तिरुपति बालाजी की मां वकुला के रूप में गेहूं की नई प्रजाति का अवतार

August 27 2021

गेहूं उत्पादक किसानों के लिए खुशखबर है कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के इंदौर स्थित क्षेत्रीय गेहूं अनुसंधान केंद्र से नई प्रजाति का अनुसंधान हुआ है। केंद्र के कृषि विज्ञानियों ने तिरुपति बालाजी यानी भगवान वेंकटेश के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए इस नई प्रजाति को उनकी माता वकुला का नाम दिया है। इसका विज्ञानी नाम एचआइ-1636 (पूसा-वकुला) रखा गया है। केंद्र से समय पर बोने वाली गेहूं की पूर्णा एचआइ-1544 प्रजाति के 14 साल बाद नई प्रजाति जन्म हुआ है।

भारतीय गेहूं और जौ अनुसंधान संस्थान ने इस नई प्रजाति को चिन्हित किया है। संस्थान की वेराइटल आइडेंटिफिकेशन कमेटी ने इसे मंजूरी दे दी है। अब जल्द ही भारत सरकार द्वारा इसकी अधिसूचना जारी होने की संभावना है। इसके बाद इसी साल इस प्रजाति का प्रजनक बीज (ब्रीडर सीड) तैयार किया जाएगा। अगले दो साल में आम किसानों तक बीज पहुंचने की उम्मीद है। यह प्रजाति भारत के मध्य क्षेत्र की जलवायु के हिसाब से अनुकूल होगी। इसलिए मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान के कोटा-उदयरपुर क्षेत्र के अलावा उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बोई जा सकेगी।

इस प्रजाति को विकसित करने वाले क्षेत्रीय केंद्र इंदौर के प्रमुख विज्ञानी डा. एसवी साईंप्रसाद का कहना है कि महान स्त्रियों को सम्मान देने के लिए हमने पहले भी गेहूं की प्रजातियों के नाम उसी तरह रखे हैं। इस बार हमने भगवान श्रीकृष्ण के ही रूप तिरुपति के भगवान वेंकटेश (बालाजी) की माता वकुला के नाम पर गेहूं की नव विकसित प्रजाति एचआइ-1636 का नाम रखा है। पूसा-वकुला की पैदावार पूर्णा से पांच प्रतिशत अधिक है। मध्य प्रदेश में तो इस समय 75 प्रतिशत क्षेत्र में पूर्णा ही बोया जाता है। पूर्णा की तरह यह नई प्रजाति भी प्रदेश के अलावा मध्य क्षेत्र के किसानों के लिए उपज में वरदान साबित होगी।

रोटी और बिस्किट के लिए बेहतर, जिंक की मात्रा भरपूर

पूसा-वकुला में जिंक भरपूर मात्रा (44.4 पीपीएम) में है। प्रोटीन भी 12 प्रतिशत के आसपास है। यह गेहूं चपाती के लिए बेहतर होगा। बिस्किट बनाने के लिए भी यह बहुत अच्छा होगा। जिंक की अच्छी मात्रा के कारण यह कुपोषण भी दूर करेगा। इसकी औसत पैदावार 56.6 क्विंटल होगी, जबकि इसकी पैदावार की अधिकतम क्षमता 78.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आंकी गई है। दाना मोटा होगा और बुआई का समय नवंबर में 5 से 15 तारीख के बीच तय किया गया है। इस प्रजाति को चार-पांच सिंचाई की जरूरत होगी। इसकी एक खासियत यह भी है कि तना और पत्ती के गेरुआ रोग का असर नहीं होगा।

मालवी गेहूं के रूप में पूसा प्रभात का भी उदय

पूसा-वकुला के साथ ही इंदौर क्षेत्रीय केंद्र ने मालवी ड्यूरम गेहूं के रूप में पूसा-प्रभात (एचआइ-8823) प्रजाति भी विकसित की है। मालवी ड्यूरम गेहूं की मालव कीर्ति प्रजाति के अनुसंधान के 16 साल बाद यह नई प्रजाति लाई गई है। इंदौर अनुसंधान केंद्र की कृषि विज्ञानी डा. दिव्या अंबाटी ने पूसा-प्रभात प्रजाति को विकसित किया है। यह कम पानी वाली प्रजाति है। एक-दो सिंचाई में इसकी फसल पककर तैयार हो जाएगी। इसे 20 से 30 अक्टूबर के बीच मध्य क्षेत्र के राज्यों में बोया जा सकेगा। इस गेहूं में भरपूर प्रोटीन के अलावा आयरन की मात्रा 37.9 पीपीएम और जिंक 40.1 पीपीएम होगा। पूसा प्रभात की औसत पैदावार 38.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होगी, जबकि इसकी पैदावार की अधिकतम क्षमता 65.6 क्विंटल तक आंकी गई है। इसका दाना मोटा है और यह गेरुआ रोग के लिए प्रतिरोधी है। यह पास्ता, दलिया आदि के लिए बहुत उपयुक्त होगा। इस प्रजाति का उपयोग कच्चे माल के रूप में सेमोलिना आधारित उद्योगों में किया जा सकता है।

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स्रोत: Nai Dunia