हरयाणा में जई की खेती

आम जानकारी

जई एक महत्तवपूर्ण अनाज और चारे की फसल है। जई की खेती गेहूं की खेती के बिल्कुल समान होती है। यह विशेष कर संयमी और उप-उष्ण कटबंधीये क्षेत्रों में उगाई जाती है। इसकी पैदावार ज्यादा ऊंचाई वाले तटीय क्षेत्रों में भी बढ़िया होती है। यह अपने सेहत संबंधी फायदों के कारण काफी प्रसिद्ध है। जई से तैयार किया गया खाना बहुत प्रसिद्ध है। जई में प्रोटीन और रेशे की भरपूर मात्रा होती है। यह भार घटाने, ब्लड प्रैशर को कंटरोल करने और बीमारीयों से लड़ने की शक्ति को बढ़ाने में भी मदद करता है।

जलवायु

  • Season

    Temperature

    20-30°C
  • Season

    Rainfall

    80-100mm
  • Season

    Sowing Temperature

    20-25°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    25-30°C
  • Season

    Temperature

    20-30°C
  • Season

    Rainfall

    80-100mm
  • Season

    Sowing Temperature

    20-25°C
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    Harvesting Temperature

    25-30°C
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    Temperature

    20-30°C
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    Rainfall

    80-100mm
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    Sowing Temperature

    20-25°C
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    Harvesting Temperature

    25-30°C
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    Temperature

    20-30°C
  • Season

    Rainfall

    80-100mm
  • Season

    Sowing Temperature

    20-25°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    25-30°C

मिट्टी

यह हर तरह की मिट्टी में उगाई जाती है। अच्छे जल निकास वाली चिकनी रेतली मिट्टी, जिस में जैविक तत्व हों, जई की खेती के लिए उचित मानी जाती है। जई की खेती के लिए 5-6.6 pH वाली मिट्टी बढ़िया होती है।

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

Palampur-1: यह दरमियाने मौसम की किस्म है, जब इसके 50 % फूल निकलते हैं तब इसका कद 115 सैं.मी. तक पहुंच जाता है| यह किसम 190 दिनों में पक जाती है| इसके पत्ते बड़े होते है जिनका रंग गहरा हरा होता है| इसकी औसतन पैदावार 208 क्विंटल प्रति एकड़ होती है|
 
Kent: यह भारत के सारे इलाकों में उगाने योग्य किस्म है। इसके पौधे की औसतन ऊंचाई 75-80 सैं.मी. है| यह किसम 125 दिनों में फूल देना शुरू कर देती है| यह गर्दन-तोड़, कुंगी और झुलस रोग की प्रतिरोधी किस्म है| इसके हरे चारे की औसतन पैदावार 150 क्विंटल प्रति एकड़ होती है| यह किस्म 180 दिनों में तैयार हो जाती है|
 
दूसरे राज्यों की किस्में
 
Haryana Javi-114: यह अगेती बिजाई वाली किस्म है। यह किस्म 1974 में CCS HAU, हिसार द्वारा जारी की गई है। यह किस्म पूरे भारत में उगाने के लिए उपयुक्त है। यह किस्म गर्दन तोड़ के प्रतिरोधी है। यह दोहरी कटाई के लिए उपयुक्त है। इसकी हरे चारे की औसतन पैदावार 50-230 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
OL-9: यह पंजाब के सारे सिंचित इलाकों में उगाने योग्य किस्म है। इसके बीज दरमियाने आकार के होते हैं। इसकी दानों के तौर पर पैदावार 7 क्विंटल और चारे के तौर पर औसतन पैदावार 230 क्विंटल प्रति एकड़ है।
 
Harita (RO 19): यह किस्म 2007 में MPKV, राहुरी द्वारा जारी की गई है। यह किस्म दोहरी कटाई के लिए उपयुक्त है। इसकी हरे चारे की औसतन पैदावार 200 क्विंटल और सूखे चारे की पैदावार 40 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म पत्तों के झुलस रोग के प्रतिरोधी है।
 
Bundel Jai 2004 (JHO-2000-4): यह किस्म 2002 में IGFRI,  झांसी द्वारा जारी की गई है। यह उत्तर पूर्वी और उत्तर पश्चिमी क्षेत्रों में उगाने के लिए अनुकूल है। यह एक कटाई के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके हरे चारे की औसतन पैदावार 200 क्विंटल और सूखे चारे की पैदावार 40 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म तना गलन, कुंगी, पत्तों के ऊपरी धब्बा रोग, पत्तों के झुलस रोग और जड़ गलन को सहनेयोग्य है।
 
OL 125: यह 1995 में PAU, लुधियाणा द्वारा जारी की गई है। यह किस्म उत्तर पश्चिमी और केंद्रीय क्षेत्रों में खेती करने के लिए उपयुक्त है। यह एक कटाई और दोहरी कटाई के लिए उपयुक्त किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 240 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। 
 
(Bundel Jai 851) JHO 851 और OL 529 भी जई की उपयुक्त किस्में हैं।
 
OL-10: यह पंजाब के सारे सिंचित इलाकों में उगाने योग्य किस्म है। इसके बीज दरमियाने आकार के होते हैं। इसकी चारे के तौर पर औसतन पैदावार 270 क्विंटल प्रति एकड़ है।
 
