जौं की खेती

आम जानकारी

जौं राजस्थान में सबसे ज्यादा उगाने वाली दूसरी फसल है। इस में सूखे की उच्च प्रतिरोधक क्षमता होती है। जौं का उपयोग मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं के द्वारा भी किया जाता है।इसका प्रयोग बीयर और आयुर्वेदिक दवाइयां आदि बनाने के लिए किया जाता है। राजस्थान में जौं के आटे को गेहूं और चने के आटे में मिक्स करके मिस्सी रोटी बनाई जाती है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार जौं के मुख्य उत्पादक राज्य हैं। 
हिमाचल प्रदेश में 2004-05 में 9.75 हज़ार एकड़ में जौं की खेती की गई और औसतन उपज 6 क्विंटल प्रति एकड़ प्राप्त हुई।
 

कटाई के बाद

जौं, सिरका और शराब बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है।

फसल की कटाई

फसल किस्म के अनुसार मार्च के आखिर और अप्रैल में पक जाती है। फसल को ज्यादा पकने से बचाने के लिए समय के अनुसार कटाई करें। फसल में नमी 25-30 प्रतिशत होने पर फसल की कटाई करें। कटाई के लिए दांतों वाली दरांती का प्रयोग करें। कटाई के बाद सूखे स्थान पर भंडारण करें।

झूठी कांगियारी : यह मिट्टी से पैदा होने वाली बीमारी है। इसका संक्रमण हवा के द्वारा फैलता है। ठंडे और नमी वाले मौसम में ये पौधे पर फूल निकलने की अवस्था में तेजी से हमला करती है।
इस बीमारी का ज्यादा हमला दिखने पर कीटनाशी कार्बोक्सिन 75 डब्लयु पी 2.5 ग्राम या कार्बेनडाज़िम 2.5 ग्राम या टैबूकोनाज़ोल 1.25 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें। यदि इसका हमला मध्यम हो तो ट्राइकोडरमा विराइड 4 ग्राम से या सिफारिश की गई खुराक कार्बोक्सिन 0.6 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें।
 
धारीदार जंग

पीली धारीदार कुंगी : इस बीमारी की रोकथाम के लिए बीमारी की प्रतिरोधक किस्मों का प्रयोग करें। अंतर फसली और मिश्रित फसली अपनायें। नाइट्रोजन का अत्याधिक प्रयोग ना करें। जब इसके लक्षण दिखें तो सल्फर 12-15 किलो का प्रति एकड़ में छिड़काव करें या मैनकोजेब 2 ग्राम या प्रोपीकोनाज़ोल 25 ई सी,1 मि.ली को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।

पत्तों पर धब्बे
  • बीमारियां और रोकथाम
पत्तों पर सफेद धब्बे : पत्ते, छोटे भाग की टहनियां, तना और फूल के भागों पर सलेटी सफेद रंग के धब्बे नज़र आते हैं जो कि बाद में काले रंग की फंगस की तरह दिखते हैं। इसके कारण पत्ते और अन्य भाग सूख जाते हैं।
इस बीमारी का हमला दिखने पर घुलनशील सल्फर 2 ग्राम या कार्बेनडाज़िम 200 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। ज्यादा हमला होने पर प्रोपीकोनाज़ोल 1 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
 
थ्रिप्स

तेला : इन्हें ज्यादातर सूखे मौसम में पाया जाता है। थ्रिप्स के हमले की जांच के लिए नीले चिपकने वाले कार्ड 6-8 प्रति एकड़ में लगाएं और हमले को कम करने के लिए वर्टीसीलियम लेकानी 5 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर भी स्प्रे करें। यदि तेले का ज्यादा हमला दिखे तो इमीडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल या फिप्रोनिल 1 मि.ली. या एसीफेट 75 प्रतिशत डब्लयु पी 1.0 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें या थाइमैथोक्सम 25 प्रतिशत डब्लयु जी 1.0 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़कें।

