Posted by क्षेत्रीय केंद्रीय एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन केंद्र, लखनऊ
Punjab
2019-01-07 10:26:34
आम में लगने वाले प्रमुख रोग और उनकी रोकथाम
जनवरी-फरवरी माह में आम के बाग में कई तरह के रोग लगने की सम्भावना बढ़ जाती है, जिससे आम उत्पादन पर भी असर पड़ सकता है। ऐसे में किसान अभी से प्रबंधन करके नुकसान से बच सकते हैं।
इसलिए यह जरुरी हो जाता हो जाता है, कि समय रहते फसल में आने वाली समस्याओं को पहचाना जाये और उनकी रोक थाम की जाये। आम की फसल पर लगने वाले रोगों और उनके प्रबंधन के बारे में बता रहे हैं।
आम पर लगने वाले प्रमुख रोग
सफ़ेद चूर्णी रोग / दहिया रोग (Powdery Mildew):
बौर आने की अवस्था में यदि मौसम बादल वाला हो या बरसात हो रही हो तो यह बीमारी लग जाती है। इस बीमारी के प्रभाव से रोगग्रस्त भाग सफ़ेद दिखाई देने लगता है। इससे मंजरियां और फूल सूखकर गिर जाते है|
रोकथाम:
इस रोग के लक्षण दिखाई देते ही आम के पेड़ों पर पांच प्रतिशत वाले गंधक (दो ग्राम / लीटर पानी) के घोल का छिड़काव करें।
इसके अतिरिक्त डायनोकेप (कैराथेन एक मिली लीटर / लीटर) घोलकर छिड़काव करने से भी बीमारी पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
जिन क्षेत्रों में बौर आने के समय मौसम असामान्य रहा हो बहां हर हालत में सुरक्षात्मक उपाय के आधार पर 0.2 प्रतिशत वाले गंधक के घोल का छिड़काव करें और जरुरत के अनुसार उसे दुहराएँ ।
कालावूण रोग एन्थ्रेक्नोज रोग (Antracnose):
यह बीमारी अधिक नमी वाले क्षेत्रों में अधिक पायी जाती है। इसका आक्रमण पौधों के पत्तों, शाखाओं और फूलों जैसे मुलायम भागों पर अधिक होता है। प्रभावित हिस्सों में गहरे भूरे रंग के धब्बे आ जाते हैं।
रोकथाम:
0.2 प्रतिशत जिनैब मिश्रण का छिड़काव करें। जिन क्षेत्रों की सम्भावना अधिक हो बहां सुरक्षा के तौर पर कलियाँ विकसित होने से पहले ही उपरोक्त घोल का छिड़काव करें ।
ब्लैक टिप / कोइली रोग (black tip /Koili rog):
यह रोग ईंट के भट्टों के आस-पास के खेतों में उससे निकलने वाली गैस सल्फर डाई ऑक्साइड के कारण होता है। इस बीमारी में सबसे पहले फल का अग्र भाग काला पड़ जाता है, इसके बाद ऊपरी हिस्सा पीला पड़ जाता है। तत्पश्चात गहरा भूरा और अंत में काला पड़ जाता है। यह रोग दशहरी किस्म के आम में अधिक होता है।
रोकथाम:
इस रोग से फसल को बचाने का सर्वोत्तम उपाय यह है, कि ईंट के भट्टों की चिमनी आम के पूरे मौसम के दौरान लगभग 50 फीट ऊँची रखी जाये। इस रोग के लक्षण दिखाई देते ही (लगभग अप्रेल) में बोरेक्स 1% (एक किलो ग्राम/ 100 लीटर) पानी की दर से बने घोल का छिड़काव करें। फलों की बढ़वार की बिभिन्न अवस्थाओं के दौरान आम के पेड़ों पर 0.6 प्रतिशत बोरेक्स के दो छिड़काव फूल आने से पहले और तीसरा फूल बनाने के बाद छिड़काव करें। जब फल मटर के दाने के बराबर हो जाये तो 15 दिन के अंतराल पर तीन छिड़काव करना चाहिए।
गुच्छा / गम्मा रोग (Malformation):
यह एक प्रकार का आम पेड़ों पर होने वाला रोग है। प्राय इस रोग के कारकों में फ्यूजेरियम सबग्लोटिनेंस नामक फफूंद का उल्लेख होता है। लेकिन अनेक विषेशज्ञों का मानना है। कि इस रोग का कारण पौधे में होने वाले हार्मोनों का असंतुलन है। गुम्मा रोग से ग्रसित आम के पेड़ में पत्तियों और फूलों में असामान्य वृध्दि और फल विकास अवरुद्द हो जाता है। ऐसा पाया गया है कि आम की भारतीय प्रजातियां इस रोग से अधिक ग्रसित होती है।
लक्षण: नई पत्तियों और फूलों की असामान्य वृध्दि टहनियों पर एक ही स्थान पर अनगिनत छोटी-छोटी पत्तियां निकल आना, बौर के फूलों का असामान्य आकर होना, फूल का गिर जाना, फल निर्माण अबरूद्द हो जाना आदि।
यह दो प्रकार का होता है:
आम के पत्तियों का गुम्मा (Leaf information) आम की टहनी पर एक पट्टी के स्थान पर अनगिनत छोटी-छोटी पत्तियों का गुच्छा बन जाना, तने की गांठों के बीच अंतराल अत्यधिक कम हो जाना, पत्तियों का कड़ा हो जाना, बाद में यह गुच्छा नीचे की और झुक जाता है। और टॉप जैसा दिखता है।
आम के फूलों का गुम्मा (Floral Malformation)
इस रोग से ग्रसित बौर की डाली अधिक मोटी और अधिक शाखायुक्त हो जाती है, जिस पर दो से तीन गुना अधिक असामान्य पुष्प बन जाते हैं। जो कि फल में परिवर्तित नहीं हो पाते हैं। अथवा यदि इन पुष्पों से फल बनता भी है तो जल्द ही सूखकर गिर जाते हैं।
रोकथाम :
इस बीमारी का मुख्य लक्षण यह है, कि इसमें पूरा बौर नपुंसक फलों का एक ठोस गुच्छा बन जाता है।
आम के पौधे गुम्मा रोग से बचाने के लिए रोगग्रस्त पुष्पों की मंजरियों को 30-40 सेमी नीचे से कटाई कर दें और धरती में खोद कर दवा दें।
उपचार के लिए प्रारम्भिक अवस्था में जनवरी-फरवरी माह में बौर को तोड़ दें और अधिक प्रकोप होने पर 200 पीपीएम वृध्दि होरमोन की 900 मिली प्रति 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव कर दें, और कलियाँ आने की अवस्था में जनवरी के महीने में पेड़ के बौर तोड़ देना भी लाभदायक रहता है, क्योंकि इससे न केवल आम की उपज बढ़ जाती है। वल्कि इस बीमारी के आगे फैलने की सम्भावना भी कम हो जाती है।
चार मिली लीटर प्लानोफिक्स प्रति नौ लीटर पानी में घोलकर फरवरी-मार्च के महीने में छिड़काव करें।
पत्तों का जलना (Life Scorching /Buening)
उत्तर भारत में आम के कुछ भागों में पोटेशियम की कमी से और क्लोराइड की अधिकता से पत्तों के जलने की गंभीर समस्या है। इस रोग से ग्रसित वृक्ष के पुराने पत्ते दूर से ही जले हुए दिखाई देते हैं।
रोकथाम:
इस समस्या से फसल को बचाने के लिए पौधों पर पांच प्रतिशत पोटेशियम सल्फेट के छिड़काव की सिफारिश की जाती है। यह छिड़काव उसी समय करें जब पौधों पर नई पत्तियाँ आ रहीं हों। ऐसे बागों में पोटेशियम क्लोराइड उर्वरक का प्रयोग न करने की सलाह भी दी जाती है।
उल्टा सूखा रोग/ डाई बैक रोग:
इस रोग में आम की टहनी ऊपर से नीचे की और सूखने लगती है, और धीरे-धीरे पूरा पेड़ सूख जाता है। यह फफूंद जनक रोग होता है, जिससे तने की जलवाहिनी में भूरापन आ जाता है, और वाहिनी सूख जाती है, जल भी ऊपर नहीं चढ़ पाता है।
रोकथाम:
इसके रोकथाम के लिए रोग ग्रसित टहनियों के सूखे भाग से 25 सेंटीमीटर नीचे से काट कर जला दें। कटे स्थान पर बोर्डो पेस्ट लगाएं और अक्टूबर माह में कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का 0.3 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। साथ ही साथ ट्राइकोडर्मा युक्त गोबर की सड़ी खाद चार-पांच किलो प्रति पेड़ डालें।
तने से गोंद निकलना
यह रोग यांत्रिक चोट या रगड़ के कारण होता है, जिससे की ग्रसित भाग से गोंद निकलना शुरू हो जाता है, इससे उत्पादन पर भी प्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है।
रोकथाम:
ग्रसित भाग हो शार्प चाकू से साफ कर लें और कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का 0.3 प्रतिशत घोल का लेप लगाएं अथवा देशी गाय के गोबर का स्लरी बनाकर लेप लगाएं।
झुमका रोग:
इस रोग में आम का आकार मटर के दाने जैसा रह जाता है। इसका मुख्य कारण है पुष्पावस्था में कीटनाशक का छिड़काव जिसकी वजह से सत प्रतिशत पर-परागण की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हुई, जिसके फलस्वरूप फ्रूट सैटिंग नहीं हुआ और आकार मटर के दाने के बराबर ही रह गया।
रोकथाम :
पुष्पावस्था के समय किसी भी प्रकार के कीटनाशक व रोगनाशक का प्रयोग न करें|
कीट आकर्षक फसलें जैसे गेंदा गुलदाउदी व सरसों आदि का अंत: फसल लगाएं, जिससे कि बाग में पर-परागण करने वाले कीट की संख्या बनीं रहे।
क्षेत्रीय केंद्रीय एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन केंद्र, लखनऊ के संयुक्त निदेशक डा.टीए उस्मानी और वैज्ञानिक सहायक राजीव कुमार