पिछले दिनों भ्रमण में कृषकों से फसल उत्पादन एवं उत्पादक पर चर्चा के दौरान एक अहम मुद्दा सामने आया। बुजुर्ग किसानों, जिन्हें हम विशेषज्ञ कहते हैं कि इन्हें वैज्ञानिक खेती नहीं आती है और ये पुराने ढर्रे पर ही अपनी खेती करते हैं। इन्हीं में से एक ने व्याख्या कर दी कि आज व्यवसायिक खेती एवं अधिक सफल उत्पादन के चक्कर में कृषकगण अंधाधुंध बाहरी आदानों का उपयोग कर एकांकी फसल लगातार ले रहे हैं। क्या इससे उत्पाकता बनी रहेगी। धरती हमारी माता है उसे विश्राम न देते हुए लगातार फसलें ली जायेंगी जो उत्पादकता कहां तक बनी रहेगी और मिट्टी जो कमजोर होती जाएगी।
आज पूरे विश्व एवं विशेष तौर से भारत में तो जनसंख्या वृद्धि की दर एक विकराल रूप धारण करती जा रही है। इसे रोकने के लिए नारा दिया जाता है कि अगला बच्चा अभी नहीं तथा एक से दूसरे बच्चे के बीच में अन्तराल रखा जाए जिससे जन्म देने वाली माता स्वस्थ रहे तथा बच्चा भी स्वस्थ हो। आखिर मिट्टी, जमीन दोनों ही जीवंत हैं। इनमें भी नए जीव को जन्म देने एवं पालन-पोषण की शक्ति होती है। ऐसी परिस्थिति में अन्य जीव विशेष रूप से मानव में अपनाए जा रहे सिद्धांत को जीवन्त खेती में क्यों नहीं अपनाया जा रहा है।
मैं फरवरी, मार्च में प्रकाशित विभिन्न कृषि पत्रिकाओं को देख रहा था। इनमें मैंने पाया कि अधिकतर विशेषज्ञों/ वैज्ञानिकों द्वारा जायद (गर्मी) में तिल, मक्का, मूंग, उड़द लगाने की तकनीकी पर बड़े जोर-शोर से आलेख लिखे परन्तु यह किसी ने भी उल्लेख नहीं किया कि मिट्टी, खेत को आराम देने के लिए जायद में फसलें न ली जायें, या लें तो ऐसे खेतों में लें जिनमें रबी, खरीफ की फसल न ली गई हो।
वर्तमान में समस्त पहलुओं पर विश्लेषण करने के पश्चात मैं कृषकों को यही सलाह देना चाहूंगा कि जायद की फसलें कम से कम ली जायें। ये फसलें उन्हीं खेतों में ली जायें जहां खरीफ, रबी एक मौसम में कोई फसल न ली गई हो। ऐसी परिस्थिति में भी फसलें उन्हीं क्षेत्रों में लेने का कार्यक्रम बनाएं जहां समुचित मात्रा में सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हो। तात्पर्य है सिंचाई योजनाओं के कमाण्ड क्षेत्र में जिनमें गर्मी के लिए पानी हो। कुएं नलकूप के क्षेत्रों में जो इन फसलों को न लिया जाये। वैसे भी इस वर्ष कई क्षेत्रों में अल्प/ अनियमित वर्षा हुई है, जिसके फलस्वरूप अधिकतर तालाबों एवं भूजल स्त्रोत में पानी की कमी है तथा भूजल की भी कमी है। जायद में तापमान अधिक होने से पानी की आवश्यकता भी अधिक होती है। वैसे भी जो पानी उपलब्ध है उसके उपयोग की सर्वोच्च प्राथमिकता ग्रामीण, शहरी आबादी, पशुपालन एवं अन्य प्राणियों के पेयजल के लिए ही निर्धारित है और आवश्यक भी है।
अत: मेरी कृषकों को यही सलाह है कि फसल चक्र, अन्तरवर्तीय फसलों के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए पानी की समुचित मात्रा उपलब्ध होने पर ही जायद की फसल लेने का विचार करें। जायद में भी बाजार को ध्यान में रखते हुए अधिकतर सब्जियों का उत्पादन करें, जिससे अधिक आमदनी हो सके। यह भी ध्यान रखें कि प्राथमिकता स्वयं के परिवार में लगने वाली सब्जियों एवं खाद्यान्न उत्पादन पर दें जिससे तेज गर्मी में आपको ना तो बाजार में बेचने या खरीदने जाना पड़े। यदि फसलें लेते हैं तो इनमें रसायनिक उर्वरकों का उपयोग नहीं करें तथा अधिक से अधिक जैविक ठोस, तरल पोषक तत्वों का उपयोग करें। जिन खेतों में फसलें नहीं ली जा रही हैं उन्हें गर्मी की जुताई कर धूप खाने के लिए छोड़ जायें जिससे नुकसानदायक कीट वगैरह नष्ट हो सकें।
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