घास का टिड्डा
घास का टिड्डा : छोटे और नये कीट पत्तों को अपना भोजन बनाते हैं। छोटे कीट गेहुंआ रंग के होते हैं जबकि प्रौढ़ कीट हरे भूरे रंग के होते हैं इनके शरीर पर धारियां बनी होती हैं।
कटाई के बाद पौधे के बाकी बचे सारे भाग को निकाल दें और खेत में अच्छी तरह से सफाई रखें। गर्मियों में कटाई के बाद एक बार जोताई भी करें, ताकि मिट्टी में मौजूद अंडे बाहर निकल आयें और धूप में नष्ट हो जायें। यदि इसका हमला दिखे तो कार्बरिल 50 डब्लयु पी 400 ग्राम की प्रति एकड़ में स्प्रे करें।
 
बालियों का कीट: ये कीट दुधिया अवस्था में हमला करते है। ये कीट बालियों को अपना भोजन बनाते हैं, जिससे दाने खाली रह जाते हैं।
इन कीटों को नियंत्रित करने के लिए दिन के समय रोशनी यंत्र रखें। फूल निकलने से लेकर बालियां निकलने की अवस्था तक फेरोमोन यंत्र 5 प्रति एकड़ में लगाएं। ज्यादा हमला होने पर मैलाथियॉन या कार्बरिल 1 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
 
चेपा

चेपा : चेपे के प्रबंधन के लिए क्राइसोपरला प्रीडेटर 4-6 हज़ार या 50 ग्राम नीम के घोल को प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रयोग करें। यदि बादलवाई के मौसम में चेपे का हमला दिखे तो थाइमैथोक्सम 80 ग्राम या इमीडाक्लोप्रिड 60 मि.ली. को 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें। 

पतली सुंडी
बदबूदार कीड़ा: ये कीट हल्के भूरे रंग के होते हैं और इनकी लार्वा की अवस्था 1-4 वर्ष में पूरी होती है। ये पौधे के तने को नुकसान पहुंचाते हैं और तना सफेद रंग का हो जाता है। 
 
रोकथाम : इस कीट के लिए कोई कीटनाशी उपलब्ध नहीं है लेकिन इनके अंकुरण से पहले क्रूसर मैक्स जिसमें थाइमैथोक्सम होता है, को 325 मि.ली से 100 किलो बीज का उपचार करें ।
 

पौधे की देखभाल

सैनिक सुंडी
  • हानिकारक कीट और रोकथाम
सैनिक सुंडी : इसका लार्वा हल्के हरे रंग का होता है, जो बाद में पीले रंग का हो जाता है। ये किनारे से पत्तों को खाती हैं और कभी कभी पूरा ही नष्ट कर देती हैं।
 
रोकथाम : इसके लक्षण जब भी दिखें तो मैलाथियॉन 5 प्रतिशत 10 किलो प्रति एकड़ में छिड़कें या क्विनलफॉस 200 मि.ली. प्रति एकड़ में स्प्रे करें। कटाई के बाद नदीनों और जड़ के बचे कुचे भाग को खेत में से निकाल दें।
 

खाद

खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)

UREA SSP MOP
36 50 -

 

तत्व (किलोग्राम प्रति एकड़)

NITROGEN PHOSPHORUS POTASH
16 8 As per soil test results

 

बीज बोने से 1 महीना पहले अच्छी तरह से गली हुई रूड़ी की खाद या गाय का गला हुआ गोबर 4-6 टन प्रति एकड़ में डालें।
नाइट्रोजन 16 किलो (यूरिया 36 किलो), फासफोरस 8 किलो (एस एस पी 50 किलो) प्रति एकड़ में डालें। 
फासफोरस की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन का एक तिहाई हिस्सा बिजाई के समय डालें। बाकी बची नाइट्रोजन के दो हिस्से, एक सिंचाई के समय और दूसरा फूल आने के समय डालें।
 

 

 

खरपतवार नियंत्रण

अच्छी फसल और अच्छी पैदावार के लिए शुरू में ही नदीनों की रोकथाम बहुत जरूरी है। इस फसल में चौड़े और बारीक पत्तों वाले नदीने आते हैं। चौड़े पत्तों वाले नदीनों की रोकथाम के लिए, खेतों में नदीन आने के बाद 250 ग्राम 2, 4-डी 100 लीटर पानी में मिलाकर बीजने के 30-35 दिनों के बाद प्रति एकड़ के हिसाब से स्प्रे करें।
 
बारीक पत्तों जैसे नदीनों की रोकथाम के लिए आइसोप्रोटिउरॉन 75 प्रतिशत डब्लयु पी 500 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी या पैंडीमैथालीन 30 प्रतिशत ई सी 1.4 लीटर प्रति 100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें।
 

