म के पौधे का कद दरमियाना (53-71 सैं.मी. लम्बे) और 12-15 सैं.मी. लम्बे फल, प्रत्येक पौधे पर लगभग 10 फल होते हैं, यह पीले चिकबरे रोग की रोधक किस्म है| इसकी औसतन पैदावार 42 क्विंटल प्रति एकड़ होती है|

दूसरे राज्यों की किस्में


Pusa Mahakali:  यह किस्म IARI, नई दिल्ली द्वारा बनाई गई है। इसके फल हलके हरे रंग के होते हैं।

Parbhani Kranti: यह किस्म MKV, परभानी द्वारा जारी की गई है। इसके फल आकार में दरमियाने लंबे होते हैं और अच्छी क्वालिटी के कारण ज्यादा देर तक स्टोर किए जा सकते हैं। यह पीले चितकबरा रोग को सहनेयोग्य किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 35-45 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

Arka Anamika: यह किस्म IIHR, बैंगलोर द्वारा तैयार की गई है। यह चितकबरा रोग की रोधक किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 80 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

Arka Abhay: यह किस्म IIHR, बैंगलोर द्वारा तैयार की गई है। इसके फल पीले चितकबरे रोग के रोधक होते हैं।

Pusa A 4: यह पीला चितकबरा रोग और चेपे के प्रतिरोधक किस्म है। यह 45 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 56 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

Perkins Long green: यह किस्म पहाड़ी क्षेत्रों में उगाने के लिए अनुकूल है।

Kashi Vibhuti: बिजाई के बाद इसकी पहली कटाई 38-40 दिनों के बाद की जाती है। इसकी औसतन पैदावार 68-72 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

Aruna: यह किस्म KAU द्वारा जारी की गई है। इस किस्म की लाल रंग की फलियां होती हैं। यह चितकबरा रोग की रोधक किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 64 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

CO 1: अधिक उपज देने वाली यह किस्म TNAU द्वारा जारी की गई है। इस किस्म की लाल रंग की फलियां होती हैं।

ज़मीन की तैयारी

मिट्टी के भुरभुरा करने के लिए खेत की जोताई करें। जोताई के बाद, सुहागा फेर कर ज़मीन को समतल करें। आखिरी जोताई के समय 40 क्विंटल प्रति एकड़ अच्छी रूड़ी की खाद मिट्टी में मिलाएं।

बिजाई

बिजाई का समय
निचले क्षेत्रों में: फरवरी-मार्च, जुलाई
मध्यवर्ती क्षेत्रों में: मार्च-जून
ऊंचे क्षेत्रों में: अप्रैल-मई

फासला
गर्मियों में बिजाई के लिए कतारों के बीच 45-60 सैं.मी. और पौधों के बीच 15 सैं.मी. फासला रखें। बारिश के मौसम में कतारों के बीच 45 सैं.मी. रखें।

बीज की गहराई

बीजों को 1.5-2 सैं.मी. गहराई में बोयें।

बिजाई का ढंग

इसकी बिजाई गड्ढा खोदकर की जाती है।

बीज

बीज की मात्रा
गर्मियों के मौसम में 6-8 किलो और बारिश के मौसम में 4-5 किलो बीजों का प्रति एकड़ में प्रयोग करें।

बीज का उपचार
बिजाई से पहले बीज को 24 घंटे के लिए पानी में भिगोकर रखने से बीज की अंकुरन शक्ति बढ़ जाती है। ज़मीन से पैदा होने वाली फफूंदी से बचाने के लिए बीजों को कार्बेनडाज़िम से उपचार करें। उपचार करने के लिए बीजों को 2 ग्राम कार्बेनडाज़िम घोल प्रति लीटर पानी में मिलाकर 6 घंटे के लिए डुबो दें और फिर छांव में सुखाएं। फिर तुरंत बिजाई कर दें। बीजों के अच्छे अंकुरन के लिए और मिट्टी में पैदा होने वाली बीमारियों से बचाने के लिए बीजों को इमीडाक्लोप्रिड 5 ग्राम प्रति किलो बीज से और बाद में ट्राइकोडरमा विराइड 4 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचार करें।