Brunker-10: यह तेजी से बढ़ने वाली अच्छी, छोटे और तंग आकार के नर्म पत्तों वाली किस्म है। यह सोके की प्रतिरोधक है। यह पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, और उत्तर प्रदेश के इलाकों में उगाई जाती है।
 
HFO-114: यह जई उगाने वाले सारे इलाकों में उगाई जा सकती है। यह 1974 में हिसार एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, हिसार की तरफ से जारी की गई। यह किस्म लंबी और भुरड़ रोग की रोधक है। इसके बीज मोटे होते हैं और इसके दानों की औसतन पैदावार 7-8 क्विंटल प्रति एकड़ है।
 
Algerian: यह किस्म सिंचित इलाकों में उगाने योग्य किस्म है। पौधे का औसतन कद 100-120 सैं.मी. होता है। इसका शुरूआती विकास मध्यम होता है और पत्ते हल्के हरे रंग के होते हैं।
 
OS-6: यह भारत के सभी इलाकों में उगाई जा सकती है। इसकी चारे के तौर पर औसतन पैदावार 210 क्विंटल प्रति एकड़ है।
 
Bundel Jai 851: यह भारत के सभी इलाकों में उगाई जा सकती है। इसकी हरे चारे के तौर पर औसतन पैदावार 188 क्विंटल प्रति एकड़ है।
 

ज़मीन की तैयारी

खेत को नदीन मुक्त बनाने के लिए अच्छी तरह जोताई करें। अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए 6-8 बार जोताई करें। जई की फसल जौं और गेहूं की फसल के मुकाबले ज्यादा pH वाली मिट्टी को सहन कर सकती हैं। जई की फसल को बीजों के द्वारा उगाया जाता है।

बिजाई

बिजाई का समय
अक्तूबर के दूसरे से आखिरी सप्ताह का समय बिजाई के लिए उचित माना जाता है।

फासला
कतारों में 25 सैं.मी. का फासला रखें।

बीज की गहराई
बीज को 3-4 सैं.मी. गहराई पर बोयें|
 
बिजाई का ढंग
बीज ज़ीरो टिल्लर टिलेज़ मशीन या बिजाई वाली मशीन से की जा सकती है।
 

खाद

खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)

UREA SSP MOP
70 100 -

 

तत्व (किलोग्राम प्रति एकड़)

NITROGEN PHOSPHORUS POTASSIUM
16 16 -

 

ज़मीन की तैयारी के समय, खेत में रूड़ी की खाद डालें। नाइट्रोजन 16 किलो (70 किलो यूरिया) और फासफोरस 16 किलो (सिंगल सुपर फासफेट 100 किलो) प्रति एकड़ में डालें। नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फासफोरस की पूरी मात्रा बिजाई के समय डालें। बाकी बची नाइट्रोजन, बिजाई के 30-40 दिन के बाद डालें।

 

 

सिंचाई

जई मुख्य तौर पर बारानी क्षेत्रों की फसल के तौर पर उगाई जाती है| यदि इसे सिंचाई वाले क्षेत्रों में उगाया जाये तो बिजाई के 22-25 दिनों के फासले पर दो बार सिंचाई करें।

खरपतवार नियंत्रण

यदि पौधे सही ढंग से खड़े हों तो नदीनों की रोकथाम की जरूरत नहीं होती है। जई की फसल में नदीन कम पाए जाते हैं। नदीनों को निकालने के लिए कसी से 1-2 गोडाई करें।

पौधे की देखभाल

चेपा
  • हानिकारक कीट और रोकथाम
चेपा: यह जई की फसल का मुख्य कीट है। यह पौधे के सैलों का रस चूस लेता है। इससे पत्ते मुड़ जाते हैं और इन पर धब्बे पड़ जाते हैं।
इन के हमले को रोकने के लिए डाइमैथोएट 30 ई सी 0.03 % का प्रयोग करें। स्प्रे करने के 10-15 दिनों के बाद जई की फसल को चारे के तौर पर पशुओं को ना डालें।
 
पत्तों पर काले धब्बे
  • बीमारीयां और रोकथाम
पत्तों पर काले धब्बे: इससे फफूंदी सैलों में अपने आप पैदा हो जाती है। पौधों के शिखरों से कोंडिओफोरस स्टोमैटा के बीच में ही एक सिंगल राह बना लेते हैं। यह फंगस भूरे रंग से काले रंग की हो जाती है। शुरूआती बीमारी पत्तों के शिखरों से आती है और दूसरी बार यह बीमारी हवा द्वारा सुराखों में फैलती है। इस बीमारी की रोकथाम के लिए बीज का उपचार करना जरूरी है।
 
जड़ गलन

जड़ गलन: यह जड़ों के विषाणुओं के कारण होता है। बिजाई से पहले बीजों को अच्छी तरह उपचार करने से इस बीमारी को रोका जा सकता है।

फसल की कटाई

बिजाई के 4-5 महीने बाद जई पूरी तरह पक कर कटाई के लिए तैयार हो जाती है। दाने झड़ने से बचाने के लिए अप्रैल महीने के शुरूआत में ही कटाई कर लेनी चाहिए। इसकी औसतन पैदावार 165-200 क्विंटल प्रति एकड़ होती है|