सिंचाई

जौं को दो से तीन सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। नए पत्ते निकलने के समय, पौधे के विकास के समय और बालियां निकलने के समय पानी की कमी ना होने दें। इन अवस्थाओं पर पानी की कमी पैदावार में बहुत नुकसान करती है। इसकी अच्छी पैदावार के लिए बीज लगाने से लेकर दुधिया अवस्था तक मिट्टी के अंदर जड़ों वाले भाग में 50 प्रतिशत तक नमी बनाएं रखें। 
 
पहली सिंचाई बिजाई के 25-30 दिनों के बाद जड़ें बनने के समय करें। दूसरी सिंचाई फूलों के आने पर करें।
 

बीज

बीज की मात्रा
सिंचाई वाले क्षेत्रों में बीज की मात्रा 41-42 किलोग्राम प्रति एकड़ और बारानी क्षेत्रों में बीज की मात्रा 40-45 किलोग्राम प्रति एकड़ का प्रयोग करें। लेकिन विमल किस्मों के लिए, बीज की मात्रा 32-35 किलो प्रति एकड़ में प्रयोग करें।
 
बीज का उपचार
क्षारीय और लवण वाले क्षेत्रों में, बिजाई से पहले बीज को 24 घंटे के लिए सामान्य तापमान पर पानी में भिगो कर रखें। फंगस से बचाने के लिए, विटावैक्स या थीरम 3 ग्राम प्रति किलो बीज का उपचार करें। बीज को दीमक से बचाने के लिए 250 मि.ली. क्लोरपाइरीफॉस को 5 लीटर पानी में मिलाकर उपचार करना चाहिए।
 

बिजाई

बिजाई का समय
बीज की बिजाई के लिए अंत अक्तूबर-नवंबर का पहला सप्ताह उपयुक्त होता है। सूखे और कम बारिशों वाले हालातों में इसकी बिजाई दिसंबर के अंत में की जाती है।
 
फासला
बिजाई के लिए पंक्ति से पंक्ति का फासला 22 सैं.मी. होना चाहिए। यदि बिजाई देरी से की गई हो तो 18-20 सैं.मी. फासला रखें।
 
बीज की गहराई
सिंचाई वाले क्षेत्रों में गहराई 3-5 सैं.मी. रखें और बारानी क्षेत्रों में 5-8 सैं.मी. रखें।
 
बिजाई का ढंग
इसकी बिजाई बुरकाव ढंग और मशीन द्वारा की जाती है।
 

ज़मीन की तैयारी

खेत की अच्छे से जोताई करें और नदीनों को नष्ट करें। मिट्टी में नमी की मात्रा बनाए रखने के लिए तवियों से 2-3 बार जोताई करें। तवियों से जोताई करने के बाद, मिट्टी को समतल बनाने के लिए सुहागा फेरें। पहले बोयी गई फसल की पराली को हाथों से उठाकर नष्ट कर दें ताकि दीमक का हमला ना हो सके।

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

Harit (H.B.L.-276): यह छोटे कद की, बीमारी की प्रतिरोधक और अधिक उपज देने वाली किस्म है। इसके दाने बड़े और रसदार होते हैं। यह किस्म पीली कुंगी, कांगियारी और सूखे के मौसम के प्रतिरोधी है। यह बारानी क्षेत्रों के मध्यम और उच्च क्षेत्रों में बिजाई के लिए उपयुक्त है। यह किस्म गर्मियों के मौसम में उगाने के लिए अनुकूल है। बारानी क्षेत्रों और लाहौल स्पीति जिले में इसकी औसतन पैदावार 10-12.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Vimal (H.B.L-113): यह अधिक उपज वाली किस्म है जो कि मध्यम और उच्च क्षेत्रों में बिजाई के लिए उपयुक्त है। यह किस्म पीली कुंगी रोग के प्रतिरोधक है। इसकी औसतन पैदावार 10-12.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Dolma:  यह अधिक उपज वाली और मध्यम कद की किस्म है। इसके दाने सख्त, रसदार, चमकीले और उच्च प्रोटीन युक्त होते हैं। यह किस्म पीली कुंगी, कांगियारी और कुछ हद तक सूखे के प्रतिरोधी है। यह किस्म गर्मियों और सर्दियों में मध्य और उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में बिजाई के लिए उपयुक्त है। इसकी औसतन पैदावार 7.5-8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

