कृषि विज्ञान केंद्र टीकमगढ़ के डॉ. बी.एस. किरार, वरिष्ठ वैज्ञानिकों एवं प्रमुख द्वारा किसानों को गेंहूँ की नरवाई जलाने से भूमि एवं पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्परिणामों के बारे में विस्तार से जानकारी दी जा रही है । गेंहूँ की फसल काटने के पश्चात् जो तने के अवशेष अर्थात् नरवाई होती है, किसान भाई उसमें आग लगाकर उसे नष्ट कर देते हैं। नरवाई में लगभग नत्रजन 0.5 प्रतिशत, स्फुर 0.6 प्रतिशत और पोटाश 0.8 प्रतिशत पाया जाता है, जो नरवाई में जलकर नष्ट हो जाता है और गेंहूँ फसल में दाने से डेढ़ गुना भूसा होता है। अर्थात् यदि एक हेक्टेयर में 40 क्विंटल गेहूँ का उत्पादन होगा तो भूसे की मात्रा 60 क्विंटल होगी उस भूसे से 30 किलो नत्रजन, 36 किलो स्फुर, 48 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर प्राप्त होगा। जो वर्तमान मूल्य के आधार पर लगभग रुपये 3000 का होगा जो जलकर नष्ट हो जाता है। इसके साथ ही भूमि में उपलब्ध जैव विविधता समाप्त हो जाती है, अर्थात् भूमि में उपस्थित सूक्ष्मजीव एवं केंचुआ आदि जलकर नष्ट हो जाते हैं। इनके नष्ट होने से खेत की उपजाऊ मिटटी पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। भूमि की ऊपरी पर्त में उपलब्ध आवश्यक पोषक तत्व आग लगने के कारण जलकर नष्ट हो जाते हैं। साथ ही भूमि की भौतिक दशा भी खराब हो जाती है। अर्थात् भूमि कठोर हो जाती है, जिसके कारण भूमि की जल धारण क्षमता कम हो जाती है। फसलें जल्द सूखती हैं और कमजोर हो जाती हैं तथा भूमि में होने वाली रासायनिक क्रियायें भी प्रभावित होती हैं, जैसे कार्बनदृनाइट्रोजन एवं कार्बन-फास्फोरस का अनुपात बिगड़ जाता है, जिससे पौधों को पोषक तत्व ग्रहण करने में कठिनाई होती है।
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स्रोत: krishakjagat