हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय ने मटर की नई रोग प्रतिरोधी किस्म की विकसित, इन राज्यों के किसानों को होगा फायदा

December 23 2020

हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय (हकृवि) के कृषि वैज्ञानिकों ने दाना मटर की नई रोग प्रतिरोधी किस्म एचएफपी-1428 विकिसत की है। इस किस्म को विश्वविद्यालय के आनुवंशिकी एवं पौध प्रजनन विभाग के दलहन अनुभाग ने विकसित किया है। इस किस्म को भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के कृषि एवं सहयोग विभाग की ‘फसल मानक, अधिसूचना एवं अनुमोदन केंद्रीय उपसमिति’ ने नई दिल्ली में आयोजित बैठक में अधिसूचित व जारी किया है।

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. समर सिंह ने बताया कि इससे पूर्व विवि द्वारा दाना मटर की अपर्णा, जयंती, उत्तरा, एचएफपी-9426, हरियल, एचएफपी-529 व एचएफपी-715 किस्में विकसित की जा चुकी हैं।

उत्तर-पश्चिम भारत के मैदानी इलाकों के लिए की विकसित

रबी में बोई जाने वाली दाना मटर की एचएफपी-1428 किस्म को भारत के उत्तर-पश्चिम मैदानी इलाकों के सिंचित क्षेत्रों में काश्त के लिए अनुमोदित किया गया है, जिसमें जम्मू और कश्मीर के मैदानी भाग, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड राज्य शामिल हैं।

कम अवधि में पककर तैयार होती है किस्म

विवि के अनुसंधान निदेशक डॉ. एसके सहरावत ने बताया कि इस किस्म की खासियत यह है कि इसकी फसल कम अवधि (लगभग 123 दिन) में पककर तैयार हो जाती है। यह हरे पत्रक एवं सफेद फूलों वाली बौनी किस्म है व इसके दाने पीले-सफेद (क्रीम) रंग के मध्यम आकार व थोड़ी झुर्रियों एवं हल्के बेलनाकार होते हैं। 

इसके पौधे सीधे बढ़ने वाले होते हैं, इसलिए फलियां लगने के बाद गिरते नहीं हैं, जिससे इसकी उत्पादकता नहीं घटती एवं कटाई भी आसान हो जाती है। इसके अलावा इसकी जड़ों में नत्रजन स्थापित करने वाली गांठें और नाइट्रोजीनेस गतिविधि बहुत अधिक होती है, जिस कारण इसकी पर्यावरण से नत्रजन स्थापित करने की क्षमता अत्यधिक है, जोकि इसके बाद ली जाने वाली फसलों के लिए भी लाभदायक है। इसकी औसत पैदावार 26-28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर एवं अधिकतम पैदावार 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक आंकी गई है।

रोगरोधक क्षमता अधिक

यह किस्म सफेद चूर्णी, एस्कोकायटा ब्लाइट व जड़ गलन जैसे रोगों की प्रतिरोधी है एवं इसमें रतुआ का प्रकोप भी कम होता है। इस किस्म में एफिड जैसे रसचूसक कीट एवं फली छेदक कीटों का प्रभाव भी पहले वाली किस्मों की तुलना में बहुत कम होगा। 

इन वैज्ञानिकों का योगदान

यह किस्म कृषि वैज्ञानिक डॉ. राजेश यादव के नेतृत्व में, डॉ. रविका, डॉ. नरेश कुमार और डॉ. एके छाबड़ा ने विकसित की है। इसमें डॉ. रामधन, डॉ. तरुण वर्मा एवं डॉ. प्रोमिल कपूर का भी विशेष योगदान रहा।

 

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स्रोत: Amar Ujala