छत्तीसगढ़ी हल्दी-2 की पैदावार से किसानों की आय बढ़ेगी, 30 फीसद अधिक पैदावार

November 25 2019

छत्तीसगढ़ में अन्य फसलों की तुलना में मसाले की खेती का रकबा बहुत कम है। सिर्फ मिर्च 36410 हेक्टेयर में अधिक उगाया जाता है। वहीं प्रदेश के किसानों के लिए छत्तीसगढ़ी हल्दी-2 की पैदावार आय बढ़ा सकती है। इसके लिए किसानों को कही भटकने की जरूरत नहीं है। उन्हे सिर्फ इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञान केंद्रों से छत्तीसगढ़ी हल्दी-2 की फसल के बीज प्राप्त कर सकते हैं। कुछ माह पूर्व कृषि वैज्ञानिकों ने छत्तीसगढ़ हल्दी -2 (आइटी -2) की नई किस्म तैयार की है, जो कि पूर्व में विकसित छत्तीसगढ़ हल्दी -1 से गुणवत्ता की दृष्टिकोण से अच्छी पाई गई है। नई किस्म विकास क्लोनल सलेक्शन (प्रतिरूप चयन) पद्धति से तैयार की गई है। यह प्रजाति छत्तीसगढ़ के ऊंचे भाग के लिए उपयुक्त पाई गई है। आनुवंशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र रायगढ़ के कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो इस नई प्रजाति में 30 फीसद ज्यादा उपज पाई गई है। साथ ही इसमें उपयुक्त गुणवत्ता वाली हल्दी की 27 फीसद तक हल्दी पाई गई है।

पौधे ऊंचे और पत्तियां चौड़ी होती हैं

छत्तीसगढ़ हल्दी -2 किस्म के पौधे ऊंचे और पत्तियां चौड़ी होती हैं। लंबे पतले राइजोम फिंगर (कंद) बनते हैं। यह मध्यम अवधि की किस्म है और लगभग 215-210 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। पूर्व में विकसित छत्तीसगढ़ हल्दी -1 से नई विकसित किस्म गुणवत्ता की दृष्टि से अच्छी है। इस किस्म में 4.1 प्रतिशत कुरकुमिन, 6.3 फीसद तेल, 11.54 फीसद ओलियोरेसिन पाया जाता है, जबकि पूर्व विकसित किस्म (छत्तीसगढ़ हल्दी -1) में 3.9 फीसद कुरकुमिन, 6.1 फीसद तेल, 10.63 फीसद ओलियोरेसिन पाया जाता है।

20-22 टन प्रति हेक्टेयर पैदावार

इस किस्म की औसत उपज 20-22 टन प्रति हेक्टेयर आता है, जो तुलनात्मक स्थानीय किस्म छत्तीसगढ़ हल्दी -1 एवं राष्ट्रीय तुलनात्मक किस्म बीएसआर एवं प्रतिमा से 30 फीसद ज्यादा है। इस किस्म में 27 फीसद तक हल्दी पायी गयी है जो कि प्रचलित किस्म रोमा (24.4 फीसद), छत्तीसगढ़ हल्दी -1 (21.6 फीसद), नरेन्द्र हल्दी (20.9 फीसद), सुरंजना (20 फीसद) एवं बीएस आर-2 (18.3 फीसद) से ज्यादा है। यह किस्म आनुवंशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र रायगढ़, वभागाध्यक्ष रायपुर के निर्देशन में विकसित की गई है। इस किस्म को विकसित करने में डॉ. एसएल सावरगांवकर, डॉ. एके सिंग, सरिता साहू एवं अन्य वैज्ञानिकों की सतत मेहनत एवं योगदान रहा है।

रेतीली, दोमट भूमि में अच्छा उत्पादन

यह किस्म कोलेटोट्राइकम पर्ण धब्बा, टेफरिना पत्ती झुलसन रोग, प्रकंद बिगलन बीमारी, सहनशील जोम स्केल कीट के लिए आंशिक प्रतिरोधी है। इस किस्म के कंद अच्छी चमक वाले, सुडौल लंबी गांठे, अंदर से गहरे नारंगी रंग की होती है। इस किस्म की खेती के लिए भूमि जीवांश युक्त 6.0 से 6.5 पीएच मान की जल निकासी वाली रेतीली दोमट भूमि अच्छा उत्पादन लेने में सहायक होती है।

 

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स्रोत: नई दुनिया