वन-महोत्सव पर विशेष: खरीफ का महीना-वृक्ष लगाने का महीना

खरीफ का महीना,धरती पर अजीब अहिसास लेकर आता है। रबी महीने की कड़कती धूप, धरती को साड़ कर रख देती है तब खरीफ की आमद, अर्थात बरसात की आमद ही समझी जाती है। सिर्फ मानव ही नहीं बल्कि धरती पर रहते सभी जीवों और वृक्षों में नई जान आ जाती है। वैसे तो साल के कई नए वृक्ष लगाने में सहायक होते हैं पर खरीफ का महीना खास माना जाता है-

आया खरीफ का महीना
वृक्ष लगाने का महीना।

दिन प्रतिदिन बढ़ रही कुदरती आफतों और वातावरण हालते हमें सीधे तौर पर संकेत दे रहीं हैं कि हम कुदरत से दूर जा रहे हैं। हरे भरे जंगलों में रहने वाला मानव आज कंकरीट के जंगलों का निवासी हो गया है। वृक्षों से नाता तोड़कर हम ईमारती और बनावटी माहौल को पहल देने लगे हैं। हमारे गुरूओं-पीरों ने तो सदियों पहले हमें वृक्षों की मानवों और जीव-जंतूओं की आपसी सांझ के बारे में बताया था।

बिरखा हेठ सभ जीव इकट्ठे

पर अफसोस हम धार्मिक स्थानों पर सिर और नाक रगड़ते हैं पर जो शिक्षा और संदेश उन्होंने मानव जाति को दिया था उसके ऊपर अमल करने के बारे में नहीं सोचते। संगमरमर पत्थर लगा लगाकर हम पता नहीं क्या सिद्ध करना चाहते हैं।

दोस्तो! देर आए दरूस्त आए। जबकि हम बहुत लेट या पीछे रह चुके हैं पर पर अभी भी ज्यादा देर नहीं हुई, यदि हम अपने फर्ज़ को पहचान कर कार्य शुरू करें। बरसात ऋतु आ गई है इसे वृक्ष लगाने की ऋतु भी कहा जाता है। हम साल में अनेक त्योहार मनाते हैं। दीवाली, दशहरा की तरह आज हमें वृक्षों के त्योहार यानि वन-महोत्सव को भी उतनी ही चाहत से मनाना पड़ेगा जितनी चाहत से हम और त्योहारों को मनाते हैं, जिन वृक्षों से सृष्टि का सारा चक्क्र चलता है। हमारी सभी जरूरतों की पूर्ति ये करते हैं। खास तौर पर हमें हर पल जीनें के लिए ऑक्सीजन देते हैं। हमें इनका त्योहार मनाने में बढ़ चढ़कर भाग लेना चाहिए। वृक्ष हमारे जन्म से मरन तक के सफर में रोजाना की जिदंगी में दातुन से लेकर रात को सोने वाली चारपाई तक हमारी जरूरतों को बिना कुछ बोले पूरा करते हैं। हम सभी हवा में अलग-अलग साधनों के द्धारा जहर घोल रहे है और सुरजीत पातर साहिब के अनुसार-

यही है मेरी मेयक्शी,इसमें मस्त हूं,
हवाओं से जहर पी रहा हूं मैं वृक्ष हूं।

इसलिए वन-महोत्सव के बारे में विस्तार से बात करनी बनती है।

वन-महोत्सव को मनाने की शुरूआत के बारे में बात करें तो यह बताना जरूरी है कि शुरूआती दिन समय इस उत्सव का नाम ‘वृक्ष लगाओ उत्सव’ था और हमारे देश में पहले ‘वृक्ष लगाओ’ उत्सव संन 1947 के जुलाई महीने वृक्ष लगाओ सप्ताह के तौर पर मनाया गया। कुछ लोग इसे ‘वृक्ष बीजने वाला’ सप्ताह भी कहते। इस उत्सव का आगाज़ हमारे देश के महान नेताओं पंडित जवाहर लाल नेहरू, डॉक्टर रजिंदर प्रसाद और मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद जैसे नेताओं ने ‘कचनार’ के पौधे लगाए थे। संन 1950 में श्री के.एम मुनशी जोकि उस समय भारत के खुराक और खेतीबाड़ी मंत्री थे, उन्होंने इसका नाम बदल कर ‘वन-महोत्सव’ रखा। मुनशी जी ने वृक्ष लगाने की लहर राष्ट्रीय स्तर पर चलाकर आम लोगों का ध्यान इसकी तरफ करवाया। उनके कथन अनुसार देश की साधारण आर्थिक दशा में वृक्षों का अपना स्थान होता है। वन खेतीबाड़ी से संबंधित नहीं होते। हमारे वन ऐसे स्रोत हैं जिनसे हम अपने लाखों की गिनती में बढ़ रहे लोगों के लिए खाद खुराक प्राप्त कर सकते हैं। वृक्षों के होने का अर्थ होगा पानी का होना और यदि पानी हो तो खुराक आम ही हो सकती है और खुराक ही जिंदगी को बनायी रखने में जरूरी होती है।

