अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के वर्किंग ग्रुप के वरिष्ठ सदस्य एवं किसान महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामपाल जाट का कहना है कि कृषक, उपज, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अध्यादेश, 2020 एवं मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और सुरक्षा) समझौता अध्यादेश, 2020 किसी भी तरह से अन्नदाता के हित में नहीं है। वह कहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था का डिजाइन किसान के अनुरुप है ही नहीं। एक राष्ट्र-एक बाजार, जैसे अध्यादेश अगर कानून बन गए तो देश के 86 फीसदी किसान, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम कृषि योग्य भूमि है, वे तो हमेशा के लिए दब जाएंगे।
रामपाल जाट का कहना है कि सरकार सदियों से चली आ रही मंडी प्रथा खत्म करने जा रही है। छोटे किसान ट्रेन में बैठकर 200 किलोमीटर दूर अपनी सब्जी या फल बेचने जाएंगे तो वे मुनाफा लेने की बजाए कर्जदार बन जाएंगे। ये किसान तो अपने खेत से पांच दस किलोमीटर दूर स्थित मंडी में जा सकते हैं। आगामी संसद सत्र में केंद्र सरकार इस अध्यादेश को कानून का दर्जा दिलाने का प्रयास करेगी, जिसे सहन नहीं किया जाएगा और विभिन्न राज्यों में किसान जागरण यात्राएं निकाली जाएंगी।
उनका कहना है कि देश मे अभी जोत का औसत आकार 1.15 हेक्टेयर है। इससे 86.6 फीसदी किसान तो लघु एवं सीमांत श्रेणी में आते हैं। डेढ़-दो हेक्टेयर से अधिक जोत वाले किसानो की संख्या .37 फीसदी है। ये किसान चाहते हैं कि उनकी उपज को बेचने के लिए गांव एवं उसके आसपास कोई व्यवस्था हो जाए। केंद्रीकृत व्यवस्था तो भ्रष्टाचार की जननी है, विकेंद्रित व्यवस्था उसकी अपेक्षा अधिक कारगर है। सरकार ग्राम स्तर पर छनाई, छंटाई, श्रेणीकरण व तेलांश मापने की प्रयोगशाला की स्थापना करती है तो गांव का युवा किसान अपनी पैदावार को विश्वस्तर पर बेचने में सक्षम हो सकता है। सरकार ने इस ओर कोई प्रयास नहीं किया और अब यह काम बड़े बड़े पूंजी वालों को सौंप दिया है। इससे छोटी जोत वालों की व्यापार करने की यह संभावना भी समाप्त हो गई। चार-पांच साल पहले जयपुर के किसान अपने खरबूजे लेकर उन्हें जोधपुर के बाजार में बेचने चले गए, तो वहां पर उनका मूल्य उतना आया जो ट्रक का भाड़ा चुकाने में भी कम पड़ गया था।
क्या अब व्यापारी सिखायेंगे किसानों को खेती करना: रामपाल
किसानों को सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी खेती का अनुभव है। हैरानी की बात तो ये है कि अब वे लोग किसानों को खेती करना सिखायेंगे, जिन्होंने कभी खेती नहीं की।ऐसे लोग अब किसानों को खाद, बीज व कीटनाशक आदि देंगे। रामपाल के मुताबिक, भारत सरकार ने इन अध्यादेशों ने व्यापारियों को किसानों के साथ लूट मचाने का एक मार्ग उपलब्ध करा दिया है। किसानों को उन्हीं के खेतों पर मजदूर बना दिया जाएगा। बीज की खेती भी किसानों को उन्हीं सेवा प्रदाता/व्यापारियों के द्वारा कराई जाएगी। यह छद्म युद्ध है, जिसमें छल के आधार पर सरकार बड़े पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाना चाहती है।
