हिमाचल प्रदेश में आलू की खेती

आम जानकारी

आलू विश्व की एक महत्तवपूर्ण और आर्थिक खाद्य फसल है, जिसे गरीब आदमी का मित्र कहा जाता है। इस फसल का मूल स्थान दक्षिणी अमरीका है और इस में कार्बोहाइड्रेट और विटामिन भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। यह फसल सब्जी के लिए और चिपस बनाने के लिए प्रयोग की जाती है। इस का उपयोग कई उद्योगिक क्षेत्रों में स्टार्च और शराब बनाने के लिए किया जाता है। आलू लगभग सभी राज्यों में उगाए जाते हैं। भारत में ज्यादातर उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, पंजाब, कर्नाटका, आसाम और मध्य प्रदेश में आलू उगाए जाते हैं। 
हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2002-03 में 5.9 हज़ार एकड़ में आलू की खेती की गई और इससे 42.5 क्विंटल प्रति एकड़ की औसतन पैदावार प्राप्त हुई।
 

जलवायु

  • Season

    Temperature

    14-25°C
  • Season

    Rainfall

    300-500mm
  • Season

    Sowing Temperature

    15-25°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    14-20°C
  • Season

    Temperature

    14-25°C
  • Season

    Rainfall

    300-500mm
  • Season

    Sowing Temperature

    15-25°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    14-20°C
  • Season

    Temperature

    14-25°C
  • Season

    Rainfall

    300-500mm
  • Season

    Sowing Temperature

    15-25°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    14-20°C
  • Season

    Temperature

    14-25°C
  • Season

    Rainfall

    300-500mm
  • Season

    Sowing Temperature

    15-25°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    14-20°C

मिट्टी

यह फसल बहुत तरह की मिट्टी जैसे कि रेतली, नमक वाली, दोमट और चिकनी मिट्टी में उगाई जा सकती है। अच्छे जल निकास वाली, जैविक तत्व भरपूर, रेतली से दरमियानी ज़मीन में फसल अच्छी पैदावार देती है। यह फसल नमक वाली तेजाबी ज़मीनों में भी उगाई जा सकती है पर बहुत ज्यादा पानी खड़ने वाली और खारी या नमक वाली ज़मीन इस फसल की खेती के लिए उचित नहीं होती।

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

Kufri Chandramukhi : यह जल्दी पकने वाली किस्म है और मैदानी इलाकों से पर्वतीय क्षेत्रों में बिजाई के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 110-130 दिनों में तैयार हो जाती है। इसके पौधे मध्यम ऊंचाई के, जल्दी पकने वाले और फूल हल्के गुलाबी रंग के होते हैं। इसके बीज बड़े अंडाकार आकार के, हल्के चौड़े और गुद्दा सफेद रंग का होता है। ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में, इसकी औसतन पैदावार 37.5-41 क्विंटल प्रति एकड़ और सूखे शीतोष्ण क्षेत्रों में इसकी औसतन पैदावार 100 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। 
 
Kufri Jyoti: यह दरमियाने मौसम की किस्म 130-150 दिनों में तैयार हो जाती है। यह लंबी, सीधी, जल्दी उगने वाली और मध्यम आकार की किस्म है। इसके फूल सफेद रंग के होते हैं। यह किस्म सूखे के प्रतिरोधी और अधिक उपज देने वाली किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 62.5-72 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
दूसरे राज्यों की किस्में
 
सफेद छिल्के वाली किस्में
 
Kufri Ashoka: यह फसल CPIU, शिमला द्वारा विकसित की गई है और बिहार, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में खेती करने के लिए अनुकूल है। इसका पौधा मध्यम लंबा और तना दरमियाना मोटा होता है। यह किस्म 70-80 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसके आलू बड़े, गोलाकार, सफेद और नर्म छिल्के वाले होते हैं। यह पिछेती झुलस रोग को सहने योग्य किस्म है।
 
Kufri Bahar: इस किस्म का पौधा लंबा ओर तना मोटा होता है। तनों की संख्या 4-5 प्रति पौधा होती है। इसके आलू बड़े, सफेद रंग के, गोलाकार से अंडाकार होते हैं। यह किस्म 90-100 दिनों में पक जाती है और इसकी औसतन पैदावार 100-120 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसे ज्यादा देर तक स्टोर करके रखा जा सकता है। यह पिछेती और अगेती झुलस रोग और पत्ता मरोड़ रोग की प्रतिरोधक है।
 
