क्या सरकारों की गलती से समस्या बनी पराली? ये नियम बदलें तो हो सकता है समाधान

November 05 2019

दिल्ली की हवा प्रदूषण के सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। इस समय दिल्ली में सांस लेना जहर पीने के जैसा हो चुका है। पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा पराली जलाने को इसके पीछे सबसे बड़ा कारण बताया जा रहा है। लेकिन पराली पारंपरिक रूप से हमेशा से खेतों में जलाई जाती रही है। 

फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि यही पराली प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण बन गई? विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकारों ने जमीनी समस्या को समझे बिना कुछ नीतिगत बदलाव किये हैं जो पराली को प्रदूषण का कारण बना बैठे हैं। अगर सरकारें कुछ नीतिगत बदलाव करें पराली की समस्या को खत्म किया जा सकता है।

कहां है समस्या

दरअसल, किसान पारंपरिक रूप से जून के पहले हफ्ते से धान की फसल बोने की शुरुआत कर दिया करते थे। इससे लगभग 120 दिनों में पकने वाली धान की फसल सितंबर माह के अंत से लेकर अक्तूबर के मध्य तक अलग-अलग समय पर पकती थी। चूंकि किसान अलग-अलग समय पर धान की बुवाई करते थे, इससे पराली भी अलग-अलग समय पर पैदा होती थी। इससे वे अलग-अलग समय पर पराली जलाते थे और धुआं हवा के बहाव के साथ दूर चला जाता था।  

बुवाई का सीजन सिमटने से पराली एक साथ होती है तैयार

लेकिन गर्मी के मौसम में पानी की समस्या बढ़ने लगती है। पानी की कमी से निबटने के लिए कुछ वर्ष पहले पंजाब सरकार ने 20 जून के पहले राज्य में धान की फसल बोने पर प्रतिबंध लगा दिया। (अन्य राज्यों में भी प्रतिबंध हैं।) इस कारण सभी किसान मजबूरन 20 जून के बाद धान की फसल बोने लगे। 

बुवाई के लिए समय कम रह जाने के कारण सभी किसान लगभग कुछ दिनों के भीतर एक साथ फसल बोने लगे। इससे उनकी फसल अक्तूबर माह के अंत के आस-पास तैयार होने लगी। इस प्रकार सभी किसान लगभग एक ही समय पर पराली जलाने पर मजबूर होने लगे।

इसे भी समझें

किसान नेता चौधरी पुष्पेंद्र सिंह ने अमर उजाला को बताया कि यह मौसम दीपावली के आसपास का होता है जब हवा का बहाव काफी कम हो जाता है। हवा में आर्द्रता भी बढ़ जाती है। इससे हवा में लटके कण बहकर दूर नहीं जाते और प्रदूषण का कारण बन जाते हैं। जबकि पहले की स्थिति में पराली सितंबर के अंत या अक्तूबर माह के मध्य तक जलाई जाती थी। उस समय हवा का बहाव अच्छा बना रहता था जिसके कारण धुआं भी साथ-साथ बहकर दूर चला जाता था। इससे प्रदूषण नहीं होता था। 

लेकिन अब अक्तूबर के अंत या नवंबर के मध्य तक पराली जलाई जाती है जब हवा का बहाव कम हो जाता है जिससे प्रदूषण के कण बहकर दूर नहीं जाते। सरकार की एक गलती ने पराली को प्रदूषण का कारण बना दिया। (पानी की कमी दूर करने के लिए सरकार के पास अन्य विकल्प भी उपलब्ध हैं। इनमें धान की खेती की बजाय अन्य उपज को बढ़ावा देना या जमीनी पोखरे इत्यादि के माध्यम से वर्षा जल संग्रह को बढ़ावा देना शामिल है।)

मशीनों पर सब्सिडी नहीं, धान की एमएसपी बढ़ाए सरकार

पराली की समस्या इस वजह से भी बढ़ी है क्योंकि अब धान की फसल मजदूरों की बजाय मशीनों के द्वारा निबटाई जा रही है। यह सस्ता पड़ता है। इन मशीनों के द्वारा ज्यादा पराली छोड़ी जाती है जो बड़ी समस्या बनता है। अगर सरकार प्रति क्विंटल दो से तीन सौ रुपये के लगभग न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दे तो किसान मजदूरों के द्वारा धान की कटाई करा सकते हैं। इससे पराली को अन्य जगह पर इकट्ठा करके अन्य तरीके से उपयोग किया जा सकता है। लेकिन सरकार मशीनों पर सब्सिडी बढ़ा रही है, जबकि मजदूरों का उपयोग कम हो रहा है जो पराली की समस्या को बढ़ा रहा है।  

70 फीसदी प्रदूषण पर चर्चा क्यों नहीं

किसान नेता सरदार वीएम सिंह ने कहा कि पराली को प्रदूषण का कारण बताना अपनी जिम्मेदारी दूसरों के सर पर डालने जैसा है। उन्होंने कहा कि सरकारों को जवाब देना चाहिए कि किसानों की पराली खरीदी क्यों नहीं जाती? अपने स्तर पर पराली को खेतों से हटाने के लिए किसानों को प्रति क्विंटल के हिसाब से 200 से 300 रुपये के बीच सब्सिडी क्यों नहीं दी जाती?  

उन्होंने कहा कि सच्चाई यह है कि दिल्ली के प्रदूषण में 70 फीसदी से अधिक हिस्सा स्थानीय प्रदूषण के कारणों की वजह से है। ऐसे में उन कारणों के लिए कोई जिम्मेदारी क्यों नहीं लेता? पराली की समस्या केवल चंद दिनों के बीच होती है, जबकि प्रदूषण स्थायी समस्या बन चुका है। इसपर किसी समाधान की बात क्यों नहीं की जाती?

पराली खरीदने को कोई तैयार नहीं

कुरुक्षेत्र के किसान गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने अमर उजाला को बताया कि पराली को अनेक प्रकार से इस्तेमाल करने के तरीके सामने आ चुके हैं। पराली से पेपर बनाने के साथ-साथ बिजली संयंत्रों में इस्तेमाल करने की तकनीकी सामने आ चुकी है। लेकिन सच्चाई यह है कि कोई भी उनकी पराली खरीदने को सामने नहीं आता है। किसानों को मजबूरन पराली को जलाने पर मजबूर होना पड़ रहा है।

 

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स्रोत: अमर उजाला