Sonu (H.B.L-87):  यह किस्म मध्यम और उच्च क्षेत्रों (1500 मीटर ऊंचाई) में उगाने के लिए उपयुक्त है। इसके दाने मोटे और हल्के पीले रंग के होते हैं। यह किस्म पीली कुंगी के प्रतिरोधक है। इसकी औसतन पैदावार 10-12.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Gopi (H.B.L.-316): इस किस्म की बारानी क्षेत्रों के कम और मध्यम पर्वतीय क्षेत्रों में बिजाई के लिए सिफारिश की गई है। यह किस्म पीली कुंगी और तेले के प्रतिरोधक है। इस किस्म के दाने मोटे, चमकदार और पीले रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 10-12.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Gokul (H.B.L.-391): यह किस्म सभी तरह की कुंगी की प्रतिरोधक किस्म है। इस किस्म की मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में उगाने के लिए सिफारिश की गई है। यह किस्म 170 दिनों में तैयार हो जाती है। इस के पीले रंग के दाने होते हैं और इसकी औसतन पैदावार 12-13 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
दूसरे राज्यों की किस्में
 
RS 6: यह किस्म 130-135 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह बारानी इलाकों के साथ सिंचित इलाकों में भी उगाने के लिए अनुकूल है। यह किस्म बीयर बनाने में भी उपयोगी है। इसकी औसतन पैदावार 14-16 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
RBD 1: यह किस्म राजस्थान के सिंचित क्षेत्रों में उगाने के लिए अनुकूल है। इसकी औसतन पैदावार 12-14 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Kedar: यह अधिक उपज वाली छोटे कद की किस्म IARI, नई दिल्ली द्वारा जारी की गई है। यह किस्म पिछेती बिजाई के लिए अनुकूल है। यह कुंगी बीमारी की प्रतिरोधी किस्म है।
 
Jyoti: यह किस्म कानपुर द्वारा विकसित की गई है। यह 120-125 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह सिंचित क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त है। इसकी औसतन पैदावार 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Karan 201, 264: यें किस्में समस्यात्मक मिट्टी में उगाने के लिए उपयुक्त है। इनकी औसतन पैदावार क्रमश 15 क्विंटल और 18 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
RD 2786: यह सिंचित क्षेत्रों में समय पर बोने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह किस्म 111 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 20 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
RD 2794: यह सिंचित क्षेत्रों में समय पर बोने के लिए उपयुक्त किस्म है। इसे क्षारीय और खारी वाली मिट्टी में भी इसकी खेती की जा सकती है। यह 121 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
RD 2552, RD 2592
 
RD 2503, RD 2624
 
RD 2508, RD 2660
 
RD 2035, RD 2668
 
RD 2052, RD 2715
 
NP-13, NP 103, RS-17, RD 31, RD 57, Bilara 2
 
RD 2035, BCU 73 or Rekha, DWRUB 64, RD 2503, DWRB 73
 
PL 751, NARENDRA BARLEY 2, GETANJALI (K1149)
 

जलवायु

  • Season

    Temperature

    12-16°C
    30-32°C
  • Season

    Rainfall

    300-600mm
  • Season

    Sowing Temperature

    12-16°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30-32°C
  • Season

    Temperature

    12-16°C
    30-32°C
  • Season

    Rainfall

    300-600mm
  • Season

    Sowing Temperature

    12-16°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30-32°C
  • Season

    Temperature

    12-16°C
    30-32°C
  • Season

    Rainfall

    300-600mm
  • Season

    Sowing Temperature

    12-16°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30-32°C
  • Season

    Temperature

    12-16°C
    30-32°C
  • Season

    Rainfall

    300-600mm
  • Season

    Sowing Temperature

    12-16°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30-32°C

मिट्टी

जौं की खेती कई प्रकार की मिट्टी जैसे नर्म, हल्की और खारी वाली मिट्टी में की जा सकती है। भारी दोमट से रेतली मिट्टी जो कि अच्छे जल निकास वाली और हल्की उपजाऊ हो, में भी उगाने पर अच्छे परिणाम देती है। तेजाबी मिट्टी में जौं की खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती।