वो महिलाएं जो बड़ी बड़ी नौकरी छोड़ खेती के मैदान में गाढ़ रही हैं सफलता के झंडे, 5 कहानियां

February 25 2018

छोटा सा अचार का बिजनस आज बन गया है कि काफी बड़ा

श्रीमति कृष्णा यादव दिल्ली के नजफगढ़ में रहने वाली एक सफल व्यापारी हैं। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर की रहने वाली कृष्णा अपने तीन बच्चों के साथ दिल्ली दो जून रोटी की तलाश में तब आईं थीं जब 1996 में उनके पति की नौकरी नहीं रही थी।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों की सलाह ने उन्हें अपना खुद का अचार का बिजनस स्थापित करने के लिए सक्षम बनाया जो न केवल उनके परिवार के लिए आजीविका का साधन बना बल्कि पिछले चौदह सालों (2002-16) से वो अब सालाना एक करोड़ रुपये के अधिक टर्नओवर वाले व्यवसाय को संभाल रही हैं।

सफलता की मिसाल बनी एक गरीब महिला

उनका परिवार 1995-96 से अपने निराशाजनक दौर से गुजर रहा था जब उनके बेरोजगार पति मानसिक रूप से बेहद परेशान हालात में फंस चुके थे।

लेकिन ये उनकी दृढ़ता और साहस ही था कि जिसने उनके परिवार को इस कठिन दौर को निर्लित भाव से सहने की ताकत दी और अपने एक मित्र से 500 रुपया उधार लेकर उनका परिवार दिल्ली चला आया।

दिल्ली आने के बाद उनके परिवार ने कमांडेट बी एस त्यागी के खानपुर स्थित रेवलाला गांव के फार्म हाउस के देख रेख की नौकरी शुरू की।

कमांडेट त्यागी ने अपने फार्म हाउस में कृषि विज्ञान केंद्र, उजवा के वैज्ञानिकों के निर्देशन में बेर और करौंदे के बाग स्थापित किए थे।

बाजार में इन फलों की कम कीमत चिंता का सबब था लिहाज़ा कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों ने कमांडेट त्यागी को मूल्य संवर्धन और खाद्य प्रसंस्करण जैसे गतिविधियों को संभावित हल के रूप में सुझाया। यह उद्यम के विचार के जन्म लेने का दौर था और इसी क्रम में श्रीमति कृष्णा यादव ने 2001 में कृषि विज्ञान केंद्र, उजवा में खाद्य प्रसंस्करण तकनीक का तीन महीने का प्रशिक्षण लिया।

प्रशिक्षण के बाद पहला मूल्य संवर्धित उत्पाद के तौर पर तीन हजार रुपये के आरंभिक निवेश पर 100 किलो करौंदे का अचार और पांच किलो मिर्च का अचार तैयार किया गया जिसे बेच कर उन्हें 5250 रुपये का लाभ हुआ।

आरंभिक कठिनाइयां:

सफलता का स्वाद चखने के बाद उपलब्धि का भाव लिए उन्हें कुछ किलो करौंदा कैंडी बनाने का ख्याल आया। लेकिन उनके बनाए कैंडी में फंगस लग गए और वो बर्बाद हो गए।

हालांकि उन्होंने हार नहीं मानी और उन्होंने इसका निदान निकालने के लिए वैज्ञानिकों और खाद्य विशेषज्ञों से सलाह ली और उत्पाद की संरक्षण प्रक्रिया का पूरी तरह से पालन करते हुए बेहतर उत्पाद सामने लेकर आईं।

उनके इस बात से उनके उद्यम को विभिन्न उत्पादों के जरिए आगे बढ़ाने की उनकी चिंता पहली बार खुल कर सामने आई।

उनके द्वारा बनाए गए उत्पाद को बेचने का काम उनके पति करते थे जिन्होंने नजफगढ़ की सड़क के किनारे ठेले से चलने वाली अपनी रेहड़ी लगा ली थी। उनकी रेहड़ी को देखकर लोग मजाक उड़ाते थे और ये कह कर हंसते थे कि अब ठेले पर सब्जियों की तरह अचार भी मिलने लगे हैं।

