बुटाटी गांव राजस्थान से नवोदित सक्तावत
क्या है जेई
जेई लकड़ी की एक संरचना होती है जो आकार में 6 फीट लंबा होता है। इसका पंजा खुदाई करने वाली JCB जैसा होता है जो शुद्ध लकड़ी से बना होता है। यह बेहद मजबूत होता है। चूंकि इसका निर्माण अलग-अलग तरह की विशेष लकडि़यों से किया जाता है इसलिए इसकी बनावट जटिल होती है। गुणवत्ता और टिकाऊपन इसकी खूबी होती है। इस बात की तस्दीक इस तथ्य से होती है कि राजस्थान में इसकी जर्बदस्त मांग रहती है।
ऐसे होता है निर्माण
जेई कई भागों में बनाई जाकर बाद में असेंबल की जाती है। दस्ते की लकड़ी अलग होती है पंजे की अलग। दोनों को बीच में से एक ज्वाइंटर लगाकर जोड़ा जाता है। यह किसी मृत पशु के चमड़े का होता है जिस पर टांके लगाकर उसे मजबूती से कसा जाता है और दस्ते व पंजे को एक किया जाता है। इसमें लगने वाली लकड़ी मुख्य तौर पर स्थानीय लकड़ी होती है जो बुटाटी के जंगलों में पाई जाती है। इसके अलावा बबूल और बेर की लकड़ी भी लगती है। मध्यप्रदेश के चंबल इलाके से गांगेन लकड़ी बुलवाई जाती है। दस्ता (पकड़ने वाला डंडा) बनाने वाली लकड़ी बेंगलुरु से मंगाई जाती है।
इन कामों में होता है इस्तेमाल
खेत जोतने से पहले जमीन तैयार करने में इसका प्राथमिक उपयोग होता है। यानी जिस जगह फसल बोई जाएगी, वहां मिट्टी, घास, पत्थर और मलबा हटाने में जेई का पंजा बेहद मुफीद है। इसके अलावा चारा उठाने, बड़े पौधे हटाने, अनाज निकालने में इसका इस्तेमाल किया जाता है। बाजरा, मूंग, मोढ़, ग्वार आदि फसलों के समय जेई काम आता है।
फिनिशिंग और चिकनाई होती है बेजोड़
दस्ते सहित पंजे की लकड़ी की फिनिशिंग का काम बहुत बारीक, जटिल और परिश्रम भरा होता है क्योंकि दस्ते को अंतत: चिकना होना जरूरी है ताकि उसे पकड़ते समय हाथों में कोई फांस ना चुभ पाए। एक ही आकार में लकडि़यों को काटने के बाद उन्हें इस तरह रखा जाता है कि वे मुड़ जाएं। इसके बाद प्रहार करके उनके छिलके उतारे जाते हैं। फिर मशीन से संपूर्ण छिलाई होती है। इस प्रक्रिया में लकड़ी बीच में से नहीं टूटती, यह बहुत रोचक बात है।
बना हुआ है बुटाटी की पहचान
जेई उद्योग प्रदेश भर में बुटाटी गांव की पहचान बना हुआ है। यहां यह काम करीब 50 साल से हो रहा है। गांव में इसके निर्माण के लिए बड़ी संख्या में कारीगर हैं। लगभग हर दूसरे या तीसरे घर में जेई बनाने का काम चलता है। इसे बनाने वाले श्रमिकों को ठेकेदार या सप्लायर से काम मिलता है। एक निश्चित संख्या में जेई बनाकर देने पर उन्हें तय मेहनताना दिया जाता है। एक अनुमान के अनुसार पूरे बुटाटी गांव में करीब साढ़े तीन सौ घरों में जेई बनाने का काम चलता है। गांव में ठेके पर काम देने वाले और दूसरे जिलों में सप्लाई करने वाले कारोबारियों की संख्या में भी 50 से 60 है।
इन शहरों में खास है मांग
जेई के कारोबारी गोविंद जांगिड़ बताते हैं वैसे तो बुटाटी से पूरे राजस्थान में जेई की सप्लाई की जाती है लेकिन मुख्य तौर पर जयपुर, जोधपुर, बाड़मेर, पाली, जैसलमेर, सिरोही, चित्तौड़गढ़ और झूंझनू जिलों में इसकी अधिक मांग रहती है। बुटाटी के कारीगरों के सामने साल भर ज्यादा से ज्यादा जेई बनाकर देने की चुनौती होती है क्योंकि इसकी लगातार खेप जाती रहती है। गोविंद की वर्कशॉप कुचेरा रोड पर है जहां दर्जनों कर्मचारी काम करते हैं। यह उनका पुश्तैनी व्यवसाय है।
जितने पंजे, उतना दाम
जेई अलग-अलग पंजों की बनाई जाती है। किसी पंजे में 6 अंगुलियां होती हैं, किसी में 8 तो किसी में 10 अंगुलियां। इनके हिसाब से इनके दाम भी तय होते हैं। स्थानीय भाषा में इसे चार हाथ की या छह हाथ की जेई कहते हैं। चार हाथ की जेई बाजरा निकालने के काम आती है। इसकी कीमत 300 रुपए होती है। चारा डालने वाली 8 हाथ की होती है, जिसका मूल्य 400 रुपए है। 6 हाथ की जेई 350 रुपए की मिलती है तो सबसे महंगी 10 हाथ वाली जेई होती है जिसका मूल्य 850 रुपए है। यह नागौरी पान व मैथी निकालने के काम आती है। एक जेई के निर्माण पर कुल लागत 140 रुपए की आती है।
लोहे और प्लास्टिक के पंजों पर लकड़ी भारी
वर्कशॉप में लोहे और प्लास्टिक के पंजों वाली जेई भी उपलब्ध हैं। इनकी भी बिक्री होती है। प्लास्टिक का तो सवाल ही नहीं है, लेकिन आश्चर्य है कि लोहा तक इस काम में मजबूत नहीं ठहर पाता। लकड़ी के पंजे सबसे मजबूत और टिकाऊ माने जाते हैं। यही एक पुख्ता जेई की पहचान है।
जी-तोड़ परिश्रम का है यह काम
जेई बनाने का काम कर चुके बाबूलाल का कहना है यह काम जी-तोड़ मेहनत का है। अब उन्होंने आय का दूसरा साधन जुटा लिया है। जब वे जेई के कारीगर थे तो एक दिन में करीब 60 जेई बनाते थे तब जाकर 400 रुपए कमा पाते थे। चूंकि बुटाटी गांव में आय का अन्य साधन नहीं है इसलिए यहां के लोग यही काम करते हैं। इस काम में मेहनत जरूर है लेकिन काम लगातार मिलता है क्योंकि सैकड़ों गांवों में माल बनकर जाता है। बारिश का समय सीजन का होता है। सबसे ज्यादा मांग इसी समय होती है। सीजन डाउन होने पर साढ़े तीन सौ रुपए कीमत की जेई को दो सौ में बेचकर भी खपाया जाता है।
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स्रोत: नई दुनिया