डीन की नौकरी छोड़ आदिवासियों संग कर रहा खेती

November 03 2017

3 November 2017

आइआइटी खड़गपुर से पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद अच्छी नौकरी और फिर ओडिशा सेंचुरियन यूनिवर्सिटी में डीन की नौकरी, आगे एक बेहतर करियर और बेहतर भविष्य की गारंटी। लेकिन यह सब यहीं पीछे छोड़ ओडिशा के बदहाल आदिवासियों की मदद के लिए खुद किसान बन जाना। यह कहानी है एक होनहार युवा इंजीनियर विशाल सिंह की।

होनहार इसलिए, क्योंकि उच्चशिक्षा हासिल कर लेने के बाद मोटी सैलरी के पीछे भागना ही शिक्षा से हासिल एकमात्र हुनर और जीवन का एकमात्र ध्येय नहीं हो सकता है। इंसान को इंसान समझने से बड़ा हुनर शायद ही कोई दूसरा हो। अपने इसी हुनर के कारण विशाल सिंह एक नजीर के रूप में हमारे सामने हैं।

नौकरी से सरोकार तक-

वर्ष 2013 में आइआइटी खड़गपुर से स्नातकोत्तर करने के बाद विशाल को अभियंता के रूप में पहली नौकरी मिली यूपी के शाहजहांपुर में। राइस प्रोसेसिंग इंडस्ट्री के रिसर्च डेवलेपमेंट विभाग में बड़ा पद। कुछ दिनों तक काम किया पर मन नहीं लगा। 2014 में नई नौकरी पकड़ी और ओडिशा आ गए।

यहां सेंचुरियन यूनिवर्सिटी के एग्रीकल्चर इंजीनियरिंग विभाग में विभाग प्रमुख बनाए गए। गरीब किसानों की मदद का जज्बा शुरू से मन में था, जो ओडिशा आकर बढ़ गया। यहां आदिवासी किसानों की दुर्दशा देख विशाल विचलित हो उठे। सोचा कि नौकरी के साथ-साथ इनकी मदद के लिए भी काम करेंगे। यहां से शुरुआत हुई।

उन्होंने पास के गांवों के दस-दस किसानों का समूह बना कर उन्हें स्वावलंबन, उन्नत व जैविक कृषि के लिए प्रशिक्षित करने लगे। फिर यूनिवर्सिटी के छात्रों को भी इस काम में जोड़ा। इस बीच प्रमोशन हुआ और 2015 में विवि में डीन बना दिए गए। इससे अभियान को आगे बढ़ाने के लिए और समय मिल गया। उन्होंने गंजाम, गुणुपुर व बालागीर जिलों में भी अपनी मुहिम को बढ़ाया।

समाज सेवा का हुनर-

विशाल ने बताया कि नौकरी छोड़ कर गरीबी उन्मूलन के काम में जुटने के फैसले के बाद वे इस सीमित समय में ही अब तक 8900 आदिवासी किसानों को आत्मनिर्भर बन चुके हैं।

बकौल विशाल, 2016 में लगा कि नौकरी बाधा बन रही है। गरीब आदिवासी किसानों को मेरी मदद की अधिक जरूरत थी। मेरे सहयोग से उन सैकड़ों परिवारों का भला हो सकता था, जो अजागरूकता और पिछड़ेपन के कारण नारकीय जीवन जी रहे थे। मैंने नौकरी छोड़ कर पूरी तरह इन आदिवासी किसानों के लिए ही जीवन समर्पित करने का मन बना लिया। लेकिन यह काम आसान नहीं होने वाला था। इस काम को कैसे करूंगा, संसाधन कैसे जुटाऊंगा, इन सभी बातों की पक्की योजना बनाई और फिर नौकरी छोड़ दी।

ऐसे किया प्रबंधन-

विशाल ने बताया कि उन्होंने आदिवासी किसानों की मदद के लिए एक सुनियोजित रूपरेखा तैयार की और फिर उस पर काम शुरू किया। वह बताते हैं, कुछ बड़ी संस्थाओं और एनजीओ को मैंने इस काम में जोड़ा। मयूरभंज जिले के सुलियापदा ब्लाक के लोधा व संथाल जनजातियों के उत्थान के लिए 200 एकड़ जमीन पर सहजन, सर्पगंधा, लेमनग्रास की सामूहिक खेती शुरू कराने में सफलता मिली।

वहीं सुंदरगढ़ के कुआर मुंडा में जैविक खाद, जैविक कीटनाशक और जैविक टॉनिक का सामूहिक उत्पादन कार्य शुरू कराया गया। किसानों को आर्थिक फायदा हुआ तो हौसला भी बढ़ा। फिर झारसुगुडा में जैविक खाद उत्पादन केंद्र बनाया। मददगार जुड़ते गए और मयूरभंज व बालागीर में भी मुहिम तेज हो गई। झारसुगुड़ा में भी 16 एकड़ भूमि में जैविक फल, सब्जी व हर्बल पेय का सामूहिक उत्पादन शुरू किया।

किसान पिता से मिली प्रेरणा-

बनारस के रहने वाले विशाल के पिता ओंकारनाथ सिंह एक साधारण किसान हैं। विशाल बताते हैं कि किसानों की मदद करने की प्रेरणा उन्हें अपने पिता के संघर्ष को देखकर ही मिली। वह कहते हैं, किसानों की स्थिति से मैं पूरी तरह वाकिफ हूं। यही कारण है कि बचपन में ही मैंने कृषि क्षेत्र से जुड़ने का मन बना लिया था। मेरा लक्ष्य गरीबी से जूझने वाले साधनहीन किसानों को आत्मनिर्भर बनाना है।

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Source: Krishi Jagran