लेकिन उनका परिवार इन मजाक से बेपरवार अपने एजेंडे पर मजबूती से डटा रहा। करौंदा कैंडी उस इलाके के लिए नया उत्पाद था लिहाज़ा इसको लेकर लोगों की प्रतिक्रिया बेहद सकारात्मक रही और लाभप्रद रही। उनके इस अनुभव ने उनमें पूरी तरह से मूल्य संवर्धन उद्यम की ओर आगे बढ़ने की प्रेरणा जगाई और तब से फिर उन्होंने पीछे मुढ़कर कभी नहीं देखा।

वर्तमान हालात:

करौंदा का अचार और कैंडी बनाने के शुरूआती दिनों के बाद आज वो विभिन्न तरह की चटनी, आचार, मुरब्बा आदि कम से कम 87 विभिन्न प्रकार के उत्पाद तैयार करती हैं।

वर्तमान में उनके उद्यम में तकरीबन 500 क्वींटल फलों और सब्जियों का प्रसंस्करण होता है जिसका सालाना व्यापार तकरीबन एक करोड़ रुपये से उपर का जिसने कइ अन्य को रोजगार मुहैय्या कराया है।

एफपीओ के दिशा निर्देशों के मुताबिक आला वाणिज्यिक ग्राहकों को ध्यान में रखकर उत्पादों को पारंपरिक व्यंजनों और नवीन विचारों के मिश्रण से तैयार किया जा रहा है।

उत्पाद को न केवल स्वादिष्ट व्यंजन के रूप में बनाया जाता है बल्कि उनके चिकित्सकीय और सौंदर्य प्रसाधन के रूप में उपयोग के मकसद को ध्यान में रखकर भी तैयार किया जाता है जैसे कि एलुवेरा जेल का उपयोग तो सौंदर्य प्रसाधन के रूप में है लेकिन एलुवेरा जेल में हल्दी मिला देना से वो बुजुर्गों के घुटने के दर्द में राहत देने की दवा बन जाती है।

करेला, मैथी और एलुवेरा के मिश्रण का जूस मधुमेह के रोगियों के लिए फायदेमंद होता है। 2006 में उन्होंने आईएआरआई में पोस्ट हार्वेस्ट प्रौद्योगिकी में प्रशिक्षण लिया जहां उन्होंने बगैर रासायनिक परिरक्षकों के प्रयोग के फलों से तैयार होने वाले पेय के बारे में जानकारी हासिल की।

इसके पश्चात उन्होंने आईएआरआई के साथ जामुन, लीची, आम और स्ट्रॉबेरी आदि के पुसा पेय बनाने के एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किये।

सड़क के किनारे रेहड़ी लगाने से एक फैक्ट्री के मालिक बनने तक के सफर में उन्होंने एक लंबी दूरी तय की है। चार मंजीला उनकी फैक्ट्री खाद्य प्रसंस्करण के अत्याधुनिक उपकरणों से सुज्जित हैं।

चारों मंजिल पर अलग अलग काम मसलन सुखाने, धोने और काटने आदि का काम होता है।

मार्केटिंग & संबंध बनाना :

वो प्रदर्शनी, मेला, सेमिनार और सम्मेलनों में नियमित रूप से भाग लेती हैं जिससे उनके उत्पादों का प्रदर्शन ठीक ठाक ढंग से हो पाता है, साथ ही एक उद्यमी के तौर पर उनकी मान्यता को भी मजबूती मिलती है।

ब्रांड को स्थापित करने का ये अभिनव रणनीति है। उनको एक उद्यमी के तौर पर प्रेरित करने में आईएआरआई के वैज्ञानिकों की बड़ी भूमिका रही है।

वो अपने उत्पाद को दुकानों, मोबाइल वैन, बीएसएफ कैंटिन में थोक भाव में, स्थानीय बाजारों आदि में बेचती हैं।

थोक माल बेचने के लिए सरकारी संस्थानों के साथ, कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए किसानों के साथ, नए नए तकनीक से परिचित होने के लिए अनुसंधान केंद्रों के साथ और अलग अलग समय में मदद के लिए स्थानीय महिलाओं के साथ अपने संबंधों को अपने व्यापार को बढ़ाने का आधार बनाया।

इस खबर को अपनी खेती के स्टाफ द्वारा सम्पादित नहीं किया गया है एवं यह कहानी अलग-अलग फीड में से प्रकाशित की गयी है|

Source: Kisan Khabar