वन-महोत्सव हमारे त्योहारों दीवाली, दशहरा की तरह नहीं कि पटाखे चलायें, शौर किया और फिर शांत होकर बैठ गए। यह तो ऐसा कार्य है तो निरंतर अंदोलन की तरह है जो दिन रात चलता है। एक दिन या महीना वृक्ष लगाकर काम खत्म नहीं किया जाता बल्कि शुरू किया जाता है जो कभी खाद डालना, पानी लगाना, पशु-पंक्षियों से बचाना, सूखा या ज्यादा पानी आने की स्थिति से बचाते हैं। फिर दोबारा बरसात आ जाती है और हम लगातार वृक्षों के साथ ही चलते रहते हैं। यदि वृक्ष लगाना बहुत महान काम है तो उसकी संभाल करना उससे भी बड़ी महानता है। बल्कि मैं तो यह समझता हूं कि आज की स्थिति को नज़र में रखते हुऐ हमें नया रिवाज ‘वृक्ष बचाओ अंदोलन’शुरू करना चाहिए। सालों से तैयार वृक्ष लोगा अनेक तत्थों का सहारा लेकर खत्म कर रहे हैं। खत्म हो रहे वृक्षों को बचाने के लिए किसी भी देवी शक्ति नहीं आएगी बल्कि हमें ही कुछ करना पड़ेगा।

विश्व स्तर पर यदि वन महाउत्सव की बात करें तो हमें उन लोगों से प्रेरण लेनी चाहिए जिनके देश जंगलों से भरे हुऐ हैं फिर भी वो लोग वृक्ष दिवस, वृक्ष मेला और हरियावल सप्ताह आदि मनाते है। कैनेडा में वन रकक्ष सप्ताह अनके अदारे मनाते हैं और आम लोगों को जंगल में लगने वाली आग से बचने की महत्ता के बारे में बताते हैं। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, इज़रायिल आदि देशों में वातावरण हालतों के अनुसार साल के किसी ना किसी महीने में वृक्षों की साभ संभाल और बचाव के लिए उत्सव मनायें जाते है।जापान के लोग तो अप्रैल महीने के एक सप्ताह को राष्ट्रीय वृक्ष त्योहार के तौर पर मनाते है। हरियावल दिवस, ग्रहि वाटिका हरियावल दिवस और स्कूल हरियावल दिवस आदि बांट कर वृक्ष लगाने और पालन पोषण संबंधित लोगों का ध्यान दिलवाया जाता है। दुनिया पर ऐसी लोग भी हैं जिनका मुख्य लक्षण रोटी खाकर सोना, आने वाली पीड़ी के लिए पैसा और ज़मीन इकटृठा करने की जगह लोगों की भलाई वाला काम करना होता है। यदि वृक्ष लगाना बहुत महान काम है तो उसकी संभाल करना उससे भी बड़ी महानता है। बल्कि मैं तो यह समझता हूं कि आज की स्थिति को नज़र में रखते हुऐ हमें नया रिवाज ‘वृक्ष बचाओ अंदोलन’ शुरू करना चाहिए। सालों से तैयार वृक्षों को लोग अनेक तत्थों का सहारा लेकर खत्म कर रहे हैं। खत्म हो रहे वृक्षों को बचाने के लिए कोई भी देवी शक्ति नहीं आएगी बल्कि हमें ही कुछ करना पड़ेगा।