Kufri Pukhraj: इसके बूटे लंबे और तने संख्या में कम और दरमियाने मोटे होते हैं। आलू सफेद, बड़े, गोलाकार और नर्म छिल्के वाले होते हैं यह किस्म 70-90 दिनों में पकती है। इसकी औसतन पैदावार 160 क्विंटल प्रति एकड़ है। यह अगेती झुलस रोग की प्रतिरोधक किस्म है और नए उत्पाद बनाने के लिए उचित नहीं है।
 
Kufri Badshah: इसके पौधे लंबे और 4-5 तने प्रति पौधा होते हैं। इसके आलू गोल, बड़े से दरमियाने, गोलाकार और हल्के सफेद रंग के होते हैं। इसके आलू स्वाद होते हैं यह किस्म 90-100 दिनों में पक जाती है। यह किस्म कोहरे को सहनेयोग्य है और पिछेती, अगेती झुलस रोग की प्रतिरोधक है।
 
Kufri Sutlej: इस किस्म के पौधे घने और मोटे तने वाले होते हैं। पत्ते हल्के हरे रंग के होते हैं। आलू बड़े आकार के, गोलाकार और नर्म छिल्के वाले होते हैं। यह किस्म 90-100 दिनों में पकती है। इसकी औसतन पैदावार 160 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म खाने के लिए अच्छी और स्वादिष्ट होती है। इन आलुओं को पकाना आसान होता है। यह नए उत्पाद बनाने के लिए उचित किस्म नहीं है।
 
लाल छिल्के वाली किस्में
 
Kufri Sindhuri: यह किस्म कर्नाटका, बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर और पंजाब राज्यों में उगाने के लिए उपयुक्त है। इसकी मध्यम गोल आकार की गांठे होती हैं जिनकी गहरी लाल आंखे होती हैं। यह किस्म कुछ हद तक अगेते झुलस रोग के प्रतिरोधी और आलू के पत्ता मरोड़ रोग और पिछेते झुलस रोग को सहनेयोग्य है। यह किस्म 110-120 दिनों में पक जाती है और इसकी औसतन पैदावार 165 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Kufri Lalima:  यह किस्म बिहार और उत्तर प्रदेश राज्यों में बोने के लिए उपयुक्त है। इसकी मध्यम गोल आकार की गांठे होती हैं। यह किस्म 110-120 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 165 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म कुछ हद तक अगेते झुलस रोग और आलू के विषाणु रोग की प्रतिरोधक होती है।
प्रक्रिया के लिए उपयुक्त किस्में
 
Kufri Chipsona 1: यह किस्म बिहार और उत्तर प्रदेश में उगाने के लिए उपयुक्त है। इसकी गांठे या आलू मध्यम से बड़े आकार के लाल आंखों वाले होते हैं। फसल 90-110 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 165 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म पिछेते झुलस रोग के प्रतिरोधक और कोहरे को सहनेयोग्य है। यह किस्म चिपस बनाने और फरैंच फ्राइज़ बनाने के लिए उपयुक्त है।
 
Kufri Chipsona 2: इस किस्म के पौधे दरमियाने कद के और कम तनों वाले होते हैं इसके पत्ते गहरे हरे और फूल सफेद रंग के होते हैं। आलू सफेद, दरमियाने आकार के, गोलाकार, अंडाकार और नर्म होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 140 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह पिछेती झुलस रोग की प्रतिरोधक किस्म है। यह किस्म चिपस और फरैंच फ्राइज़ बनाने के लिए उचित है।
 
Kufri Chipsona 3: यह दरमियाने समय की किस्म 100-110 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 120-140 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Kufri Anand: यह दरमियाने समय की किस्म पिछेती झुलस रोग और कोहरा की प्रतिरोधक है। इसकी औसतन पैदावार 140-160 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Kufri Pushkar: यह दरमियाने समय की किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 120-140 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 

