पहाड़ और पीड़ा: पलायन देख वापस लौट आए कदम, विदेश में नौकरी छोड़ सींच रहे गांव की मिट्टी

October 30 2019

पहाड़ पर पलायन का अथाह दर्द मिला। घरौंदों पर लगे ताले खुलने का इंतजार करते-करते हार गए हैं। इस आह से एक सुखद गान भी निकला है। जामलाखाल के दो भाई बरसों पहले काम की तलाश में पहाड़ छोड़ गए थे।

जाना जिंदगी की मजबूरी था, लेकिन पलायन की पीड़ा उन्हें अपनी मिट्टी में वापस खींच लाई। जब उन्हें पता चला कि उनका गांव भी खाली होने की तरफ बढ़ रहा है तो वे अपने कदम वापस ले आए।

उन्होंने अपनी मिट्टी से गांव की जड़ों को सींचा। कर्मठ महिलाओं को साथ लेकर आर्गेनिक खेती शुरू की। कुछ जमीन उनके पास थी तो कुछ ग्रामीणों से बात करके ली। इससे महिलाओं को रोजगार मिला और गांव में खुशनुमा बयार बही। अजय और हरीश ने अपने गांव का भविष्य तो संवारा ही निर्जन हो चुके दूसरे गांव में भी उम्मीद की किरण जगाई है।

पौड़ी से करीब 16 किमी दूर जामलाखाल गांव की पूर्व प्रधान बबीता देवी के साथ अजय के खेतों की ओर चल दिए। गांव के छोर पर नीचे पगडंडियों से उतरकर वहां पहुंचे। 35 वर्षीय अजय पंवार ने कहा कि 2009 से हम दोनों भाई बाहर थे। मैं दुबई में टेलीकॉम कंपनी में काम करता था और हरीश कतर में जॉब करता था। कुछ साल बाद पता चला कि गांव में पलायन हो रहा है। तब हमने सोचा क्यों न यहीं आकर कुछ किया जाए।

करीब 90 घर बचे

2018 में गांव आए। ज्वालपा देवी समूह को अपने साथ जोड़कर ढाई एकड़ में ऑर्गेनिक खेती शुरू की। हमने सब्जियों का उत्पादन किया। एक पॉली हाउस भी लगाया। समूह में छह महिलाएं हैं। जरूरत पड़ने पर अन्य महिलाओं को भी बुला लेते हैं। लगभग 35 महिलाएं समय-समय पर हमारे खेतों में काम करती हैं।

पहले लोग परंपरागत खेती करते थे। हम लोगों ने काफी जगह घूमकर अपनी खेती में बदलाव किए। लाइनिंग विधि से गुड़ाई-निराई शुरू की। खाद में नीम का तेल और गोबर का उपयोग करते हैं। हिमाचल से बीज लाते हैं। सरकार से थोड़ी बहुत ही मदद मिली। गांव के प्राइमरी व जूनियर हाईस्कूल में हमारी सब्जियां जाती हैं। श्रीनगर में भी भेजी जाती हैं।

स्कूलों के शिक्षक आर्गेनिक खेती में ज्यादा रुचि लेते हैं। वे बच्चों के लिए हमारे खेतों की सब्जियों को प्राथमिकता देते हैं। हमें देखकर पड़िया गांव के युवा भी प्रेरित हुए। वह भी बाहर से काम छोड़कर आए और गांव में आर्गेनिक खेती शुरू की। आज गांव की महिलाएं पुरुषों से अधिक कमा रही हैं। अपने बच्चों को पढ़ा रही हैं। रोजगार के चलते करीब 20 परिवार गांव छोड़ गए। करीब 90 घर बचे हैं। सभी में महिलाएं सक्रिय हैं। मेरी पत्नी भी इस काम में हाथ बंटाती है। खेतों की सुरक्षा के लिए हमने कुत्ते रखे हैं।

क्या कहती हैं महिलाएं

67 वर्षीय बसंती देवी के दो बेटे हैं। उनमें से एक मजदूरी करता है। बसंती और उनकी बहू अजय के खेतों में काम करती हैं। कहती हैं, पहले खेतीबाड़ी करते थे तो जंगली जानवर उजाड़ देते थे। तब बच्चे लोग नर्सरी लाए। इससे हम लोगों को रोजगार मिला। अब हमारा खर्चा चल जाता है। 65 वर्षीय सोनी की बहू ज्वालपा देवी समूह की सदस्य है। वह कभी-कभी काम करने आती हैं। बताती हैं इस कदम से हमें बहुत मदद मिली।

जंगली जानवरों की वजह से अपनी खेती नहीं कर पाते थे। 32 साल की इंदु देवी चार साल से समूह में हैं। उन्होंने बताया पति कॉलेज में प्राइवेट जॉब करते हैं। उनको कम तनख्वाह मिलती है। साल में 100 दिन मनरेगा में काम करती हूं। उसके बाद ऑर्गेनिक खेती। इससे काफी मदद मिल जाती है। 47 वर्षीय हेमंती देवी के पति गाय-बकरी चराते हैं। 15 साल से वही खेती करती हैं।

निर्जन गांव में खोली नर्सरी: अजय ने बताया कि जसपुर गांव में भी उन्होंने नर्सरी खोली है। वहां तीन एकड़ में दाल और सब्जी उगाते हैं। जसपुर के निकट स्थित गांव बौसाले की महिलाओं के समूह जय धारी देवी को अपने साथ जोड़ा। वहां के लोग देहरादून और विदेशों में बसे हैं। उनसे बात कर हमने खेती शुरू की। इसका प्रभाव ये हुआ कि बाहर बसे लोग अपना गांव देखने आए। उन्होंने वोटर लिस्ट में अपना नाम लिखवाया ताकि गांव चलता रहे।

ऑर्गेनिक खेती करने वालों को मिले बढ़ावा

अजय कहते हैं, अभी हमें साल भर में 70.80 हजार का मुनाफा होता है। हम महिलाओं को 180 रुपये की मजदूरी दे पाते हैं। हमारी सब्जियां बाजार के दामों पर ही बिकती हैं। अगर इनके दाम थोड़ा बढ़कर मिलें तो ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा मिलेगा। साथ ही महिलाओं को ज्यादा पैसे भी दे पाएंगे।  

 

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स्रोत: अमर उजाला