विश्व स्तर पर यदि वन महाउत्सव की बात करें तो हमें उन लोगों से प्रेरणा लेनी चाहिए जिनके देश जंगलों से भरे हुऐ हैं फिर भी वो लोग वृक्ष दिवस, वृक्ष मेला और हरियावल सप्ताह आदि मनाते है। कैनेडा में वन रकक्ष सप्ताह अनेक अदारे मनाते हैं और आम लोगों को जंगल में लगने वाली आग से बचने की महत्ता के बारे में बताते हैं। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, इज़राइल आदि देशों में वातावरण हालतों के अनुसार साल के किसी ना किसी महीने में वृक्षों की देख-भाल और बचाव के लिए उत्सव मनायें जाते है।जापान के लोग तो अप्रैल महीने के एक सप्ताह को राष्ट्रीय वृक्ष त्योहार के तौर पर मनाते है। हरियावल सप्ताह नाम के इस हफ्ते को दिनों के हिसाब से अलग-अलग स्थानों के अनुसार जैसे कि हरियावल दिवस, ग्रहि वाटिका हरियावल दिवस और स्कूल हरियावल दिवस आदि बांट कर वृक्ष लगाने और पालन पोषण संबंधित लोगों का ध्यान दिलवाया जाता है। दुनिया पर ऐसे लोग भी हैं जिनका मुख्य लक्ष्य खाना खाकर सोना, आने वाली पीढ़ी के लिए पैसा और ज़मीन इकट्ठा करने की जगह लोगों की भलाई वाला काम करना होता है। यदि सारा संसार पैसे और दौलत के लिए कुदरत से इस तरह खिलवाड़ करता रहा तो विनाश ज्यादा दूर नहीं।

पहले लोग वृक्षों को हर स्थान पर जगह देते थे, फिर चाहे वो घर,गली, गांव, साझेदारी स्थानों सभी जगहों पर वृक्षों को अहमियत होती थी। लोगों के घरों की निशानी की उदाहरण इस तरह लोग गीत में नज़र आती है-

मेरा साहमणे गली विच्च घर है,
पिपल निशानी ,जीवे ढोला ढोल जानी,
साडी गली आये तेरी मेहरबानी।

पर आजकल स्तिथि बदल चुकी है। हमारे वन, पीलू, जंड, करीर, लसूड़े, बरने आदि अनेक वृक्ष दिन प्रतिदिन पंजाब से खत्म हो रहे हैं। हमें वृक्ष लगाते समय उन वृक्षों को भी पहल देनी चाहिए जो अलोप होने की सूची में शामिल हो चुके हैं।समाज के हर वर्ग, हर बच्चे, जवान , बुजुर्ग हर रिशते की जिम्मेदारी बनती है कि पहले लगायें वृक्षों को सूखने/ खत्म होने से बचाएं और इनके लिए चिंता करनी चाहिए-

पीलां मुक्कियां, टाहलियां सुक्कियां,
सुक्क जान न रुक्ख हरे भरे,
आख नी नणाने अपने वीर नू,
भोरा ते फिक्क्र करे।

परंतु खुशी इस बात की है कि पिछले कुछ सालों के दौरान हम लोग वृक्षों के प्रति जागरूक हो गए हैं। अब धरती पर वृक्ष लगने शुरू हो गए हैं। अनेक लोग और अलग-अलग संस्थाओं ने भी अपना काम शुरू किया है और वो कामयाब भी हो रहे हैं। हम सभी को अपने फर्ज़ को पहचानते हुऐ वृक्ष बचाने और उनकी संभाल से संबंधित कार्यों में योगदान देना चाहिए। परंतु एक बात जरूर है कि हम वृक्षों की संख्या ज्यादा से ज्यादा लगाकर उनकी संभाल ना करना और सुरखियों में रहने वाली आदतों से प्रहेज करना चाहिए।

आएं हम सभी मिलकर इस वन-महोत्सव पर वृक्ष लगाएं और उनकी संभाल वाली लहर में अपना योगदान देकर इस बंजर हो रही धरती को फिर से वृक्षों से श्रृंगार करें और दुआ करें कि हमारे महान सहितकारों को निराशा के आलम में जाकर इस तरह ना लिखना पड़-

ईथ्थों कुज परिंदे ही उड़ गये
ईथ्थे मेघ आके भी मुड़ गये
ऐसे करन आज कल कुज बिरख भी
किते होर जान दे मशवरे।

डॉ. बलविंदर सिंह लखेवाली
+91 98142-39041

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