ज़मीन की तैयारी

खेत को एक बार 30 सैं.मी. गहरा जोतकर अच्छे ढंग से बैड बनाएं। जोताई के लिए हल और तवियों का प्रयोग करें उसके बाद 1 या 2 बार देसी हल से जोताई करें। मिट्टी को समतल करने के लिए प्रत्येक जोताई के बाद सुहागा फेरें। मिट्टी से होने वाली बीमारियों से बचाने के लिए आखिरी जोताई के समय फोरेट 10 G 5-7 किलोग्राम को मिट्टी में मिलायें। बिजाई से पहले खेत में नमी की मात्रा बनाकर रखें। बिजाई के लिए दो ढंग मुख्य तौर पर प्रयोग किए जाते हैं। 1.  मेंड़ और खालियों वाला ढंग  2. समतल बैडों वाला ढंग

बिजाई

बिजाई का समय
कम पर्वतीय क्षेत्रों (800 मीटर ऊंचाई तक)
पतझड़ी फसल के लिए : मध्य-सितंबर -  मध्य-अक्तूबर
बसंत की फसल के लिए : जनवरी-फरवरी
मध्यम पर्वतीय क्षेत्रों के लिए (800-1600 मीटर) :  मध्य-जनवरी
अधिक पर्वतीय क्षेत्रों के लिए (1600-2400 मीटर) : मार्च-अप्रैल
बहुत ज्यादा ऊंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों के लिए (2400 मीटर से ज्यादा) : अप्रैल मई के शुरू में 
 
फासला
बिजाई के लिए, पंक्ति से पंक्ति का फासला 50- 60 सैं.मी और पौधे से पौधे का फासला 20 सैं.मी. रखें। फासला आलुओं के आकार के अनुसार बदलता रहता है। यदि आलू का व्यास 2.5-3.5 सैं.मी. हो तो फासला 60x15 सैं.मी. और यदि आलू का व्यास 5-6 सैं.मी. हो तो फासला 60x40 सैं.मी. होना चाहिए।
 
बीज की गहराई
6-8 इंच गहरा गड्ढा खोदें और उसमें आलू की आंख को ऊपर की तरफ कर के बोयें।
 
बिजाई का ढंग
बिजाई के लिए, ट्रैक्टर से चलने वाली या ऑटोमैटिक बिजाई के लिए मशीन का प्रयोग करें।
 

बीज

बीज की मात्रा
बिजाई के लिए, बड़ी आंखों वाले आलुओं का प्रयोग करें। बिजाई के लिए, 12-15 क्विंटल प्रति एकड़ किलो प्रति एकड़ बीजों का प्रयोग करें। 

बीज का उपचार
सही स्त्रोत से बीज लें। बिजाई से पहले आलुओं को कोल्ड स्टोर से निकालकर 1-2 सप्ताह के लिए छांव वाले स्थान पर रखें ताकि वे अंकुरित हो जायें। आलुओं के सही अंकुरन के लिए उन्हें जिबरैलिक एसिड 1 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर एक घंटे के लिए उपचार करें। फिर छांव में सुखाएं और 10 दिनों के लिए हवादार कमरे में रखें। फिर काटकर आलुओं को मैनकोजेब 0.5 प्रतिशत घोल (5 ग्राम प्रति लीटर पानी) में 10 मिनट के लिए भिगो दें। इससे आलुओं को शुरूआती समय में गलने से बचाया जा सकता है। आलुओं को गलने और जड़ों में कालापन रोग से बचाने के लिए साबुत और काटे हुए आलुओं को 6 प्रतिशत मरकरी के घोल (टैफासन) 0.25 प्रतिशत(2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी) में डालें।
 

खाद

खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)

UREA SSP
MOP DAP
110 208 41 70

 

तत्व (किलोग्राम प्रति एकड़)

NITROGEN PHOSPHORUS POTASH
54 34 25

 

बिजाई से दो सप्ताह पहले खेत की तैयारी के समय 10 टन प्रति एकड़ रूड़ी की खाद डालें। फसल की उचित वृद्धि के लिए नाइट्रोजन 50 किलो (110 किलो यूरिया), फासफोरस 34 किलो (208 किलो सिंगल सुपर फासफेट) और पोटाश 25 किलो (41 किलो म्यूरेट ऑफ पोटाश) की मात्रा प्रति एकड़ में डालें। बिजाई के समय नाइट्रोजन का 3/4 हिस्सा और फासफोरस और पोटाश की पूरी मात्रा डालें। बाकी बचा हुआ नाइट्रोजन का 1/4 हिस्सा बिजाई से 25-30 दिन बाद जड़ों से मिट्टी लगाने के समय डालें। 
 