फंगसनाशी/कीटनाशी नाम  मात्रा(प्रति किलोग्राम बीज)
Carbendazim 2gm
Imidacloprid 5gm

खाद

खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)

UREA SSP
MOP
60 125 36

 

तत्व (किलोग्राम प्रति एकड़)

NITROGEN PHOSPHORUS POTASH
28 20 22

 

शुरूआती खाद के तौर पर अच्छी तरह से गला हुआ, गाय का गोबर 40 कि्ंवटल प्रति एकड़ में डालें और नाइट्रोजन 28 किलो (63किलो यूरिया), फासफोरस 20 किलो(सिंगल सुपर फासफेट 125 किलो) और पोटाश 36 किलो (म्यूरेट ऑफ पोटाश 22 किलो) प्रति एकड़ में बिजाई से पहले डालें।

बीजों की बिजाई से पहले बासालिन 1 लीटर या लासो 1.6 लीटर प्रति एकड़ में बिजाई के बाद तुरंत डालें|

खरपतवार नियंत्रण

भिंडी में नदीनों की वृद्धि को रोकने के लिए गोडाई की जाती है। वर्षा ऋतु वाली फसल में पंक्तियों के साथ मिट्टी लगाएं। पहली गोडाई 20-25 दिनों बाद और दूसरी गोडाई बिजाई के 40-45 दिनों बाद करें। बीजों के अंकुरन से पहले नदीन-नाशक डालने से नदीनों को आसानी से रोका जा सकता है। इसके लिए फलूक्लोरालिन (48%) 1 लीटर या पैंडीमैथालीन 1 लीटर या ऐक्लोर 1.6 लीटर प्रति एकड़ में डालें।

सिंचाई

यदि ज़मीन में आवश्यक नमी ना हो तो, बीजों के अच्छे अंकुरन के लिए गर्मियों में बिजाई से पहले सिंचाई करें। अगली सिंचाई बीज अंकुरन के बाद करें। फिर खेत की सिंचाई गर्मियों में 4-5 दिन बाद और वर्षा ऋतु में 10-12 दिन बाद करें।

पौधे की देखभाल

  • हानिकारक कीट और रोकथाम

शाख और फल का कीट: यह कीट पौधे के विकास के समय शाख में पैदा होता है। इसके हमले से प्रभावित शाखा सूखकर झड़ जाती है। बाद में यह फलों में जा कर इन्हें अपने मल से भर देता है।

प्रभावित भागों को नष्ट कर दें। यदि इनकी संख्या ज्यादा हो तो स्पाइनोसैड 1 मि.ली. प्रति क्लोरॅट्रीनिलीप्रोल 18.5% एस सी 7 मि.ली. प्रति 15 लीटर पानी या फलूबैंडीअमाइड 50 मि.ली. प्रति एकड़ को 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।

ब्लिस्टर बीटल: यह पौधे के बूर, पत्तों और फूलों की गोभ को खाता है।

यदि इसका हमला दिखे तो, बड़े कीड़े इकट्ठे होकर नष्ट कर दें। कार्बरिल 1 ग्राम या मैलाथियॉन 400 मि.ली. प्रति 200 लीटर पानी या साइपरमैथरिन 80 मि.ली. प्रति 150 लीटर पानी की स्प्रे करें।

चेपा: चेपे का हमला नए पत्तों और फलों पर देखा जा सकता है। यह पौधे का रस चूसकर उसे कमज़ोर कर देता है। गंभीर हमले की स्थिति में पत्ते मुड़ जाते हैं या बेढंगे रूप के हो जाते हैं। यह शहद की बूंद जैसा पदार्थ जो धुंएं जैसा होता है, को छोड़ते हैं। प्रभावित भागों पर काले रंग की फफूंद पैदा हो जाती है।

जैसे ही हमला देखा जाये, तुरंत प्रभावित हिस्से नष्ट कर दें। डाइमैथोएट 300 मि.ली. प्रति 150 लीटर पानी में मिलाकर बिजाई से 20-35 दिन बाद डालें। यदि जरूरत हो तो दोबारा डालें। हमला दिखने पर थाइमैथोक्सम 25 डब्लयु जी 5 ग्राम को प्रति 15 लीटर पानी की स्प्रे करें।

