छोटे-मोटे कीटों का भक्षण कर लेते हैं खास पौधे, उच्च हिमालयी क्षेत्र में मिलीं 19 प्रजातियां

November 07 2020

उत्तराखंड उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्नो लाइन से पहले-पहले ही मांसभक्षी पौधों की भी खासी उपस्थिति है। वन अनुसंधान संस्थान को ही एक साल के सर्वे में तीन प्रकार के कीट भक्षी पौधों में करीब 19 प्रजातियों का पता लगा है।

पिछले एक साल से चमोली जिले में किए गए सर्वे में यह सामने आया है प्रदेश में एक कीट भक्षी पौधे यूटिकुलेरिया की ही करीब 17 प्रजातियां हैं।  अल्पाइना की एक और ड्रोसेरा की एक प्रजाति मिली है।  

क्या हैं कीट भक्षी पौधे

स्वयं के विकास को बनाए रखने के लिए छोटे कीटों को खाने वाले पौधों को ही कीट भक्षी कहा जाता है। वन अनुसंधान केंद्र के मुताबिक दुनिया में 756 और देश में करीब 40 प्रजातियों के कीटभक्षक पौधे पाए जाते हैं। नाइट्रोजन की कमी को पूरा करने के लिए ये पौधे कीटों का शिकार करते हैं।

अभी और प्रजातियां भी आ सकती हैं सामने

इन तीनों प्रकारों की करीब 19 प्रजातियां प्रदेश में पाई गई हैं। यूटेकुलेरिया की एक प्रजाति तो कुमाऊं के नाम पर भी है। वन अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ताओं का कहना है कि अभी चमोली जिले में ही सर्वे किया जा सका है। अन्य जिलोें के उच्च हिमालयी क्षेत्र में सर्वे करने पर अन्य प्रजातियों के मिलने की संभावना है। 

प्रदेश में मांसाहारी पौधों के बारे में जानकारी बहुत कम है। इसी कमी को पूरा करने के लिए यह परियोजना शुरू की गई है। वन विभाग भी शोध कर रहा है। उत्तराखंड की जैव विविधता अनुमान से कहीं अधिक समृद्ध है-संजीव चतुर्वेदी, मुख्य वन संरक्षक, वन अनुसंधान केंद्र

इन पौधों का संसार बेहद दिलचस्प है। इनको पहचानना बहुत ही कठिन होता है। कुछ पौधों को तो बिना माइक्रोस्कोप से देखे बिना आप पहचान भी नहीं सकते। इसमें वन क्षेत्राधिकारी हरीश नेगी और मैंने व्यापक स्तर पर सर्वे किया- मनोज, अनुसंधानकर्ता

ये प्रकार (जीनस) मिले प्रदेश में

यूट्रीकुलेरिया ब्राकीयाटा- 3300 मीटर की ऊंचाई पर मिलने वाला यह मांसाहारी पौधा दुर्लभ श्रेणी में शामिल है। स्थानीय स्तर पर इसकी जानकारी बहुत कम है। प्रदेश में यूट्रीकुलेरिया मुख्य रूप से तुंगनाथ, रुद्रनाथ, मंडल गोपेश्वर, नंदा देवी, रालम घाटी, पिथौरागढ़ में है।

ड्रोसेरा- इस पौधे का उपयोग देश में स्वर्ण भस्म के रूप में भी किया जाता है। यह एंटीसेप्टिक और टॉनिक का काम भी करता है। इसे स्थानीय भाषा में मुखजली भी कहा जाता है। यह नाम शायद मुंह के छालों को ठीक करने में इसके उपयोग के कारण है। गोपेश्वर, नारायणबगड़, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, गैरसैंण में पाया जाता है। 

पिंगुकुलिया अल्पाइना- यह दुर्लभ श्रेणी में शामिल है। 3000 से 5000 मीटर की ऊंचाई पर मिलता है। मिलाम, सुंदरढुंगा, ऋषिगंगा, नंदा देवी आदि। इसका उपयोग कई तरह के दर्द में होता है।

 

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स्रोत: Amar Ujala