जड़ों के साथ मिट्टी लगाना : मिट्टी में सही हवा, पानी और तापमान बनाए रखने के लिए यह काम बहुत जरूरी है ताकि फसल का विकास अच्छा हो सके । आलुओं के अच्छे विकास के लिए पौधे की जड़ों के साथ मिट्टी लगाएं। यह काम पौधों के 15-20 सैं.मी. कद होने पर करें। यदि जरूरत पड़े तो पहली बार मिट्टी लगाने के दो सप्ताह बाद दूसरी बार फिर मिट्टी लगाएं। यह क्रिया हाथों से या कसी की सहायता से की जा सकती है या बड़े क्षेत्रों में मोल्ड बोर्ड हल की सहायता से की जा सकती है।

पानी में घुलनशील खादें : आलुओं की अधिक पैदावार के लिए 13:0:45 की 2 किलो और मैगनीश्यिम ई डी टी ए 1000 ग्राम प्रति एकड़ की स्प्रे करें। बीमारियों के हमले को रोकने के लिए फंगसनाशी प्रॉपीनेब 3 ग्राम प्रति लीटर पानी डालें।
आलुओं का आकार और गिणती बढ़ाने के लिए हयूमिक एसिड (12 प्रतिशत) 3 ग्राम + एम ए पी 12:61:00 की 8 ग्राम या डी ए पी 15 ग्राम प्रति लीटर की स्प्रे पौधे की वृद्धि के समय करें।
 

 

 

फसली चक्र

लाहौल स्पीति क्षेत्रों में अधिक उपज के लिए आलू का राजमांह, /मटर/फ्रांस बीन्स के साथ अंतर फसली किया जाता है।

सिंचाई

आलू की फसल के रोपण के लिए मुख्यत: 10-15 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है बीज अंकुरण के बाद सिंचाई शुरू करें। हल्की मिट्टी में 7-10 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है और भारी मिट्टी में 12-15 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। अक्तूबर-नवंबर महीने में 7-10 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें। दिसंबर-जनवरी महीने में 10-15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई का प्रयोग करें। ज्यादा सिंचाई करने से परहेज़ करें इससे जड़ गलन की बीमारी का खतरा रहता है। कटाई के 15 दिन पहले सिंचाई बंद कर दें।

खरपतवार नियंत्रण

आलुओं के अंकुरन से पहले, पैंडीमैथालीन 1-1.5 लीटर प्रति एकड़ या मैटरीबिउज़िन 70 डब्लयु पी 200 ग्राम प्रति एकड़ बिजाई के बाद 3-5 दिनों के अंदर डालें। यदि नदीनों का हमला कम हो तो बिजाई के 25 दिन बाद मैदानी इलाकों में और 40-45 दिनों के बाद पहाड़ी इलाकों में जब फसल 8-10  सैं.मी.कद की हो जाये तो नदीनों को हाथों से उखाड़ दें। नदीनों के हमले को कम करने के लिए और मिट्टी की नमी को बचाने के लिए मलचिंग का तरीका भी प्रयोग किया जा सकता है, जिसमें मिट्टी पर धान की पराली और खेत के बची-कुची सामग्री बिछायी जा सकती है। बिजाई के 20-25 दिन बाद मलचिंग को हटा दें।

पौधे की देखभाल

चेपा
  • हानिकारक कीट और रोकथाम
चेपा : यह कीट पौधों का रस चूसते हैं और पौधे को कमज़ोर बनाते हैं। गंभीर हमले से पौधे के पत्ते मुड़ जाते हैं और पत्तों का आकार बदल जाता है। प्रभावित हिस्सों पर काले रंग की फंगस लग जाती है।
 
चेपे के हमले को चैक करने के लिए अपने इलाके के समय अनुसार पत्तों को काट दें। यदि चेपे या तेले का हमला दिखे तो इमीडाक्लोप्रिड 50 मि.ली. या थायामैथोक्सम 40 ग्राम प्रति एकड़ 150 लीटर पानी की स्प्रे करें।
 
कुतरा सुंडी
कुतरा सुंडी : यह सुंडी पौधे को अंकुरन के समय काटकर नुकसान पहुंचाती हैं यह रात के समय हमला करती है, इसलिए इसे रोकना मुश्किल है।
 
इसके नुकसान को कम करने के लिए रूड़ी की खाद का प्रयोग करें। यदि इसका हमला दिखे तो क्लोरपाइरीफॉस 20 प्रतिशत ई सी 2.5 मि.ली. को प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें। पौधों पर फोरेट 10 जी 4 किलो प्रति एकड़ डालें और मिट्टी से ढक दें।
 
यदि तंबाकू सुंडी का हमला दिखे तो रोकथाम के लिए क्विनलफॉस 25 ई सी 20 मि.ली. प्रति 10 लीटर पानी की स्प्रे करें।
 
पत्ते खाने वाली सुंडी
पत्ते खाने वाली सुंडी : यह सुंडी पत्ते खाकर फसल का को नुकसान पहुंचाती है।
 
यदि खेत में इसका हमला दिखे तो क्लोरपाइरीफॉस या प्रोफैनाफॉस 2 मि.ली. या लैंबडा सायहैलोथ्रिन 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें।
 
 
लाल भुंडी
लाल भुंडी : यह सुंडी और कीड़ा पत्ते खाकर फसल का नुकसान करती है।
 
इनके हमले के शुरूआती समय में इनके अंडे इक्ट्ठे करके खेत से दूर नष्ट कर दें। कार्बरिल 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें।
 
सफेद सुंडी
सफेद सुंडी : यह कीड़ा मिट्टी में रहता है और जड़ों, तनों और आलुओं को खाता है। इससे प्रभावित पौधे सूखे हुए दिखाई देते हैं और आलुओं में सुराख हो जाते हैं।
 
इसे रोकने के लिए बिजाई के समय कार्बोफिउरॉन 3 जी 12 किलो या थिमट 10 जी 7 किलो प्रति एकड़ डालें।
 
आलू का कीड़ा
आलू का कीड़ा : यह कीड़ा खेत और स्टोर में पड़े आलुओं पर हमला करता हैं। यह आलुओं में छेद करके इसका गुद्दा खाता है।
 
बीज सेहतमंद और बीमारी मुक्त प्रयोग करें। पूरी तरह गली रूड़ी की खाद ही प्रयोग करें। यदि हमला दिखे तो कार्बरिल 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें।
 
अगेता झुलस रोग
  • बीमारियां और रोकथाम
अगेता झुलस रोग : इससे नीचे के पत्तों पर धब्बे पड़ जाते हैं। यह बीमारी मिट्टी में स्थित फंगस के कारण आती है। कम तापमान और अधिक नमी होने के समय यह बीमारी तेजी से फैलती है।
 
खेत में एक ही फसल बार बार ना लगाएं। बदल बदल कर फसलें उगाएं। यदि हमला दिखे तो मैनकोजेब 30 ग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 30 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर बिजाई के 45 दिनों के बाद 10 दिनों के फासले पर 2-3 बार स्प्रे करें।
 
आलुओं पर काले धब्बे
जड़ों में कालापन : इस बीमारी से आलुओं पर काले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं और पौधे सूखते दिखाई देते हैं। प्रभावित आलुओं के अंकुरन के समय आंखों पर काला और भूरा रंग आ जाता है।
 
बिजाई के लिए बीमारी मुक्त बीज प्रयोग करें। बिजाई से पहले आलुओं को मरकरी के घोल से उपचार करें। एक फसल को बार बार ना उगाएं। यदि खेत को दो वर्षों के लिए खाली छोड़ दिया जाये तो बीमारी के खतरे को कम किया जा सकता है।
 
पिछेता झुलस रोग
पिछेता झुलस रोग : इस बीमारी का हमला  पत्तों के शिखरों और निचले भाग पर देखा जा सकता है। प्रभावित पत्तों पर बेढंगे आकार के धब्बे दिखते हैं और धब्बों के आस पास सफेद पाउडर बन जाता है। ज्यादा हमले की सूरत में प्रभावित पौधों की नज़दीक की मिट्टी में सफेद पाउडर दिखाई देता है। यह बीमारी बारिश के बाद और बादलवाई वाले मौसम में अधिक फैलती है। यदि इसे ना रोका जाये तो 50 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है।
 
बिजाई के लिए सेहतमंद और बीमारी मुक्त बीज प्रयोग करें। यदि हमला दिखे तो प्रॉपीनेब 40 ग्राम प्रति 15 लीटर पानी की स्प्रे करें।
 