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के वर्किंग समूह के दूसरे सदस्य हन्नान मौला बताते हैं कि अब किसान रेल चलाई गई है। मेरा सवाल है कि इसका फायदा किसे होगा। क्या किसान को इसका लाभ होगा, बिल्कुल नहीं होगा। दो हेक्टेयर जमीन पर खेती करने वाला किसान इस गाड़ी में बैठकर फसल बेचने जाएगा। ये कैसे संभव होगा। हां, बड़े पूंजीपति इस किसान रेल का भरपूर लाभ लेंगे। उन्हीं का माल इस गाड़ी में लदेगा।
इसलिए जोर पकड़ रही है इस अध्यादेश को वापस लेने की मांग
किसान नेता रामपाल जाट बताते हैं कि इस बाबत देश के किसानों की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भेजा गया था। इसमें सिलसिलेवार ढंग से यह बताया गया है कि उक्त दोनों अध्यादेश किसानों के हित में नहीं हैं। जैसे, इनमें कहा गया है कि किसानों के पास अपनी उपज बेचने की स्वतंत्रता विद्यमान है। वे किसी भी व्यापारी या संस्था को फसल बेच सकते हैं। पहले भी किसानो को अपनी उपज देश भर में बेचने की छूट थी तथा किसानों की फसल के विक्रय पर कोई शुल्क, कर या उपकर देय नहीं था। इन अध्यादेशों में सरकार ने ये प्रावधान कृषि का व्यापार करने वालों के लिए किया है, किन्तु जनता को भ्रमित करने के लिए व्यापारियों के साथ किसान शब्द डाला गया है। इस प्रकार का प्रचार संदेह उत्पन्न करता है।
अनुबंध के समय दोनों पक्षकारों मंडियां, ई-व्यापार एवं अन्य ऐसे मंचों के भावों के आधार पर उपज का मूल्य निश्चित करेंगे। इसमें किसानों के लिए न्यूनतम मूल्य की कोई व्यवस्था नहीं है। आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत संग्रहण सीमा संबंधी प्रावधानों से छूट दी गई है। इससे बड़े पूंजीपतियों द्वारा फसलों के व्यापार को हथियाने में सुविधा रहेगी। रामपाल के अनुसार, वे पूंजी के आधार पर संपूर्ण कृषि उपजों को अपने भंडारों में जमा कर सकेंगे। उसके बाद बाजार में उनकी कमी दर्शाते हुए, उपभोक्ताओं की जेब से मनचाहे दाम वसूल सकेंगे।
65 फीसदी उत्पादक जो उपभोक्ता भी हैं, उन्हें पड़ेगी दोहरी मार
देश में 65 फीसदी उत्पादक, उपभोक्ता भी हैं, उक्त अध्यादेश से उन्हें दोहरी मार झेलनी पड़ेगी। वे जिन कृषि उपजों का उत्पादन करेंगे, वह कम से कम दामों पर खरीदी जाएगी। कृषि उपजों के मूल्य निर्धारण की कोई व्यवस्था नहीं है। लावारिस वस्तु की भांति फसल नीलाम होती है। उत्पादन के उपरांत उन कृषि उपजों को बाजार में ओने-पौने दामों में बेचना पड़ता है। किसानों को उनके पसीने की कमाई भी प्राप्त नहीं होती है। वे श्रम मूल्य से भी वंचित रहते हैं, परिणाम स्वरूप ऋण उन्हें अपनी जकड़ में ले लेता है। किसानों को निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य भी प्राप्त नहीं होता।
भारत सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात 2016-17 में कही थी। अभी तक किसानों की आय में बढ़ोतरी के लिए सरकार ने कोई भी कानून नहीं बनाया है। अध्यादेश के कारण मंडियां निष्प्रभावी हो जाएंगी। इन मंडियों के कानून बनाने के लिए स्वतंत्रता के पूर्व से किसान नेताओं के साथ असंख्य लोगों ने संघर्ष किया है। इन मंडियों में अभी संपूर्ण उपजों में से 25 फीसदी उपजों का व्यापार होता है। उसके शुल्क द्वारा ये मंडियां चलती हैं। सरकार अब मंडियों को खत्म करने की योजना बना रही है। बिना पूर्ण तैयारी के लाए गए अध्यादेश अब कानून बनते हैं तो किसानों का बड़ा अहित भी तय है।
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स्रोत: Amar Ujala