स्वर्णिम रेशा किसानों की संवार रहा तकदीर

December 12 2017

लखनऊ। पारंपरिक टाट, यार्न, कालीन, घर और फर्नीचर को सजाने वाले कपड़ों के साथ ही जूट फैशन का अटूट हिस्सा बन गया है। जूट जिसे आम बोलचाल की भाषा में पटसन कहा जाता है, उसकी देश में खेती बढ़ने से पटसन उगाने वाले किसानों के साथ ही पटसन उत्पाद बनाने वाले कारीगरों की आय बढ़ रही है।

आने वाले सालों में 50 करोड़ डॉलर निर्यात का लक्ष्य

राष्ट्रीय पटसन बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, देश में लगभग 40 लाख किसान करीब आठ लाख हेक्टेयर में पटसन उगाते हैं। वर्ष 2016-17 के दौरान पटसन क्षेत्र से निर्यात 38 करोड़ 30 लाख अमरीकी डॉलर मूल्यट का था। आने वाले साल में 50 करोड़ अमरीकी डॉलर मूल्यर के निर्यात का लक्ष्यह तय किया गया है। निर्यात की जाने वाली वस्तुनओं में फर्श पर बिछाने की पटसन से बनी दरी, वॉल हैंगिंग और सजावटी वस्त्र जैसी विभिन्न चीजें शामिल हैं। पटसन भारत के कृषि और औद्योगिक अर्थव्य वस्थाग के सबसे पुराने क्षेत्रों में से एक है।

2.48 लाख लोगों को सीधे रोजगार मिल रहा

राष्ट्रीय पटसन बोर्ड के सहायक निदेशक किशन सिंह ने ‘गाँव कनेक्शन’ को बताया, “भारत कच्चेह पटसन और इससे तैयार माल का सबसे बड़ा उत्पाददक देश है। देश में कुल 83 पटसन मिलें हैं, जिनमें 16 लाख मीट्रिक टन माल तैयार किया जाता है। यह उद्योग कृषि-आधारित और श्रम बहुल है और इस क्षेत्र में लगभग 2.48 लाख लोगों को सीधे रोजगार मिल रहा है।

सबसे बड़ा लाभ, पर्यावरण हितैषी उत्पााद

केंद्रीय पटसन एवं समवर्गीय रेशा अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर, पश्चिम बंगाल के फसल विभाग के हेड डॉ. डीके कुंडू ने कहा, पटसन से सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह पर्यावरण हितैषी उत्पाकद है। पटसन को स्वीर्णिम रेशा कहा जाता है और यह उन सभी मानकों पर खरा उतरता है, जो पैकेजिंग के काम आने वाली चीजों को प्राकृतिक, फिर से इस्ते माल होने वाली, प्राकृतिक रूप से पर्यावरण हितैषी हैं।

पटसन उद्योग का भविष्य उज्ज्वल

उन्होंने बताया, “पटसन का रेशा प्राकृतिक होता है और यह अब सारी दुनिया में पर्यावरण हितैषी उत्पांद के रूप में मंजूर किया जाता है, क्योंकि इससे बनी चीजें पर्यावरण अनुकूल हैं और खुद ही समय के साथ क्षय होकर नष्टं हो जाती हैं। अब जबकि पर्यावरण के प्रति लोगों की जागरूकता बढ़ रही है और लोगों का प्राकृतिक उत्पाहदों के प्रति रुझान बढ़ रहा है, पटसन उद्योग का भविष्यह उज्ज्वल है।“

अब स्थिति सुधर रही है

पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के हरिपाल गाँव के किसान राजेश मंडल ने बताया, कुछ सालों से जूट मिलों की स्थिति बहुत खराब होने से हमें अच्छा दाम नहीं मिल पा रहा था, लेकिन जूट बोर्ड के प्रयास से अब स्थिति सुधर रही है।

कई कार्यक्रम शुरू किए

भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय के तहत काम करने वाले नेशनल जूट बोर्ड ने पटसन उद्योग को बढ़ावा देने के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए हैं। यह बोर्ड पटसान उत्पादकों, श्रमिकों और निर्यातकों को ध्यान में रखकर काम कर रहा है। बोर्ड पटसन और पटसन से बनी चीजों के देश में प्रयोग को बढ़ावा देता है और निर्यात की भी व्य।वस्थाप करता है। इस बोर्ड के लगातार प्रयासों का परिणाम है कि इस क्षेत्र में लोगों को रोजगार के लगातार अवसर मिल रहे हैं।

83 जिलों में हो रही पटसन की खेती

पटसन गंगा के डेल्टा में मुख्य रूप से उगाई जाने वाली एक फसल है। उपयोग के मामले में कपास के बाद सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक रेशों से एक है। भारत में पटसन की खेती पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा, बिहार, उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा और मेघालय के लगभग 83 जिलों में हो रही है। अकेले पश्चिम बंगाल में ही 50 प्रतिशत से ज्यादा पटसन उत्पादन होता है।

मुख्य उत्पादक देश भारत, बंग्लादेश, चीन और थाईलैंड

दुनिया में पटसन के मुख्य उत्पादक देश भारत, बंग्लादेश, चीन और थाईलैड हैं। पूरी दुनिया में कुल पटसन का 50 प्रतिशत से अधिक उत्पादन भारत करता है। देश में पहली पटसन मिल श्री जॉर्ज अक्ल्यांड ने वर्ष 1855 में हुगली कलकत्ता के पास नदी पर, रिसड़ा (पश्चिम बंगाल) में स्थापित किया था। जार्ज अक्ल्यांड डंडी ने ब्रिटेन से जूट कताई मशीनरी लाई थी और 1959 में पहला बिजली से चलने वाला जूट कारखाना स्थापित किया था।

मिल रहा है बड़ा बाजार

कोलकाता स्थित अनकापुतुर जूट ग्रोवर्स एसोसिएशन ने तरह-तरह की पटसन रेशे से तैयार की गई साड़ियां बनाता है, जो महिलाओं को बहुत पसंद आती हैं। इस संगठन केसी. शेखर का कहना है, पटसन की साड़ियां फैशनेबल ही नहीं, बल्कि टिकाऊ भी हैं। जिसके कारण इसको बड़ा बाजार मिल रहा है। जिस तरह के सिंथेटिक और प्लास्टिक के उत्पादों का अधिक उपयोग बढ़ रहा है और जलवायु परिवर्तन का कारण बन रहा है, ऐसे में जूट के उत्पाद बेहतर विकल्प हैं। उन्होंने आगे बताया, “पटसन रेशे मिलाकर तैयार की गई साड़ियां, पटसन के टाइल्स़, पटसन की दरियां, वॉल हैंगिंग, पटसन से तैयार हस्तिशिल्पम, विभिन्ना प्रकार के थैले, घरेलू वस्त्र , पटसन से तैयार लिखने-पढ़ने की चीजें, उपहार देने की वस्तुरएं और फुटवियर आम घरों का हिस्सा बन रही है।“

इस खबर को अपनी खेती के स्टाफ द्वारा सम्पादित नहीं किया गया है एवं यह कहानी अलग-अलग फीड में से प्रकाशित की गयी है|

Source: Gaonconnection