आलुओं पर काली परत
आलुओं पर काली परत : यह बीमारी खेत और भंडारन दोनों में आती है। कम नमी वाली स्थिति में यह बीमारी तेजी से फैलती है। प्रभावित आलुओं पर हल्के भूरे से गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं।
 
खेत में सिर्फ अच्छी तरह से गली हुई रूड़ी की खाद का ही प्रयोग करें। बीमारी रहित बीज का प्रयोग करें। बीज को ज्यादा गहराई में ना बोयें। एक ही फसल बार बार ना उगाएं। बिजाई से पहले बीजों को एमीसन 6 के 0.25 प्रतिशत (2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी) घोल से 5 मिनट के लिए उपचार करें।
 
उखेड़ा रोग
उखेड़ा रोग : इस बीमारी से फसल की वृद्धि रूक जाती है और पत्ते हल्के भूरे रंग के हो जाते हैं।
 
बिजाई के लिए सेहतमंद और बीमारी रहित बीज का प्रयोग करें। पौधे के प्रभावित हिस्सों को इक्ट्ठे करके नष्ट कर दें। बिजाई से पहले बीजों को 5 मि.ली. गहरे कट लगा कर सैपटोकेन 2 ग्राम प्रति लीटर पानी (0.02 प्रतिशत) से 30 मिनट के लिए उपचार करें।
 
नर्म होकर गलना
नर्म होकर गलना : इस बीमारी से पौधे के निचले हिस्से का रंग काला और प्रभावित आलुओं का रंग भूरा हो जाता है और पौधा पीले रंग का नज़र आता है। ज्यादा हमले की स्थिति में पौधा सूखकर नष्ट हो जाता है। प्रभावित आलुओं पर लाल धब्बे नज़र आते हैं।
 
बिजाई के लिए सेहतमंद और बीमारी रहित बीज का प्रयोग करें। बिजाई से पहले बीज को बोरिक एसिड 3 प्रतिशत ( 300 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी) से 30 मिनट के लिए उपचार करें और छांव में सुखाएं। भंडारण से पहले एक बार फिर बोरिक एसिड से उपचार करें। बीमारी की उचित रोकथाम के लिए मैदानी इलाकों में बीजों को कार्बेनडाज़िम 1 प्रतिशत से 15 मिनट के लिए उपचार करें।
 
चितकबरा रोग
चितकबरा रोग : इससे पत्ते पीले हो जाते हैं और पौधे का विकास रूक जाता है। आलुओं का आकार और गिणती कम हो जाती है। 
 
बिजाई के लिए सेहतमंद और बीमारी रहित बीज का प्रयोग करें। खेत की लगातार जांच करें और प्रभावित पौधों और हिस्सों को तुरंत नष्ट कर दें। मैटासिसटोक्स या रोगोर 300 मि.ली. को प्रति 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
 

फसल की कटाई

डंठलों की कटाई : आलुओं को विषाणु से बचाने के लिए यह क्रिया बहुत जरूरी है और इससे आलुओं का आकार और गिणती भी बढ़ जाती है। इस क्रिया में सही समय पर पौधे को ज़मीन के नज़दीक से काट दिया जाता है। इसका समय अलग अलग स्थानों पर अलग है और चेपे की जनसंख्या पर निर्भर करता है। उत्तरी भारत में यह क्रिया दिसंबर महीने में की जाती है।
पत्तों के पीले होने और ज़मीन पर गिरने से फसल की पुटाई की जा सकती है। फसल की डंठलों की कटाई के 15-20 दिन बाद ज़मीन की नमी सही होने से उखाड़ लें। पुटाई ट्रैक्टर और आलू उखाड़ने वाली मशीन से या कही से की जा सकती है। पुटाई के बाद आलुओं को सुखाने के लिए ज़मीन पर बिछा दें और 10-15 दिनों तक रखें ताकि उनपर छिल्का आ सके। खराब और सड़े हुए आलुओं को बाहर निकाल दें।
 

कटाई के बाद

सब से पहले आलुओं को छांट लें और खराब आलुओं को हटा दें। आलुओं को व्यास और आकार के अनुसार  बांटे। बड़े आलू चिपस बनने के कारण अधिक मांग में रहते हैं। आलुओं को 4-7 डिगरी सैल्सियस तापमान और सही नमी पर भंडारण करें।