  • बीमारियां और रोकथाम

चितकबरा रोग: इस बीमारी के लक्षणों के तौर पर सारे पत्तों पर एक जैसी पीली धारियां होती हैं। इससे पौधे की वृद्धि पर भी असर पड़ता है। और विकास रूक जाता है। इससे फल भी पीले दिखाई देते हैं और आकार में छोटे और सख्त होते हैं। इस से 80-90% पैदावार कम हो जाती है। यह बीमारी सफेद मक्खी और पत्ते के टिड्डे के कारण फैलती है।

इसकी रोकथाम के लिए रोधक किस्मों का प्रयोग करें। बीमारी वाले पौधों को खेत में से दूर ले जाकर नष्ट कर दें। सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए डाइमैथोएट 300 मि.ली. प्रति 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।

पत्तों पर सफेद धब्बे: इससे नए पत्तों और फलों पर सफेद धब्बे पड़ जाते हैं। गंभीर हमले की स्थिति में फल पकने से पहले ही झड़ जाते हैं। इससे फल की क्वालिटी भी कम हो जाती है और फल आकार में छोटे रह जाते हैं।

यदि इसका हमला दिखे तो घुलनशील सलफर 25 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी या डाइनोकैप 5 मि.ली. प्रति 10 लीटर पानी की स्प्रे 4 बार 10 दिनों के फासले पर करें। या ट्राइडमॉर्फ 5 मि.ली. या पैनकोनाज़ोल 10 मि.ली. प्रति 10 लीटर की स्प्रे 4 बार 10 दिनों के फासले पर करें।

पत्तों पर धब्बा रोग: पत्तों के मध्य में सलेटी और किनारों पर लाल धब्बे पड़ जाते हैं। गंभीर हमले की स्थिति में पत्ते झड़ने शुरू हो जाते हैं।

भविष्य में हमले से बचने के लिए बीजों को थीरम से उपचार करें। यदि खेत में इसका हमला दिखे तो मैनकोजेब 4 ग्राम प्रति लीटर या कप्तान 2 ग्राम प्रति लीटर या कार्बेनडाज़िम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें। डाइफैनोकोनाज़ोल/ हैक्साकोनाज़ोल 0.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें।

जड़ गलन: प्रभावित जड़ें गहरे भूरे रंग की हो जाती हैं  और ज्यादा हमले की स्थिति में पौधा मर जाता है।

इसकी रोकथाम के लिए  एक ही फसल खेत में बार बार ना लगाएं, बल्कि फसली चक्र अपनाएं। बिजाई से पहले बीजों को कार्बेनडाज़िम 2.5 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचार करें। मिट्टी में कार्बेनडाज़िम घोल 1 ग्राम प्रति लीटर पानी डालें।

सूखा: इससे शुरूआत में पुराने पत्ते पीले पड़ जाते हैं और बाद में सारी फसल ही सूख जाती है। यह बीमारी फसल पर किसी भी समय हमला कर सकती है।

यदि इसका हमला दिखे तो पौधे की नज़दीक की जड़ों में कार्बेनडाज़िम 10 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी डालें।

फसल की कटाई

फसल बिजाई के 60-70 दिनों के बाद पक कर तैयार हो जाती है। छोटे और कच्चे फलों की तुड़ाई करें। फलों की तुड़ाई सुबह और शाम के समय करनी चाहिए। तुड़ाई में देरी होने पर भिंडियों में रेशा भर जाता है और इनका कच्चापन और स्वाद भी चला जाता है।

कटाई के बाद

भिंडियों को ज्यादा देर तक स्टोर करके नहीं रखा जा सकता। भिंडियों को 7-10° सैल्सियस और 90% नमी पर ज्यादा देर तक स्टोर करके रखा जा सकता है। नज़दीक के बाज़ारों में भिंडियों को जूट की बोरियों में भरकर ले जाया जा सकता है, जबकि लंबी दूरी वाले स्थानों पर इन्हें गत्ते के बक्सों में पैक करके ले जाया जा सकता है।